सोमवार, 12 दिसंबर 2022

गजल




निगाहों की जद में आओ तो कहूँ,

गुनाहों की हद में आओ तो कहूँ।


कितनी मायाळी छुँयाळ* है ये आँखें,  

आँखों से आँख लड़ाओ तो कहूँ।


किसने कहा पत्थर जितम* है वह,

फूल से रिसना न पाओ , तो कहूँ।


निरमोही जैसा क्यों लड़ भिड़  जाते हो, 

बिना मोह के मौ* पाओ तो कहूँ।


कौन  है अंदर जिसने जकड़ा है जिया, 

छुड़वा दूंगा पिया बनाओ, तो कहूँ।


नहीं खोले मैंने ड्वार किसी ओर को,  

तुम सांकल खड़खड़ाओ, तो कहूँ।


कितना जिगरा है मैं भी तो देखूँ अडिग, 

जरठों पर भी जिया लगाओ, तो कहूँ।


*शब्दार्थ :- 

मयाळी - मोहनी 

छुँयाळ - बातुनी

जितम - छाती

मौ - परिवार 

ड्वार - दरवाजे

जरठ - बृद्ध 


@ बलबीर सिंह राणा अडिग

ग्वाड़ मटई, चमोली उत्तराखंड 

रविवार, 4 दिसंबर 2022

गजल




बादलों सा बरखा की कहानी में रहें,

गम के जैसा आँखों के पानी में रहें ।


फेंको मत ऐसे टूटे आईने के टुकड़ों को,

ताकि अपने बिखरे निशानी में रहे।


छोकरापन नहीं ठीक झंगरळया हो गए

हम पुराने हुए पुरानी में रहें।


जुबां ज्यूंद्याल नहीं, जो फेंको दो मुट्ठियां भर

अखंड मोतिम है जुबां, जुबानी में रहें।


वक्त वादियां हैं, दूर निकल जाती हैं, 

रवाँ में ही फायदा, रवानी में रहें ।


छोड़ दें देह की अकड़ सकड़ *अडिग*,

दिल कहता है जवां है तो जवानी में रहें। 


अर्थ :-

झंगरळया- आधा सफेदी वाले बाल

ज्यूंद्याल - पूजा के अभिमंत्रित चांवल

मोतिम - वचन, वाणी


*@ बलबीर राणा 'अडिग'*

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

खेल फुटबॉल का

 



पांवो से पांव लड़े

सर से सर भिड़े

मैदाने जंग एक बॉल पर

ऐसे भिड़े कि ऐसे भिड़े ।

 

फुटबॉल के खिलाड़ी हैं

पारंगत हैं अनाड़ी न हैं

नाम नमक निशान पर जूझते

कोई शहरी कोई पहाड़ी हैं।

 

लात-लातों की बात मिली

गेंद फिरकी सी घूम चली

बॉल बेचारी नाचती रही

कभी इधर चली, कभी उधर चली।

 

थी यहीं वह, अब यहाँ नहीं

थी वहीं वह, अब वहाँ नहीं

जगह न कोई मैदान में

गेंद कहाँ नहीं, कहाँ नहीं।

 

क्षण इधर गई, क्षण उधर गई

भागती-भागती हाँपती रही

क्षण विसराम उसे तब मिला

जब एक खेमे के गोल दगी।

 

चरम रोमांस का खेला होता

अदभुत संगत का मेला होता

विजय श्री सरताज उनके 

जिनके हौंसलों में रेला होता।

 

विश्व के सभी फुटबॉल खिलाडियों को समर्पित

 

रचना : बलबीर राणा ‘अडिग’


 

बुधवार, 5 अक्टूबर 2022

उस रावण का दहन




आज फिर पुतला जलेगा,

राख ढेरों से शहर पटेगा,

बारुदी धुऍं में दूभर होंगी सांसे,

रावण अवशेष फिर अट्टहास करेगा। 


सारे अर्थ व्यर्थ हैं,

चहुं ओर रावण समर्थ हैं,

पुतलों पर प्राण प्रतिष्ठा करने के 

कर्म काण्ड सब निरर्थक है।


तंत्र कुम्भकरणी नींद में रहता, 

सरेआम सीता हरण होता,

जटायु हिम्मत दिखती नहीं कहीं, 

मेरी क्या पड़ी, खिसकने में हित दिखता।


हर विजयादशमी जितने रावण जलते हैं, 

हजारों गुना और उगते हैं,  

राम केवल वरण के लिए रह गया, 

चलन में रावण ही विचरते हैं। 


अंदर बैठे उस रावण का दहन करें,

मेरा तो क्या, भावना को भस्म करें,

भारत में राम राज्य लाना है तो, 

राम पद चिह्नो पर गमन करें।


@ बलबीर राणा 'अड़िग'

