1.
दो दिन पहले हुई भारी बारिश के
बाद मौसम साफ हुआ था। धरती धुली हुई मूंग जैसी साफ। मैले घाघरे को छपोड़ छपाड़ के मैल
निकाला गया हो जैसे । एकदम चकाचक। बारिश से पहले जंगलों में लगी आग के धुँवां धुँयेर
से पहाड़ की जो चोटियों और घाटियों मंद मलिन सी दिख रही थी वे सब निर्मूल साफ नजर आ
रही थी। दूर नन्दादेवी पर्वत की स्वेत गिरी श्रृंखलाऐं हल्की स्वर्ण आभा लिए अभी
भी दमक रही थी, घाम अवसान के बाद हिमालय की उपत्काऐं सुस्ताने
लगी थी। जेठ की तड़क दोपहरी के बाद गाँव के उत्तर में स्थित बंज्याण से चलती सांयकालीन
ठंडी गावा का नर्म स्पर्श गालों को सहला रही थी। मधुमास के बाद तरु लताओं का हरापन
और गाढ़ा गहरा हो चला था। पार पोखरी कार्तिकस्वामी के उपर नीले आसमान में असंख्य नन्हें
बादलों के टुकड़े खो खो जैसे खेल रहे थे। घाम पार कंडारा के डाने*
से चार हाथ ही ऊपर रह गया था।
गाँव में घाम बूड़ गया था लेकिन
बिमला बौडी* की धार* की कूड़ी (मकान) में अभी भी उसकी
शीतल पीली किरणों का लालित्य मैजूद था। द्यो (मौसम) देव दो दिन पहले धरती को पीटने के बाद लाड़ लावण्य से रिझाने की भरसक कोशिश
कर रहा था पर धरती दो दिन पहले की मार से अभी भी सिसक रही थी आँशू बहा रही थी । बिमला
बौडी अपने चौक की दानेण* में बैठी टकटकी लगाए नीचे अलकनन्दा के प्रवाह को देख रही थी कि आज गंगाजी मटमैली
से दूधिया हो चली है और साथ में देख रही थी दो दिन पहले बादल फटने से कुंजणी बाजार
की छत विक्षत हालात। सैलाब बाजार के बीचों बीच खडग लिए बहा था, दायें बायें सब काट के चला था। कुछ मकानों को पूर्ण तो कुछ को आंशिक क्षति
पहुँची थी । दुकानों का सामान बह गया था या खराब हो गया था। लोग बाग फिर बचे खुचे अवशेषों
को समेटने में लगे थे। ऐरां* प्रभो ! कन विणास करि त्वेन।
बारिश के साथ क्रिकेट की
बॉल बराबर ओले भी गिरे थे। ओलों ने डाळी बोटियों को ग्वाळा पूजा का जैसा अंयार कूटा
था। खुबानी, पोलम और हैंसर कुछ पके कुछ अधपके झड़ गये थे,
आड़ू अँखरोट के कोमल कुटमणों ने तो कहाँ बचना था। बगीचों में मिर्च,
टमाटर, बैंगन, ककड़ी,
कद्दू आदि के मासूम पौधों की कमर टूट गयी थी। इक्का दुक्का खेतों में
जिनकी गेहूँ की कटाई बच गई थी उन खेतों की अठवाड़* कर गया था वो। बालियां रहित गेंहूँ
की पराळी के ठूँट ओलों की निर्ममता की गवाही दे रहे थे। कन निरासपंथ कर गयी रे बर्खा
तू ।
पिच्चतर साल की बिमला बौडी
इस कलो काल को करीबी से देख भयभीत और आशंकित है। मन ही मन सोच रही है कि पूरी उम्र
इस पहाड़ की थाती में बिता दी पर मौसम का यह रौद्रपन अब कुछ ही सालों से देखने में आ
रहा है। क्या हुआ होगा नीली छतरी वाला ही जाने।
देश में मानसून दस्तक चाहे
दक्षिण से दे या और कहीं से लेकिन लात ठीक उत्तराखण्ड के दरवाजे पर आकर मारता है। बाप
रे बाप बर्खा है या यमदूत। तपन कम करने के बजाय जीवन को आजीवन ताप में छोड़ देता है।
ह्यून्द हिंवाळ माघ महिने में तपोबन रैणी को तहस नहस कर देता है व बैसाख से ही ये बादल
बाघ जैसे झपटता है। आये दिन बादल फटने से पहाड़ों में कोहराम मचा हुआ है। अरे पहले भी
तो बादल गरजते थे बर्खा होती थी पर ऐसे नहीं। अब बारिश नाम से डर लगने लगा हैं। बादल
भय का दूसरा नाम हो गया। बादलों की गिड़गिड़ाहट डुकर्ताळ किसी परमाणु बम के धमाके से
कम नहीं लगता। बादल फटना बारिश का चरित्र बन गया। क्यों कैसे का जबाब पहाड़ को अंध विकास में
