नीला अम्बर आँचल ओढ़े
प्रकृति का यह मंजुल रूप
रात्रि चंदा शीतल छाया
दिवा दिवाकर गुनगुनी धूप।
जड़, जंगल पादपों का वैभव
जीवनदायनी सदानिरायें निर्मल
तन हरीतिमा चिंकुर प्राणवायु
पय पल्लवित जीव अति दुर्लभ।
आँगन सतरंगी कुसुम वाटिकायें
गोद पशु विहगों का विहार
लहलहाती अनाज की बालियां
क्षुधा मिटाता समग्र संसार।
तेरे इस अनुपम वैभव में भी
दुःखी हो अगर कोई इन्शान
कर्महीन मतिहीन ही होगा
जो न समझा तेरा विधान ।
@ बलबीर राणा ‘अड़िग’
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