शनिवार, 13 अगस्त 2022

राष्ट्र उमंगें वेगवान हुई

 

अरुणोदय हुआ चला,

प्राची उदयमान हुई।

माँ भारती के स्वागत को,

राष्ट्र उमंगें वेगवान हुई।।


श्रावणी मंगल बेला पर,

तिरंगा शान से फहरायें। 

आजादी के अमृत महोत्सव को

युगों के लिए अमर बनाएं।।


महापुरूषों के स्वेद से,

मकरन्द यह निकला है।

योद्धाओं के शोणित से, 

हमें लोकतंत्र मिला है।।


चित से उन महामानवों के,

बलिदान का गुणगान करें।

लोकतंत्र के महाग्रंथ का,

अन्तःकरण से सम्मान करें।।


पल्लवन इस वट वृक्ष का,

बुद्धि शक्ति तरकीब से हुआ।

तब इस सघन छाया में बैठना, 

हम सबको नसीब हुआ।


ज्ञान, भुजबल परिश्रम से,

शेष दोष-दीनता दूर करें।

रिक्त है अभी भी जो कोष 

चलो मिलकर भरपूर करें।


काम स्व हित संधान तक

यह लोकतंत्र का मान नहीं।

राष्ट्रहित निज कर्तव्यों को

आराम नहीं  विश्राम नहीं।


जग में माँ भारती की,

ऐसी ही ऊँची शान रहे।

अधरों पर तेरे भरत सुत,

जय भारत का गान रहे। 


रचना :- बलबीर राणा 'अडिग'

रविवार, 10 जुलाई 2022

दोहे



मद मोह में अंधे बन, न करो भागम भाग। 

रहे इतना भान मनुज, लगे ना अमिट दाग।।


सत मार्ग कारिज होवे, बन जाए कर्मप्रधान।

तेरे बाद रहे अमर, तेरे करम सुजान।।


कल के लिए आज तेरा, हो संचय तू जान।

सत पूंजी संकट मिटे, सत सुमार्ग पहचान।


देव धर्म धरा सब दीर्घ, कुपथ गमन नष्टवान।

शूल वाणी बमन तजो, सुवचन सम बलवान।


छुवीं नन्हीं शीतल बने, छुवीं ही बड़ी आग।

छुवीं लगे ऐसी अडिग, नष्ट हों तेरे दाग। 


छुवीं = बातचीत 


©® बलबीर राणा ‘अडिग’





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रविवार, 3 जुलाई 2022

गजल


 


मोहकता तो एक  बहाना है,

अंगजा  को धरती सजाना है।

 

जितने  भी  रंग  ऋतुऐं  बदले,

उन्हीं में उसका आना जाना है।

 

आभा जो कुसुम बन निखरी,

उसको  नहीं  कुम्हलाना  है। 

 

और  प्रारब्ध पुष्प का बाकी,

फल बनके  बीज  बनाना है।

 

प्रेम से गाड़े जाने वाले बीज को,

धरा चीर अंकुर  बन  आना  है ।

 

ये  तो प्रकृति  रीति  है  अडिग

अंकुर का वृक्ष बन बूढ़ा जाना है।

 

@ बलबीर राणा ‘अडिग’


रविवार, 19 जून 2022

पिताजी के जूते




आज नजर पड़ी 

बिना पांव के 

उन प्रिय जूतों पर 

जो पिताजी के प्रिय थे 

लोकलाज 

शान सम्मान के द्योतक थे, 

लेकिन आज

निरा तिरस्कृत

कौने में पड़े

धूल से सने, 

तलवे वैसे ही चकत्तेदार चौखट,

जैसे कि आज से 

ठीक पच्चपन साल पहले 

जब ये फैक्टरी से निकले होंगे,

पिताजी पहनते नहीं थे

ले जाते थे इन्हें

काख में दबाके

रस्ते भर,

ताकि गंतव्य में अगले गांव

आते ही कुछ समय पहनके

दिखा सके जूते पहनने की हैसियत, 

और

आजीवन नंगे पांवों में बिवाईयां 

गाड़ते रहे पहाड़ की पगडंडियों पर

मेरे लिए । 


@ बलबीर राणा 'अडिग''

शनिवार, 28 मई 2022

बड़ा आदमी



बड़ा आदमी 

बनने के लिए

पहले गळदार

बन जावो

फिर जिस भी टाईप का

बड़ा बनना है

बन जाओगे

अनेक टाईप के चारी

अनेक टाईप के नेता

यहां तक कुछेक टाईप के

कुछेक समाज सेवक भी

बड़ा अदमी ही बनता है

जिस टाईप की गळदारी

उस टाईप की बड़ी चाकरी।


गळदार - झूठ बोलकर सौदा पटाने वाला ।


@ बलबीर राणा ‘अडिग’