झोंकने वाले बतायें या ज्योलॉजी के वैज्ञानिक। जीवन अब प्रकृति नहीं आधुनिकता के हाथों
खेल रही है। जिन्दा रहने के लिए बिना वर्षा के चंबल का बीहड़ होना मंजूर है लेकिन भरे
पूरे या आधे अधुरे सपनों का यूँ उजड़ना कहीं भी जाने और कैसे भी जीने के लिए वाध्य कर रहा है। इन रौंतले
पहाड़ों से बिमुखता का एक कारण आकरण प्रकृति की यह मार भी है। लोग खुली हवा के ढैपुर्या
मकानों को छोड़ शहरों के धूल धूसर के
बीच बन्द आशियानों में अमन देख रहे हैं। मेरे मनीष ने ठीक ही
किया जो हमेशा के लिए निरपट हो गया यहाँ से।
बादल क्या पता कब किसके
धुर्रपळे* में फट जाय जैसे फिलिस्तीनियों के घरों
के उपर इजराईल की मिसाइलें। पता नहीं वो इन्द्रदेव क्यों गढ़वाल से चिढ़ा हुआ है। कालीदास
की इस धरती पर अब मेघ देवदूत नहीं दैंत्य बनकर आ रहे हैं। दो दिन पहले के इस निर्भागी औडळे* ने बिजली के तारों का भी वारा न्यारा किया था। शुक्र है कि गाँव के लड़कों ने
लाईन मैन के साथ मदद कर लाईन ठीक कर दी। करते भी क्यों नहीं ! मुबाईल जो बंद पड़े हैं छोरों के।
गोधुली होने को है। बिमला बौडी ने जैसे ही गांव
से किसी लड़के की आवाज सुनी कि ऐऽ ....होऽऽ....होऽऽ...। लाईट आ गई, लाईट आ गई
। वैसे ही बौडी सर्पट डंडयाळी* में गई टीवी खोला।
टीवी का एक ही चैनल चलता है दूरर्दशन। शाम पांच बजे के समाचार चल रहे थे।
टीवी बोल रहा था, सुकून देने वाली बात ये है कि जून के
पहले हफ्ते के बाद देश में करोना की दूसरी लहर का असर कम होने लगा है। हालात धीरे धीरे
सुधर रहे हैं और आज तीसरे दिन भी एक लाख से कम संक्रमण के मामले आये हैं, वहीं मृत्युदर
भी कम हुई है। लेकिन चिन्ता की बात ये है कि ब्लैक फंगस का आंकड़ा चैंकाऽ
....? और तभी फिर बिजली चली
गई, टीवी बन्द। बिमला बौड़ी ने रिमोट टीवी के टेबल पर रखा और बैठ
गई वहीं चारपाई के बगल में रखी कुर्सी पर। अकेली मनख्याण । अकेली डंड्याळी। अपने होते
हुए भी विरान जीवन। विरानी भी वो जिसका गुलजार होने की न उम्मीद न आशा। बिवांळ*
लगाने के लिए बौडी ने एक गाय पाल रखी है। दो दो छोटे खेत दोनों सार में खैनी*
कर रखी है। दिन खेत गोठ-गुठ्यार और लोगों के साथ दुःख सुख लगाने
में कट जाती है और शाम सुबह यह टीवी मन को बुथ्या (बहला)
देता है। बामणों का लड़का बच्चू (बच्चीराम)। वेचारा वही है सहारा। ऐन मौके का सहयोगी। जंगार की जांठी*। पता नहीं इतने पढ़ने लिखने के बाद भी क्यों उसने हल की मूठ पकड़ी। उन चार पुंगड़ों
को वही जोतता है। बैंक से पेन्शन लाने में साथ होता है। जरुरी सामान ला कर रख जाता
है। मौ-मदद करना। ज्वर-मुंडारे पर बच्चों के हाथ खाना
भिजवाता और दवा दारू सब काम बिना स्वार्थ के। मेरा बटुआ जैसे उसका जिठाणा हो। क्या
मजाल कि कभी मेरे एक भी रुपये पर उसकी बुरी नजर गई हो। सच में देव अवतार भी यहीं और
राक्षस भी। मानमनोवल के बाद कभी मैं कुछ देती भी हूँ तो खुद नहीं बच्चों के हाथों सीता
(स्वीकारता) है। ऐरां बच्चू की ब्वारी*
भी ऐसे ही। भगवान ने राधा कृष्ण की जोड़ी मिलाई है। ब्वारी मीना और नोन्याळ*
भी भले मिलनसार हैं। ब्वारी खेत पुंगड़ों से गोठ गुठ्यार तक मदद कर देती है और बच्चे
आते जाते नाती नतेणियों की कमी दूर कर देते हैं। दिल तो करता है कि अपनी सारी जायदाद
बच्चू के नाम कर दूँ पर क्या करुँ मेरा भी तो है एक बीज। नाक के लिए नाक जो रखनी है।
2.