सोमवार, 23 मई 2022

भूख




बहुत हिम्मत और

ताकतवर है साब भूख

हजारों मील दौड़ती है 

संसार के ओर छोर

महाद्वीपों से महाद्वीप

प्रायद्वीपों से टापुओं में 

दाने के लिए। 


भूख बहुत

भावुक नाजुक 

कंयारी क्वांसीली ठैरी,

पिघल जाती है 

द्वार चौराहों पर 

तीर्थ मंदिरों में 

गली, चौक, चौराहों और दरवारों में, 

स्वान बन नतमस्तक हो जाती है

अपने लायक दाने को।


भूख बड़ी 

खूंखार आदमखोर है 

चूस लेती है खून 

ठेले के नीबू से

मल्टीप्लेस मौलों तक, 

चपरासी की फाइल से 

बड़े साब के हस्ताक्षर तक , 

गली का गड्डा भरने से 

एक्सप्रेसवे बनने तक।


भूख बड़ी झूटी  

लंपट है  

क्षुधा मिटते ही 

वादाखिलापी पर आ जाती है

गिरगिट की तरह रंग 

बदलना इसकी फितरत में है

विशेषकर कुर्सी भूख का। 


झोपड़ी, मंजिलों से

अट्टालिकाओं में, 

टाट पट्टी, 

प्लास्टिक कुर्सी से

लग्जरी रोवोल्विंग चियरों में

विलग रूपों वाली है भूख।


विभन्न भाव भंगिमाओं में

नजर आती है भूख

कहीं रोती बिबलाती

कहीं मुल्ल-मुळकती

कहीं खिखताट तो

कहीं विभत्स ठहाका लगाती 

दुखाती, बनाती, रचाती, नचाती 

रहती है जीवन को। 


कुछ भूख घर चलाने को

कुछ केवल घर भरने को 

कोई भूख, भूखों के लिए

कोई स्व सुखों के लिए 

खटकती रहती है। 


एक भूख प्रेम को

एक घृणा को

एक आत्ममुग्त्ता को

एक राष्ट्र स्वाभिमान को 

व्याकुल करती है । 


भूख 

चातक के जैसे

स्वाति नक्षत्र में 

बरसने वाली बूंद  की प्रतीक्षा में 

तठस्थ नहीं रह सकती

बल्कि

पिपीलिका की तरह 

हर समय गतिमान 

चलायमान रहती है

जीवन चलाने को ।


@ बलबीर राणा ‘अडिग’

बुधवार, 18 मई 2022

अति बल खति




भय भूख और नींद

जितनी बढ़ाओ 

बढ़ती जाती है ।


भय हौंसला

भूख ईमान

और नींद, 

शरीर को 

बंधक बनाती है। 

इलै

अति नि कन

अति बल खति।


@ बलबीर राणा 'अडिग'

सोमवार, 16 मई 2022

मकान बनाने का खेल

बनाती है वह

अपनी तरह की एक 

बहुमंजिला अट्टालिका,

खड़ा करती है लकड़ी के 

टुकड़ों से बिम, 

डालती है कूड़ा करक्कट की छत 

और 

बनने के बाद 

दूर से निहारती है

पसंद ना आए तोड़ती है

फिर बनाती है ।

मकान बनाने का यह खेल 

हर रोज खेलती है

मासूम कुमकुम

सामने बनती उस

ऊँची बिल्डिंग की तर्ज पर

जहां उसके माँ बाप 

सीमेंट सरिया बोककर

जुटाते हैं उसके लिए 

दो वक्त का निवाला। 


@ बलबीर राणा 'अडिग '

गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

बहुत विचलित करती हैं "अडिग" की कविताएं : पुष्तक समीक्षा



 बहुत विचलित करती हैं "अडिग" की कविताएं !


"सरहद से अनहद " काव्य संग्रह की समीक्षा
प्रकाशक : समय साक्ष्य, देहरादून
 पृष्ठ 144
मूल्य 150/
प्रकाशन वर्ष 2021

उक्त काव्य संग्रह के कवि सूबेदार बलबीर सिंह राणा 'अडिग' भारतीय सेना का गौरव हैं । उन्होंने कारगिल युद्ध में पराक्रम दिखाने के साथ-साथ सरहद पर अनेक अवसर पर शत्रु के विरुद्ध मुठभेड़ अभियानों में भाग लिया है। चमोली जिले के मटई (ग्वाड़) गाँव के निवासी 'अडिग' शांतिरक्षक सेना के अंग के रूप में कांगो(अफ़्रीका) में भी सेवारत रहे हैं। इसके अलावा वे  'अडिग शब्दों का पहरा' हिंदी में और 'उदंकार' नाम से गढ़वाली भाषा में ब्लॉग लेखन करते हैं। ब्लैक कैट कमांडो रह चुके श्री राणा अच्छे बॉक्सर भी हैं।

ये परिचय इसलिए दिया जा रहा है ताकि आप समझ जाएं कि 'अडिग' जी आपको ज़्यादा देर तक अडिग नहीं रहने देंगे ! उनकी कविताएं आपको गहराई से विचलित करेंगीं... एक रसिक सहृदय पाठक के रूप में ।

"सरहद से अनहद" काव्य संग्रह 2021 में प्रकाशित हुआ है। संग्रह में कुल 71 कविताएं हैं जिन्हें तीन अलग -अलग खंडों में विभाजित किया गया है। सैनिकों के जीवन , जीवट, जिजीविषा और शौर्य कर्म को समर्पित पहला भाग 'कर्त्तव्य पथ' है जिसमे 21 कविताएं रखी गईं हैं। 'भावांजली' नामक दूसरे खण्ड में भारत महिमा, वंदना और गौरव गान को समर्पित 6 कविताएं हैं। तीसरे खण्ड का नाम 'सतरंगी जीवन बिम्ब' है जिसमें अलग-अलग विषयों पर 44 कवितायें समाहित हैं। 

सैन्य जीवन के तमाम पहलुओं पर मार्मिकता से कई कविताएं लिखी गईं हैं । इसके साथ साथ इस संग्रह में गाँव की पीड़ा और स्मृतियाँ हैं( पृष्ठ 87 वे दिन , पृष्ठ 90 आँगन की वेदना , पृष्ठ 91 गाँव की आख़िरी चढ़ाई) , पहाड़ के प्राकृतिक वैभव की उखड़ती सांसों की चिंता है ( पृष्ठ 89 पहाड़ पर कविता) , हिंदी भाषा के सम्मान से किये जाने वाले समझौते पर दुत्कार है ( पृष्ठ 113 हिंदी की पुकार) , देशज और हिमालयी संस्कृति की चिंता है ( पृष्ठ 115 ढोल दमाऊ अब कहाँ होंगे) ,इसमे नारी विमर्श की अनुगूँज है ( पृष्ठ 101 अबला नहीं अब वो सबला है) और उत्तराखंड महिमा का मार्मिक गायन है ( पृष्ठ 116) । ख़बर को सनसनी और सनसनी को राष्ट्रीय चेतना की सनसनाहट बनाने वाले मीडिया की भी कवि ने अच्छी ख़बर ली है ( पृष्ठ 131, यौवन तुझे ललकार) . रुमानियत के साथ कविता का रिश्ता पुराना है इसलिए प्रेम की वासंती फुहार और विरह की वेदना का स्वर ( पृष्ठ 96-7) इस संग्रह का एक आयाम है।  एक बहुत अच्छी कविता 'लोकतंत्र के पर्व पर' (पृष्ठ 136) है जो शीर्षक के अनुरूप मतदान के लिए नागरिकों को प्रेरित करती है और उन्हें जाति-धर्म की संकीर्णताओं और धन और शराब के प्रलोभनों से ऊपर उठकर मतदान करने के लिए प्रेरित करती है। केदारनाथ आपदा पर भी कवि ने लिखनी चलाई है और रुद्र के बेबूझ रौद्र को सरलता से समझाने की कोशिश की है। दो- तीन कविताएं भगवान श्री कृष्ण को समर्पित हैं जिनमें एक कविता ( पृष्ठ 106-7) "कृष्ण वंदना" बहुत ही उच्च स्तरीय है :










देवकी वसुदेव नन्दन कृष्ण चंद वन्दनम
धरा सुशोभितम अभिनंदनम गोविन्दम ।।(106)

संग्रह में विरह और प्रेम दोनों की मीमांसा है और ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा लिए अनेक कविताएं हैं। एक नज़ीर देखिये -
बुरा वक़्त एक घटना मात्र है
अंत नहीं ( पृष्ठ 138, शेषफल) 

दूर से चमकता, दमकता, आकर्षित और सम्मोहित करता हिमालय क़रीब जाने पर कितना चुनौतीपूर्ण होता है इसे सियाचिन ग्लेशियर पर नौकरी करने वाले जांबाज़ सैनिकों से बेहतर कौन जान सकता है ? "हिम किरीट" जैसी कविता इसी प्रसंग पर आधारित है...

सरहद पर चट्टान की तरह मुस्तैद एक फ़ौजी की रात कैसी होती है , पृष्ठ 53 पर 'ऊसर जिजीविषा' नामक कविता इसका पुनर्पाठ इस तरह करती है --

सुनसान स्याह रात 
बैठा वह प्रहरी 
घनघोर अँधेरे में आँख गाड़े
उस शत्रु साये को खोजती 
जो माँ के अस्तित्व को ख़तरा न बने...