जैसे जैसे जीवन के दिन बितते जा रहें हैं बौडी को जिन्दगी उतनी
भारी लगने लगी है कभी कभी तो मन करता है कि ये धागा टक टूट जाए तो मुक्ति मिले। पता
नहीं इन आँखों ने कब तक और कितना तरास देखना है। वही चौक है जिसमें कभी सासू ने डोली
से हाथ खींचकर उतारा था और सिर में कलस रखकर ज्यूंद्याद* एवं रेजगारी अरोख
परोख चारों दिशाओं में फेंके थे कि मेरी ब्वारी का अरिस्ट कटे। वही डंड्याळी है जहाँ
रखे अनाज के कुठार* पर सासू ने हल्दी के पीले हाथों को छुवाया था। वही उबरा*
है जिसके अन्दर द्वार बाटे* की रात जेठानी ने धक धिका (धक्का दे) के दरवाजे की सांकल चड़ा दी थी। और मनीष का
बाप डिबरी की मंद लौ में इन्तजार कर रहा था अन्दर। यह वही उबरा है जहाँ मनीष को सनाया
तपाया था। सास-ससुर, जेठानी-देवरानी, नणद और बच्चों की घिमसाण* से भरी
ये तिबारी आज कितनी काट खाने को आती है।
बिमला बौडी निचे उबरे में
आई। चूल्हे के उपर सुखाने को रखी लकड़ियां नीचे निकाली। बारीक बारीक लकड़ियां तौंड़ी और
चुल्हे में मिसायी। चुल्हे के उपर बने तार की जाली से छिल्ले* का टुकड़ा
निकाला दरांती से दो फाड़ किया। वहीं चुल्हे के बगल में रखे बक्से के उपर से माचिस निकाली
तिल्ली जलाई, झरर्र.....।
छिल्ले के दोनो टुकड़ो को इकठ्ठा करके तीली लगाई। छिल्कु बड्या अग्येला*
था तुरन्त आग पकड़ गया। चुल्हे में मिसायी लकड़ियों के बीच धप्प-धप्प जलते छिल्ले को रखा। उपर से दो तीन और साबुत लकड़ियां रखी। बांज की चड़क
सूखी लकड़ियों ने जल्दी आग पकड़ी और चुल्हा जल गया। बंठे से चाय के लिए केतली में पानी
उड़ेला। अरे मास्तो ! जादा हो गया, कौन पियेगा
इतनी चाय ? दुबारा केतली
का पानी बंठे में वापस डालना मुनासिब नहीं समझा। कुबड़ी कमर ले बाहर पानी गिराने निकली
कि तभी निचे रस्ते से बच्चू जाता दिखा।
ऐ
बच्चू क्या है रे ? आज
सुरुक सुरुक* जा रहा है। ल्ये एक घूंट चा पी ले।
बच्चीराम
बौड़ी की आवाज सुनकर चौंका ! ना बौडी अभी ना। गाय बैल जंगल से आने वाले हैं
उन्हे बांधने जा रहा हूँ। आज के ग्वेर* बच्चे ही थे। बच्चों से बड़े बैल
नहीं बांधे जाते हैं। तुझे पता ही है कि वो धौळया बैल बच्चों को झिसकाता भी है।
चुप
रा, जल्दी ओ, आग जल गई है बस मिनट भर लगेगा चाय उबलने में।
वैसे टेम तो हो ही रा गायें आने का। फिर भी आ जायेगी तो मैने तेरी गोठ के बाहर खड़ीक
के फांगे डाल रखे हैं उन्हे खाते रहेंगे तब तक, बौड़ी बोली।
बच्चीराम
दानणी पर थमाळी (बड़ी दरांती) टेकते हुए
उपर चौक में चढ़ गया।
अरे
बौडी गैस में क्यों नहीं बना री चा ? देख कितना धुआँ हो रखा है भीतर,
दो चार दिन और बची रहेंगी तेरी आँखें।
अरे
बाबा गैस फैस जलाने से डर लगता है रे मुझे, हमें तो इन्हीं बांज की लकड़ियों और छिल्लों में सज लगता है। अपणा बसे बात।
वो निर्भागी गैस झप्प आग पकड़ता है और मुझे झस्स होती है। बौडी ने सर्रपट चाय उबाली
दो गिलासों में डालकर बाहर चौक में ले आई।
बच्चू
को चाय देते हुए। बच्चू तू सुद्दी नीचे बैठ गया, फुक आग लगा बाबा इस बुढापे को, फाम (होश) काँ रयी अब।
तुझे एक बिछोना भी नहीं बिछाया मैंने।
बच्चू गिलास में फूँक मारते हुए
बोला, ना बौडी ना, मैं मेहमान हूँ क्या
? दिन में दसों बार तो तेरी द्येली में पहुँच जाता हूँ
मांगने खाने को। हम हल्या कुली कबाड़ियों के लिए ढूंगा माटू का बिछौना ही
ठीक है। बौडी और बच्चु सुड़ सुड़ चाय पीने लग गये।
बौडी
ने बात आगे बढ़ायी। बच्चू अभी मैं समाचार सुन रयी थी कि क्या बोल्ते, करोना की दूसरी लैर बल खत्म होने वाली है सच्ची ? तफुन बजार के क्या हाल हैं ? तू कल
गया था बल बजार ?
हाँ
बौडी समाचार ठीक ही हैं दुकानें बगत-बगत पर खुल रही हैं लोग बाग अपने कामों में जुट
गए हैं। भगवान की कृपा से वो निर्भगी
महामारी हमारे गाँव में नहीं आई अभी तक,
मुझे तो तुम बुढ्ढे मनखियों की चिन्ता हो रखी थी।
अरे
बाबा आ ही जाती तो मुक्ति मिलती। छी ? नि छिन लाटा अब बसेकी,
पर या ! एक बात बता, वो मनीष
इस साल के लॉकडोन में क्यों नयी आया होगा याँ ?
पता
नहीं बौडी वे नौकरी वाले जाने। छोटी नौकरी वाले तो
तमाम आ गए पर तेरा मनीष बड़ा इंजिनियर साब जो ठैरा, कम्पनी उसको
कहाँ छोड़ेगी। बड़े लोगों का काम थोड़े बन्द हुआ। नि रोणा दिन कुल्ली कबाड़ियों कु ऐन।
अरे बाबा ! जब सुनने में आया था
कि गुड़गौं में भी लॉकडोन लग गया तो मैं तो भौत खुस हो गयी थी। आशा लगी थी कि मेरा मनीष
इस साल भी आयेगा नातियों को लेकर। बाबा लाड़ तो काँ करते वे देस्वाळ बच्चे पर सामने
देखने से दिल में छपछपी पड़ जाती है। पिछले साल उन्होने मेरे हाथ का खूब खाया था। बौडी
ने चाय की आखरी घूँट मारने के साथ अपनी बात पूरी की।
अरे
बौडी ठीक है जहाँ भी रहें असल कुशल चाहिए, इस करोना ने लोगों की मवासी की मवासी*
घाम लगा दी है। अब तू ही देख वो पल्या गाँव के जितार सिहं काका दिल्ली वाले, दोनो बूढ़ बुढ़िया चल बसे। और एक जवान
ब्वारी भी बल। सुगर के मरीज थे बल।
हौं ! अरे बाबू कन ? ऐरां ! कैसे भले मिलनसार मनखी थे रेऽऽ दोनो झणे*।
घर आने पर पक्का एक बार मिल के जाते थे। बाबू परलय होने वाला है रे, परलय । कलजुग भौत
बड़ गया। द्यो धरम नाम की चीज नि रयी अब। क्या कन बाबा मुझे अपने नाती ब्वारी की भौत
डर लग रयी है। हमने तो नै पच्छाणा बाबा ये सुगर फुगर। उनी सैरों में बैठे आदमियों को
होता होगा। अरे मैं भी तो तीन साल रयी जलन्दर। दिन भर क्वाटर पर बैठे रहो, झाड़ू-पौंछा,
कपडे, भानी बर्तन, सफाई, सफाई के अलावा कोई काम
ही नै होता है तखुन्द (नीचे)।
हाँ
बौड़ी बिना काम के
मनखी गैल बन जाता है। बच्चीराम ने बीड़ी सुलगाई थमाळी पीठ में खौंची और जाने को खड़ा
हुआ।
बौडी
ने फिर से पूछा।
बच्चू
वो मनीष तुमको बि करता है रे फून फान कब्बी ? मैंने सुना गौं के वर्टसैप गुरुप में है बल वो। आजकल कोई मिसेज बि किया कि
नयी उसने। तू तो होगा ना गुरुप में ?
हाँ
बौडी ग्रुप में तो हूँ पर उससे व्यक्तिगत बात नहीं हुई। परसों ही तो उसने और उसके दोस्तों
ने करोना रिलीफ का खूब समान भिजवाया है यहाँ। तुने सुना नहीं क्या ? लोग तेरे लड़के की खूब तारीफ कर रहे हैं। आक्सीमीटर, थर्मामीटर,
दवाईयां और एक बड़ा कुटयारा (पोटली) मास्क का था। मल्ले ख्वाळे के मनोज प्रधान को पता है उसी ने सबको बाँटा। तुझे
नहीं दिया क्या उसने ?
ना
ब्यटा,
ना। तूने नयी दिया तो हौर कौन देता रे। एक ये ही म्वाळा (मास्क) है तब से, जिसे तू लाया था पोरों साल। बुबा भितरौ चुल्लख्वंजी*
भौरो मातबर
जु ठैरा। अब तू ही बता बाहर वालों की मदद कर रहा है, बात चीत कर रहा है, और अपनी ब्वै को एक फून तक नयीं है।
बाबा “लोगों साटी बुस्येन्द मेरा सदानी चौंळ किले” ? बौडी फक-फक
रोने लग गई।
बच्चीराम ने बौडी को ढाढस बँधाया, शांत किया। चल बौडी तू भी अब अपनी साग
भुज्जी देख मैं चलता हूँ जवान बैलों ने गोठ में उधम मचा दिया होगा। बच्चे घर आ गए होंगे।
इनकी माँ तेरा दूध दे जायेगी बाद में। आजकल हमारी भैंस ने भी दूध कम कर दिया ले
बौडी, वो तो शुक्र है अभी होटल नहीं खुले कल से होटलों का दूध पूरा करना मुश्किल हो
रहा है। अभी भैंस को भरे हुए दो ही महिने हुए पर दूध बिल्कुल कम कर दिया है उसने। मेरे
याँ पैली बार ब्यायेगी, नयीं भैंस की आदत पता नहीं लग रही है। नहीं
तो होटल वालों को मना ही कर देता। और चलते
चलते, बौडी अब अगले महिने
तेरी गाय भी ब्याने वाली है !
बौडी
आँशू पौंछते हुए, हाँ
बाबा।
पर
या
!
तू
उसका खरीदार कर ले कहीं से, अब मेरे बस की नहीं है उसे पालना। तू दे ही रहा है एक पोळी दूध। उतना
भौत है इस बुढ़िया के
चा (चाय) रंगाने के लिए।
बच्चू देखता हूँ बौडी । और चला गया।
बिमला
बौडी ने चाय का गिलास वहीं छज्जे के नीचे दानणी पर रखा। पीठ मकान की दिवाल के साथ सटायी और
कहीं खो गई। जब से होस संभाला तब से अब तक की एक-एक वक्त की तस्वीर आँखों के सामने
से गुजरने लगी। “कभी शूलों और कभी फूलों भरा जीवन”। जीवन में फूल तो नाम मात्र जिजीविषा
लुभाने को आए लेकिन शूलों ने ही छेद-छेद कर अब इस देह को जर्जर बना दिया है ।
3.
आज उम्र तीन बीसी और पन्द्रह
(पिच्चतर) पार
हो गई है। इतने सालों में क्या नहीं देखा और भुगता। विधाता भाग्य लिखते समय किसी के
भाग में सुख लिखना ही भूल जाती है सायद। किसी का जीवन अशान्ति के बबंडरों मे हिचकोले
खाता रहता है लेकिन किनारा नहीं मिलता। जिन्दगी गदेरों के गंगलौडों जैसे ठोकर खाते
खाते आगे लुड़कती वो रेत बन
जाती है जो कभी मुठ्ठी में नहीं समाती।
जब
पाँच साल की थी तो ब्वै (माँ) घास काटती पहाड़ी से गिरी और हमेशा के लिए आँछरी (परी) बन गई थी। उसके खुदेड़ (विरह)
गीत हिलांस* की भौण बन गई, चट्टान से
ठीक एक किलामीटर नीचे गदेरे में टूटीफूटी लांस मिली थी लोगों को। जब शाम को मैंने दादी
से पूछा था कि दादी मेरी ब्वै क्यों नहीं आई अभी तक, तो दादी ने बिलखते हुए छाती पर
चिपटाकर कहा था बाबा तेरी ब्वै आंछरी बन गई। मैं नादान क्या समझती। समय के साथ बाल
मन सुलभ खाने और खेलने में भूल गई कि ब्वै भी होती है। मासिक श्राद्ध के दिन भात खाते
वक्त दौड़-दौड़ कर लोगों को पानी पिला रही थी और लोग मुझे देख साबासी
देने के वजाय आँशू पौंछ रहे थे। तब कहीं उसके बाद पता चला कि अब ब्वै कभी नहीं आयेगी।
वह आँछरी मुझ पर ही लगी रही हमेशा। ऐरां ! बिमला तेरी किस्मत
?