युवा दोस्तों को पान सिंह तोमर फ़िल्म का मेस वाला दृश्य याद होगा जिसमें सैनिकों के लिए सीमित मात्रा में ही भोजन उपलब्ध होने का सत्य दर्शाया गया है। यह सत्य है क्योंकि एक ज़माने में फौज में आज की तरह संसाधन नहीं थे, खाना और कपड़े दोनों का भारी अभाव था। अडिग जी ने "और एक पूस की रात" के जरिये उन लाखों  लाख सैनिकों की गुमनाम पीड़ा को स्वर दिया है जिन्होंने भूख और ठंड का तापमान चुपचाप बर्दाश्त किया --

...और एक पूस की रात
हमेशा के लिए 
जम गया वो 
इस आस पर कि
कल सुबह ओढ़नी मिल जाएगी
साहब ख़ुद
झोपड़ी में आकर 
वादा कर गए हैं....

पहाड़ में विकास का जो मॉडल अपनाया गया है उस पर राज्य का बुद्धिजीवी वर्ग( thinking class) विभाजित राय रखता है। कवि के लिए टूटती, दरकती चट्टानों को नज़रंदाज़ करना बेहद मुश्किल है। कवि पहाड़ में रहता है केवल सेल्फी लेने के लिए नहीं आता। पहाड़ के सीने में होने वाले हर विस्फोट को पहाड़ी अपने भीतर महसूस करते हैं --
रहने वाला कैसे लिखेगा 
उसका हर शब्द दब रहा कंक्रीट के नीचे
डूब रहा तालाबों में 
कट रहा बुलडोजरों से...
हर शब्द पहाड़ जैसा
खड़ा हो जाता है 
पहाड़ बन कलम की नोक पर...(89) 

फ़ौज की ज़िंदगी बहुत कठिन होती है लेकिन फ़ौलादी हौसले और देशवासियों के लिए प्रेम इस कठोरता से ज़रा भी कम नहीं होता। जब नादानी ,मूर्खता या आज़ादी की फंतासियों के सम्मोहन में अपने ही देश का नौजवान फ़ौज पर पत्थर फेंकता है तो भी फ़ौजी विचलित नहीं होता। इस कविता को पढ़िए और याद कीजिये कश्मीर को...याद कीजिये अगस्त 2014 की भीषण बाढ़ को जिसमें सेना ने घर घर जाकर अपने ऊपर पत्थर बरसाने वालों को बचाया --

नहीं डरेंगे पत्थरों से
नहीं डिगा सकतीं गोलियाँ...
लाख ख़िलाफ़त करो बेशक...
तुम्हे बचाना मजबूरी नहीं
फ़र्ज़ है हमारा
चाहे दहशतगर्दी हो या पानी....

गढ़वाल( और कुमाऊँ) वीरों की भूमि रही है।  गढ़वाल के वीरों प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर आज तक देश-दुनिया में वीरता को नए ढंग से परिभाषित किया है । महावीर गबर सिंह, दरवान सिंह( दोनों विक्टोरिया क्रॉस विजेता) चन्द्र सिंह गढ़वाली, और वीरता के किवदंती पुरुष बन गए बाबा जसवंत सिंह जैसे नायकों को समर्पित है --'गढ़वाली जवान हूँ " कविता....अपनी माँ को लिखे इस संदेश  में एक सैनिक का संकल्प देखिये --

क़सम जो खाई थी गीता पर हाथ रखकर
उस क़सम को हर हाल में निभाता जाऊँगा
तिरंगा लहरारूँगा या लिपटकर तिरंगे में आऊँगा !( माँ को संदेश पृष्ठ 45) 

'ढोल दमाऊ अब कहाँ होंगे' -- कविता को देवेश जोशी जी सरहद पर तैनात सैनिक का भुतानुराग (nostalgia) मानते हैं लेकिन मुझे लगता है यह कविता विलुप्त लोक संस्कृति को लेकर कवि की पीड़ा है। 

इस संग्रह को उपयोगी सुझावों और वांछित सराहना से अपना आशीर्वाद दिया है साहित्य और समालोचना के कुछ बेहद प्रतिष्ठित नामों ने , जिनमें शामिल हैं श्री देवेश जोशी, डॉ. नंद किशोर हटवाल और श्री शूरवीर रावत। मेरे लिए यह चकित करने वाला है कि भाई  शूरवीर रावत ने जीवन और उम्मीद से भरी  इन कविताओं (केवल अनहद शब्द के कारण !) में पलायनवाद देखा !!