माँ की वर्षी के तुरन्त बाद बाप
मौंस्याण* ले आया था। बचपन मौंस्याण की मार व गाली खाते जंगल खेती और गाय गोबर के साथ
कटा। बल, “किसी को मौत मिले पर मौंस्याण नहीं”। उबड़ खाबड़ रस्तों पर ठोकर खाती पन्द्रह
साल में ही चिचंडे की जैसी बेल हो गई थी। स्कूल का बस्ता और कुर्ता सलवार सपनो में
ही पहना करती थी। सत्रह साल में बाप गंगा नहा गया। मौंस्याण ने थूक के आँशुओं के साथ
डोली के उपर जुंद्याल* अरोखकर (फिरा के) विदाई दी थी।
ससुराल पहुँची, दादी की बात गाँठ बाँध बहू धर्म की पूजा में तल्लीन हो गई। भाग में सूर्योदय हुआ और शादी
के एक साल बाद ही पति दिवान सिंह फौज में भर्ती हो गया। माँ टोक्वा (टोकने वाली) अपसगुनी कलंक के बोझ से कुछ हल्की हुई। लोगों
की जुबानी, कि गुसाईं परिवार को ब्वारी भग्यान (भाग्य वाली)
मिली है। एक साल बाद ही लड़का राज नौकरी पा गया। विचारा दिवान सिंह जान
से भी ज्यादा प्यार करने वाला मैंस।
जिन्दगी की गाड़ी जवानी के सुहावने
सफर की ओर आहिस्ता गंतव्य की और बढ़ने लगी। मेरा फौजी फौज में, और मैं सास, ससुर, जेठानी, देवरानी,
नणद के भरे पूरे परिवार में खेती-पाती,
बण-बूट काम-धाणी की मौज में।
प्रातः बेला में द्वार पर कवे के काँ काँ के रैबार (संदेश)
को रोटी देकर धन्यवाद करती कि आज मेरा फौजी आने वाला है। अँखरोट की डाल
पर मुँह मिला बैठे घुघतों की प्रेमी जोड़ी को घुर घुर करते ईर्ष्या करती कि तुम
क्या दिखा रहे हो मुझे, जब मेरा फौजी आएगा तुमसे और अच्छे सुरीले प्रेम
गीत गाऐंगे हम। जंगल में हिंलास के साथ खुदेड़ गीत गाते हुए सुर मिलाती कि बोर्डर पर
मेरे फौजी को कुशल रखना देवी भगवती।
छौंक लायी
जख्या सुवा,
छौंक लायी जख्या,
ते बोडऽर मेरा
स्वामी कुशल रख्या।
कुछ साल उपरान्त भाग्य में फिर
धूप छुपने जैसा लगने लगा। शादी के दो, तीन, चार नहीं पाँच साल तक मेरी कोख में चूहा तक नहीं जन्मा। चोरी छिपे दगड़यों
(सहेलियों) से रूआँसी चिठठी में लिखवाती कि आपके
जाने के बाद फलाने दिन फिर पानी से अलग हो गई थी। घर और बाहर लोग दबी जुबान से जवान
कोख को बंजर बाँझ कहने लगे। भरी छातियाँ बाल के मुँह के लिए तरसने लगी। साथ में ब्याही
सहेलियों के दो दो जुंगड़े (पालने) खिल गए थे। पाँच साल में ही सासू ने अपने लड़के को साफ
कह दिया था कि बेटा ये अभागी है पहले माँ को खा गई अब मेरे बंश को खायेगी। तू अब इसके
चक्कर में बिल्कुल मत पड़ फौरन दूसरी शादी कर ले।
लेकिन दिवान सिंह गुसांईं पति
नहीं परमेस्वर परमात्मा था। क्वांसा कोमल हृदय। संवेदनशील मनखी। कम बोलने वाला। बोलता
था बिमला तू चिन्ता ना कर भगवान तेरी कोख को जरूर हरा करेगा। मेरी बिमला बाँझ नहीं
है, मैं तुझे बाँझ नहीं होने दूंगा और चप्प चिपका देता था मुझे अपने बालों से भरी छाती
पर। उनके बड़े और भरे गल मुछों से मेरा मुँह ढक जाता था, मैं उनके सीने से विदक कर कहती
थी, छी ! तुम बि त।
उन्होने आशा नहीं छोड़ी ना ही मुझे
निराश होने दिया। अपना और मेरा इलाज तमाम जगह कराते रहे। जोगी-जगम, झाड-फूंक, छाया-मशाण जिसने जो बोला कारण करते रहे। यहाँ तक कि पीर
फकीर। क्या करते। दुःखी का बल वैद्य प्यारा। डॉक्टरों ने बताया कि किसी पर कोई कमी
नहीं है जितना हो सके साथ में रहो। जब पल्टन पीस में रहती मुझे साथ रखा था। होते करते