इस काव्य संग्रह में जग़ह-जग़ह पर प्रिंटिंग की भी कई अशुद्धियाँ हुईं हैं। कम से कम 'समय साक्ष्य' जैसे लोकप्रिय प्रकाशन समूह से इसकी उम्मीद नहीं थी ! 
हथियाने( पृष्ठ 61) ,प्रदूषण (पृष्ठ 69) , कृष( पृष्ठ 99), ख़ुशनसीब ( पृष्ठ 104), अपार ( पृष्ठ 111) ,पीढ़ी वंशावलियों ( पृष्ठ 136) , तूफ़ानों ( 136) जैसे शब्दों को अशुद्ध लिखा गया है।  इसके अतिरिक्त बूँद, चाँद, बेड़ियाँ जैसे शब्द( अनुनासिक, अनुस्वार का अंतर) भी सुधार की माँग करते हैं। "ऑफिस के कूल्हे पर "(101) जैसी पंक्तियाँ बताती हैं कि भाव और भाषा , शिल्प और बिम्ब के क्षेत्र में कवि को अभी बहुत ध्यान देना है।

अडिग जी, कविता को बहुत लंबा न खींचें। यकीन मानिए, आपकी छोटी कविताएं बहुत बड़ी हैं !( फ़र्ज़, उम्र के दीये, आड़, और एक फूस की रात... जीवन रेस नहीं आदि) । कविता वही जो थोड़े से सब कुछ कह दे...सोये समाज को आलोड़ित-आंदोलित करने के लिए एक पृष्ठ की कविता बहुत है। जिन्हें नहीं जागना है उन्हें चंद्रवरदाई भी जगा नहीं पाएंगे ।
 भविष्य के लिए मेरी शुभकामनायें

@ डॉ चरण सिंह केदाखंडी 



शनिवार, 9 अप्रैल 2022

माँ दुर्गा अराधना


 

माँ आदिशक्ति भगवती,
बुद्धी शक्ति ज्ञान दे।।
समभाव समरस भावना का,
मानवता वितान दे।।


हर पुत्र यत्नशील हो,
जन-जन में तेरी भक्ति हो।
नित निलय अर्चना हो तेरी,
मनु दीन दुःख से मुक्त हो।।
 
अपनत्व हर दिल में धड़के,
बंधुत्वा वरदान दे।
लड़ सकूं अर्धम रण मैं,
ऐसा नैतिक भान दे।।
 
माँ आदिशक्ति भगवती.........
 
देवमाता भवमोचनी,
कण-कण में तेरा वास है।
भवप्रीता, भवानी, दुर्गा
सारा भुवन तेरा दास है।।
 
वत्स वत्सला चित्तरूपा,
चित चैतन्य नव निर्माण दे।
पा सकूं चितवृति निरोध,
सत्यपथ संज्ञान दे।।
 
माँ आदिशक्ति भगवती.........
 
नारायणी मोक्षदायनी तू,
भक्त वत्सल ममतामयी।
दुष्ट दानव घातिनी तू,
शस्त्र शास्त्र धारणी।।
 
अधिष्ठात्री जगत जननी,
सर्वमंगल मांगल गान दे।
सुख शांति हो वतन हमारा ,
शुभ सुमंगल वितान दे।
 
माँ आदिशक्ति भगवती.........
 
सस्वती, सुरसुन्दरी माँ,
माहेश्वरी कृपाश्वरी।
लक्ष्मी, सती, सावित्री,
विश्वेश्वरी भुवनेश्वरी।
 
अपर्णा, अनेकवर्णा,
सत्कर्म बुद्धी विधान दे।
कल्याण हो भक्तों का तेरे ,
ऐसा अभय वरदान दे।।


माँ आदिशक्ति भगवती,
बुद्धी शक्ति ज्ञान दे।।
समभाव समरस भावना का,
मानवता वितान दे।।


@ बलबीर राणा अडिग

सोमवार, 4 अप्रैल 2022

विस्थापित बाप की सिहरन

 


1.
थी बल*, वह सुन्दर व महान भूमि
हैलो  ईश्वर कहाँ है वह ?
कहाँ है उसकी सुन्दरता, महानता ?