ठीक चालीस पार भगवान ने हमारी सुनी और बसंत पंचमी के दूसरे दिन जलन्धर कैन्ट में मनीष
पैदा हुआ। देर आए दुरुस्त आए फिर जिन्दगी में उजाला दिखने लगा। मनीष की किलकारियों
ने जीवन को बासंतीमय बना दिया। पूरी पल्टन में लडडू बाँटे थे उन्होने। अपने जेसीओ मैस
और कम्पनी में पार्टी अलग दी थी। सीओ साब और अन्य ऑफिसर मेम साबों के साथ गिप्ट लेकर
आए थे हमारे क्वाटर पर। सुबेदार साब को बुढापे की औदाल की बधाईयां मिली थी।
वे जुंगड़े के मनीष की कुलबुलाहट
के साथ दिनभर की थकान मिटा ही रहे थे कि समय कहीं और की तैयारी करने लगा। जून में कारगिल
की लड़ाई छिड़ गई पीस वाली फौज कश्मीर बौर्डर पर भेजी गयी। उन्होने सात महिने के मनीष
का जुंगड़ा घर पर रख दिया कि घर में दानी सयाणी माँ और भाभी है बच्चों की परवरिश की
उन्हें समझ है। लड़ाई के समय एक धुक-धुक्की लगी रहती थी कि मैं
हमेशा की अभागी रही पता नहीं क्या होगा। हे भगवान, देवी भगवती
मेरे सुबेदार को कुशल रखना। माँ नन्दा भगवती की कृपा से मेरा सुहाग कुशल घर लौटा था।
मनीष के साथ पूरे परिवार को बक्सा भर लता-कपड़ा और खटाई-मिठाई लाये थे। दो महिने की
छुटटी इसी उबरे में मनीष की ग्वाई लगाने के साथ खेलती कटी थी। छुटटी पूरी हुई और वे
अगली छुट्टी में देवी भागवत करने का वचन दे बोर्डर पर चले गए।
इधर हम भागवत कथा की तैयारी हेतु
बात विचारों में मगशूल थे कि उधर भाग्य को और ही कुछ मंजूर हुआ। जाने के ठीक महिने
बाद पोस्ट ऑफिस में आगे आगे फोन और पीछे पीछे तार आया। सुबेदार दिवान सिंह गुसांईं
ग्राम देवलखेत देश की रक्षा करते ........। ऐ ब्वैईई.......
!! दिन दोपहरी कड़ी धूप धुर्पले पर बजरपात हो गया। सारे सपनों और अपनों
को छोड़ देश के लिए चिन गए सुबेदार दीवान सिंह जी। “अभागी के दूध में कीड़े पड़ जाते हैं
सुना था पर यहाँ तो पड़ते देख रही थी”। माँ टोकु का बेटा बाप टोक्वा बन गया। डेड साल
भी बाप का साया नहीं पाया था लड़के ने। ऐरां ! बिमला तेरु भाग
?
तीन दिन बाद पल्ली गाँव का सुबेदार
भगतराम चार जवानों के साथ उनके पार्थिव शरीर को ताबूत में घर पर लाए थे। लोग जयकारा
लगा रहे थे और मैं पथरायी आँखों से उन्हें घूर रही थी। भगतराम कह रहा था कि उग्रवादियों
की घुसपेठ के दौरान संघर्ष में बहादुरी से लड़ते हुए छाती पर गोली खाई है साब ने। ऐरां
वो विचारा खुद छाती में गोली खा मुझे हमेशा के लिए गोली दे गया था। स्वोरे भारे,
गाँव रिश्तेदारों से सहानुभूति और सरकार से खूब पैंसे मिले। भाईयों ने
भ्रात धर्म बड़या से निभाया। विधी विधान से किर्याक्रम किया। मेरी ल्वे खाब*
पड़ी थी। आँखों के आँशू सूख चुके थे, मुँह में जुबान बंद हो गई
थी। समझ परख सब उड़ चुकी थी। उस अबोध पर भी माया नहीं लग रही थी। कौन क्या बोल रहा है,
क्या कर रहा है कुछ पता नहीं चला।
स्वार्थ ने अपने मन की की। ठीक
तिरीसी (मासिक श्राद्ध) के दिन भाई बहिनों
में पैंसों की बन्दर बांट की गई। कितने मिले थे, किसको कितना दिया गया भगवान मालिक।
मैं आँखों में चूते सावन के साथ अंगूठा ही लगाती रही कागजों पर। बाद में उन्हें मर्णोपरान्त
सेना मेडल मिला उनके नाम पर गाँव में हाईस्कूल बना, गेट पर उनके
नाम के साथ फोटो अंकित किया गया। मेरे हाथों रिबन कटवाया गया और ऐवज में स्कूल के एक
नयें कमरे हेतु दान स्वरूप चैक पर मेरा अंगूठा लगवाया गया। ऐरां ! बिमला तेरु भाग ?
4.
भगवान ने मौत छुपाई और लोभ दिखया है। गुजरते वक्त के साथ दिन
गुजरते रहे और मैं मनीष के सहारे जीवन की गाड़ी को अकेले खेत जंगल गोठ-गुठ्यार में धकमपेल
खींचने लगी। बेटे के शोक में सास भी गोकुलवासी हो गई, भाई बन्द अपनी खिंचड़ी अगल पकाने लग
गए। ये मनीष बचपन से ही पढ़ाई में होशियार निकला। बिना बाप के बेटे पर बुद्धी मेहरवान
हुई। मैंने अपनी कमर सीधी नहीं होने दी लेकिन उसे पढ़ाई में आगे बढ़ाती रही। गोपेश्वर
में हाईस्कूल व इन्टर में फर्स्ट डिवीजन से पास हुआ। आगे की पढ़ाई के लिए देहरादून रख
दिया बी टेक करने। मेरा चाय पानी का गुजारा इन हटगों के बल बूते और गाजी-पाती*
से होता रहा एवं पेंन्शन व कुछ धरे पांजे पैंसों से मनीष बी टेक में अब्बल करता रहा।
तीन साल बाद बेटा सॉफ्टवेयर इंजीनियर बन गया। कोई विदेशी कम्पनी क्या बोल्ते उसे,
प्लैसमेन्ट देकर गुड़गाँव ले गई।
“चलो विधवा की गोधूली में सूर्योदय
हुआ”। मेरी तपस्या सार्थक हुई। मनीष ने अपनी पहली तनखा मेरे नाम मनिओर्डर की थी,
और कहा था कि माँ देवताओं के थान में रख देना अगले साल पिताजी और दादी
के नाम का श्रीमद भागवत सप्ताह करुँगा। अपने दूध पर गर्व ही नहीं अपितु श्रद्धा हो
आई थी। देर से ही भले मेरी कोख ने सुपुत्र जन्मा था। पित्र उद्धार कोई वरद पुत्र ही
कर सकता है। मैं खुसी के मारे फूले नहीं समा रही थी, जैसे पूर्णिमा
की चांदनी से घर का अन्धेरा कौना उज्जास हुआ हो। अगले साल पित्रों के निमित श्रीमद
भागवत सप्ताह धूमधाम से किया। भक्तिभाव से यार रिश्तेदारों की आवा भगत और दिल खोल कर
ब्रहामणों व दिशा ध्याणियों की दक्षिणा प्रतिष्ठा की थी मनीष ने। पुत्र चरित्र की सारे
इलाके में चर्चा हुई थी कि पुत्र हो तो मनीष जैसा। साथ में मेरे नारी सत का सम्मान
भी।
शुरुवाती चार पाँच सालों तक तो
वह बराबर घर आता जाता रहा। बगल के खेत में नयाँ मकान बनवाया लेट्रिन बाथरूम,
पानी का नल, सब फिट फोर किया। बोला था माँ तुझे
अब पीठ पर बंठा नहीं बोकना बड़ेगा। तू अब ब्वारी ला और अपने बुढापे के दिन आराम से काट।
मैं देहरादून में कहीं जमीन देखता हूँ, वहीं मकान बनायेंगे, और वहीं बस जायेंगे। सभी
तो चले गये यहाँ से, तुने ही क्यों ठेका लिया है इन रुखड़े खेतों का, इस काठ की धरती
का। वहाँ तेरे लिए एमएच, सीएसडी कैन्टीन और तमाम सभी सुविधाऐं
है। मैं बोली थी कि बाबा इतनी कम नौकरी में तेरे पास इतने पैंसे कहाँ से आए
? तो वह बोला था, माँ सवा लाख देती है कम्पनी तेरे बेटे को और खाना रहना
फ्री। कम्पनी का चीफ इंजीनियर है तेरा बेटा। कुछ लोन लूंगा जिसे दो चार साल में ही
पूरा कर दूँगा। तू चिन्ता न कर तेरा बेटा जो हूँ। तेरी तपस्या का फल तो मिलना चाहिए।
और वह अपनी जवान देह मेरी घुघी में ऐसे झुलाता था जैसे अभी चार साल का हो।
ऐसे लगने था कि मरने के बाद क्यों
जिन्दे में ही स्वर्ग है यह धरती। “खैरी के दिन खराये जैसे लगने लगे थे”। मेरे निरस
जीवन में सावन की रात चांद और पूस के झड़ द्यो में घाम का आना जैसे लग रहा था। बार बार
उनके स्टार और मेडल से भरी छाती वाली फोटो के सामने जाती और दंडवत प्रणाम करती। मूंछों
भरे गाल पर हाथ फेरती और आँशुओं से अर्घ देती। हे मेरे प्राणनाथ, हे मेरे स्वामी, हे मेरे सर्वेसर्वा आपके सपने साकार
हुए। इसी तरह अपनी छत्रछाया बनाये रखना अपने लाल पर देवलोक से ।
5.
कहते है कि “वक्त ही तो है ठहरता
कहाँ” चला जाता है। पर मेरे जीवन में वक्त ने जैसे ठहरने की ठानी थी। ठीक पाँच साल
के बाद वह (मनीष) उधर कम्पनी में ही किसी
बिहारी राछट लड़की के मायाजाल में फँसा और ससुरालियों के वहकावे में आकर उसने वहीं शादी
रचा दी। मल्ला गाँव का सते सिंह राणा देवर जी लड़के की तरफ का गार्जिन था बल उस दिन।
जब लोगों ने पूछा कि माँ को क्यों नहीं बुलाया तो मेरी बिमारी का बहाना बनाया था बल।
तपस्वनी माँ नराधम बना फेंक दी गई थी। माँ को खौळिक* के तेल पैराने और छौळिक*
दूर्वाशीष से भी वंचित कर गया था मेरा लाडला और ‘सुबेदार दिवान
सिंह गुसांईं, सेना मेडल’ का सुपुत्र मनीष
गुसांईं जी।
इस उम्र तक समय को करवट बदलते
असंख्य बार देख चुकी थी पर ये वाला समय इतनी जल्दी पल्टी मारेगा, ना आशा थी, ना ही विश्वास। हकबक रह गई थी ! एक हप्ते
तक घर से बाहर पाँव नहीं रखी थी शर्म के मारे। किस मुँह से लोगों के पास जाऊँगी कि
मेरे पुत्र ने अपनी मर्जी ब्याह रचाया, माँ को घास तक नहीं डाला। दिन में दसों बार इनकी तस्वीर के
सामने रोती रही, कि, अलो ! मैं तो इतनी
दूर थी लेकिन तुम तो उपर हो, तुमने क्यों नहीं देखा वहाँ से अपने
बेटे को। जरा रोकते टोकते उसे कि तेरी माँ अभी जिन्दी है। मैने सुना है उपर से सब कुछ
दिखाई देता है।
हठ्ठ तेरे की !! इस निर्लज जमाने की लव मैरेज ? माँ, ममता, रिश्ते नातों को एक चोट में हलाल कर देता है। अरे
बेटा मैं कौन से तुझे मना करने वाली थी कि तू देशी लड़की से शादी मत कर। हमारे सूत-बेंत* की नहीं थी तो क्या हुआ, बेटे के भविष्य के लिए आज तक किस
माँ ने बेटे का भविष्य ठुकराया। सायद “माँ की ममता मेमोरी सॉफ्टवेयर इंजीनियर बेटे
की रेम ऐसेस नही कर पाई”। ऐरां ! बिमला तेरु भाग ?