मेरी माँ कहती थी,
बल,
मेरे बाप दादाओं ने
अपने स्वेद से सींचकर
स्वर्ग बनाया था उसे ।
 
वह धरा 
जीवन के लिए अमृत थी
ऐसा इतिहास में मैने भी पढ़ा था।

पुरखों के स्वेद से पल्लवित
धरती धधकी थी, बल,
मेरे पैदा होने के 
सालभर बाद ।
 
टिड्डियों का झुण्ड आया था, बल
शोर मचाते झैं झैं करते
सबको चट कर गए थे रातोंरात,
मेरे बाप को भी बिस्तर से उठा ले गई थी, बल,
वे टिड्डियां।
हमारी बारी आने वाली थी कि
माँ मुझे छाती और 
बहन को पीठ चिपका भाग निकली थी
चुपचाप अंधेरे में जवाहर टनल से नीचे।
 
2.
जिस भूमि को लोग स्वर्ग कहा करते हैं
वह आग के बीच भागते जीवों वाला जंगल है
अब भी मुझे।
 
बीत चुका है युग कलित भूमि का
वहाँ आदमी हैं पर आक्रांत
भावनाएं है पर आक्रोश
आदमखोरों का आसरा 
आज भी जस का तस ।

3.
ऊँचे हिम शिखरों से रिस रही होगी
चिनाव, झेलम,
तर रही होगी धान की खेती
सेब, बदाम के बगीचों कों,
डेढ सौ साल पहले
बुढ्ढे दादा का रोपा चिनार
जवान ही होगा
डल झील में किश्ती वैसे ही
आहिस्ता सरक रही होगी,
लेकिन मेरे लिए क्या ?
 
4.
आज भी
पीर पंजाल, समसाबाड़ी, हिमालय
पर्वत मालाओं के बीच के
उस कटोरे में जीवन त्रासद है
डरता हूँ वहां जाने से
क्योंकि मेरे पूर्वजों के खंडरों में
खडग लिए अब भी छुपा है निशाचर
तिलक धारियों की टोह में।
 
5.
आँख खोलते ही चीख निकलती है
उस भयंकर आकृति को देख
जिसके हाथ में ऐके सैंतालीस है
वह आँखों से खून टपकाता दौड़ रहा है
शान्ति को मारने।
 
कैसे लौटूं वहाँ,
अब भी मुझे अजान की जगह
भाग जाओं सुनायी दे रहा है,
बताओं कौन दे रहा है गांरटी
कि मेरी माँ के जैसे मेरी पत्नी को
ना भागना पड़े अंधेरी रात में  
नादान चूजों को छाती चिपकाये,
और
मेरी तरह 
जीवन से बिदक ना जाए 
ये मासूम भी
ताउम्र के लिए
मेरी उस छिन्न-भिन्न खोपड़ी देख
जिस पर चेहरे की निशानियां
नदारद हों ।
 
* बल
गढ़वाली में बल शब्द का प्रयोग
- अन्यपुरुष कथन का भाव प्रकट करने में
- अपनी बात को जोर देने में
- प्रत्यक्ष ना देखने का भाव प्रकटीकरण में
- कथन की विश्वसनीयता पर संदेह   
- कथा, कहानी व घटना सुनाने में  
 
@ बलबीर राणा ‘अडिग’

मंगलवार, 29 मार्च 2022

प्रकृति वैभव

 


 


नीला अम्बर आँचल ओढ़े
प्रकृति का यह मंजुल रूप
रात्रि चंदा शीतल छाया
दिवा दिवाकर गुनगुनी धूप।
 
जड़, जंगल  पादपों  का  वैभव
जीवनदायनी सदानिरायें निर्मल
तन हरीतिमा  चिंकुर  प्राणवायु
पय पल्लवित जीव अति दुर्लभ।
 
आँगन सतरंगी कुसुम वाटिकायें
गोद  पशु  विहगों   का  विहार
लहलहाती अनाज की  बालियां
क्षुधा    मिटाता   समग्र   संसार।
 
तेरे इस अनुपम वैभव में भी
दुःखी हो अगर कोई इन्शान
कर्महीन मतिहीन  ही  होगा
जो न समझा   तेरा  विधान ।
 

 @ बलबीर राणा अड़िग

 

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

नारी



हर नजर और नजरिये का

अपने खातिर किरदार 

अपनी परिभाषा है वह।


माँ, बहन, बहू, बेटी

हमसफर/दोस्त/साथी

सहचरी/सहभागनी

अर्धांगनी/बामांगनी

प्रिया/त्रिया वगैरा वगैरा।


लेकिन मैं देखता हूँ 

इन किरदारों के मंचन में 

जो विभन्न भाव भंगिमाएं, 

कला मुद्राओं व वेशभूषा से 

सज्जित जो मूर्ति बनी है 

वह धरती जैसी है

जगत ढोने वाली धरती। 


वह अचल/अडिग है 

जिसमें धीर-थीर धैर्य है

जिससे जीवन उर्जित है

जिसमें संजीदगी है समांजस्य है

वेदना समन की शक्ति है।


इस परिपूर्ण सजल मूर्ति में

प्रेम, ममता, माया-मोह है

चपल मेधा मति है

चंचल किसलय इतनी कि

तनिक दुःख पर

विह्वलता, करुणा और

दया-धर्म पसीजता है।


उसमें नूर है आकर्षण है

निश्च्छलता है निर्मलता है

सौम्यता है सम्मोहन है

और वह विदुषी वाकपटुता है।


दानव समन को

रणचण्डी काली ज्वाला है

तेज तलवार कटार धारी

तीलू रौतेली, अहिल्याबाई 

रानी लक्षमीबाई है । 


वह अबला नहीं सबला है 

जल-थल, नभ पूरे ब्रह्माण्ड को

विजित करने का सामर्थ्य है

अनन्य शास्त्र व शस्त्रधारी 

शक्ति स्वामिनी है।


वह कोयल कोकिला है

वीणा वादिनी संगीत साम्राज्ञी है

कलित कलाओं में 

निपुण योगनी है।


साहित्य संस्कृति की सूक्ति है

लयात्मक छन्दबंध है

वन्धन मुक्त मुक्तक भी है

और सबसे बढ़कर

संतति का सम्पूर्ण जीवन ग्रंथ है।


वह ज्ञान ज्योति है

तिमिर में प्रकाश पुंज है

जीवन के हर कार्य में

प्रखर प्रवीण, दक्ष है ।


त्याग, अर्पण समर्पण व

सर्व गुण समपन्न

सुंदर जो ये कुट्यारी है

वह नारी है, वह नारी है।


कुट्यारी - गठरी

@ बलबीर राणा 'अडिग '

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

गजल



जब भी मिलन हो मुखड़ी अनजान न लगे,

यादों के मेले में छुवीं विरान न लगे। 


जोड़ें दिल के तार, चंद लगे लम्हों में, 

धरती की अगली मुलाकात, आसमान न लगे। 


फ़िराक़ में रखें अपनापन रिश्ते ढूंढने को, 

मिले तो धुक-धुकी लगें बेजान न लगे। 


पगडंडियां, हाईवे, मोड़-सोड़ सब हैं सफर में,

अबेर-सबेर चलेगा, पर रफ्तार को विराम न लगे।  


उकाळ, उंदार वाले होते हैं प्रेम पथ अकसर, 

चलते रहना, कठिन लगे पर हारमान न लगे। 


पहेलियाँ बहुत हैं संसारिकता की पोथियों में,

सुलझा लो तो ज्ञान लगे अभिमान न लगे। 


बरकतों के बाग हरियाली हो झकमकार जब, 

तब जरूरत मंदों को वो रेगिस्तान न लगे। 


जज्बातों को संभाल कर रखना अडिग,

जब निकले बात लगे, बद जुमान न लगे।


*गढ़वाली शब्दों का अर्थ :-*

मुखड़ी – चेहरा। छुवीं – बातचीत। धुक-धुकी – धड़कती। अबेर-सबेर- लेट-पेट। उकाळ उंदार -चढ़ाई उतराई। झकमकार-लबालब। जुमान – जुबाँ। 


@ बलबीर राणा ‘अडिग’

सोमवार, 31 जनवरी 2022

स्वर्गजित



सरहद, सागर हर हद पर निगेहबान हैं,

चौकस हैं अरि अक्षि पर संधान हैं।

अडिग हैं आखरी लहू बूंद तक, न रंज ना राड़, 

स्वर्गजित सुत, भारतमाता के जवान हैं। 


बुधवार, 26 जनवरी 2022

गणतंत्र दिवस




अरुणोदय हुआ चला,

प्राची उदयमान हुई।

माँ भारती के स्वागत को,

राष्ट्र उमंगें वेगवान हुई।।


माघ की मंगल बेला पर,

तिरंगा शान से फहरायें।

गणतंत्र के महापर्व पर

प्रीत से जनगण मन गाएं ।।


महापुरूषों के स्वेद से,

मकरन्द यह निकला है।

योद्धाओं के सोणित से, 

हमें लोकतंत्र मिला है।।


चित से उन महामानवों के,

बलिदान का गुणगान करें।

लोकतंत्र के महाग्रंथ का,

अन्तःकरण से सम्मान करें।।


पल्लवन इस वट बृक्ष का,

बुद्धि शक्ति तरकीब से हुआ।

तब इस सघन छाया में बैठना, 

हम सबको नशीब हुआ।


ज्ञान, भुजबल परिश्रम से,

शेष दोष-दीनता दूर करें।

रिक्त है अभी भी जो कोष 

चलो मिलकर भरपूर करें।


काम स्व हित संधान तक

यह लोकतंत्र का मान नहीं।

राष्ट्रहित निज कर्तव्यों को

आराम नहीं  विश्राम नहीं।


जग में माँ भारती की,

ऐसी ही ऊँची शान रहे।

अधरों पर तेरे भरत सुत,

जय भारत का गान रहे। 


@ बलबीर राणा 'अडिग'