वो तो बाद में सुनाई दिया कि आपका
बिहारी समधी दिल्ली में छोटी मोटी नौकरी वाला है बल। घर की हालात ठीक नहीं थी लड़की
ने ऐसे डोरे डाले कि अपने साथ अपने परिवार का भी वारा न्यारा कर गई इंजीनियर पति की
गाड़ी कमाई जो मिली । हे भगवान ! मुझे नहीं चाहिए थे बेटा तेरे
पैंसे। मेरे सत ने मुझे मेरे मालिक (पति) की पेन्शन दी है उसी को नहीं खा पाती हूँ। पर बाबू ! कम से कम, साल में एक बार दर्शन
तो दे जा। फोन पर दो वचन तो बोल दे। पर ऐरां ! अभागिनी तेरु भाग
फुट्यूँ जु छै। माँ के लिए प्यार बहू के बाहुपासों से मुक्त नहीं होता है अब। मैं क्या
करती, छन औदाल की बेऔलादी हो गई। जिन स्वोरे भारों की नजर पहले
से मेरी जायदाद पर है वे अब ताने देते कि सच्ची हिगंत्यारी (सत
वाली) होती तो लड़का क्यों ऐसा अपीड़ हो जाता।
तीन साल पहले बच्चीराम ने ही यह
मुबाईल खरीदा था। उसीसे मनीष का नम्बर मिलवाया, मैं कुछ नहीं बोल पाई थी। अवाज गले
में अटक गई थी। बस इतना ही बोल पाई कि बेटा राजन बाजन रैयाँ। मैं क्या कर सकती हूँ
किस्मत पर रोने के अलावा। मौत भी तो नहीं आती जल्दी। उसने फोन पर इतना ही कहा था अपना
ध्यान रखना बाद में फोन करता हूँ, अभी ऑफिस में विजी हूँ। और उस दिन से मेरा बेटा ऑफिस
से फारिग नहीं हुआ, खाली नहीं हुआ। ब्वै भी नहीं कहा था उसने। इतनी जल्दी मे जबाब दिया
कि जैसे साहुकार का फोन हो। हे भगवान किस जन्म के अपराधों की सजा दे रहा है तू । इस
जन्म में चींटी तक को पाँव नीचे नहीं आने दिया। किसी को पल्या सोर (उधर हठ) तक नहीं बोली।
बस ऐसे ही अपनी ममता की तीस बुझाने
के लिए दो तीन महिने में बच्चू के बच्चे फोन मिला देते है दादी रिंग जा लहा है ले बात
कल मनीष काका से। असल कुशल पूछ लेती हूँ। वो हाँ हूँ में ही जबाब देता है। अरे बाबा
कभी ब्वारी से भी बात करा दे, थोड़ी बहुत हिन्दी मुझे भी आती हैं पर उसने पट मना कर दिया कि वो तेरी बोली
नहीं समझेगी। अब ह्वेगी तब ! “पहले गौं गुठयार से गये फिर माँ
बाप से, अब भाषा से भी गये” ! अरे जमाना
कहाँ तक उड़ेगा कहाँ बैठेगा पता नहीं। दो नाती हैं उनकी तोतली आवाज सुनने को कान तरसते
हैं। जब पल्या ख्वाले की बैसाखी जेठानी को बम्बे में अपने नातियों से विडीयो पर बात
करती देखती हूँ तो चीरी (टीस) पड़ जाती इस छाती पर, कि बिमला तेरी
छातियों से तीता दूध निकला है था क्या ? किसको दोष दूं । उनके ब्वारी ने गढ़वाळी भी सिखा दी है बल अपने बच्चों
को। मेरी ही कोख पर खोट है क्या करूं,
ऐरां ! बिमला तेरु भाग ?
भला हो इस करोना का। पिछले साल
लॉकडोन में नाती ब्वारी के साथ पूरे आठ साल बाद इस द्येली* में उसके पैर
पड़े थे । वहीं से खाने-पीने, चूल्हा-चौके का पूरा सामान लाया था। अपने बनाऐ नयें लेंटरदार मकान पर ही परिवार को
रखा था। ब्वारी ने शर्मा-शर्मी हाथ निचे झुका सेवा लगाई थी। नातियों
ने दूर से ही दादी नमस्ते की थी। लोग बोल रहे थे कि करोना के डर से नहीं कम्पनी में
काम बंद होने से छुटटी मिली है, इसलिए पिकनिक सिकनिक क्या होता है वही मनाने आऐ हैं बल। बद्री, केदार, तुगनाथ, अनुसुयामाता,
कर्तिक स्वामी, बैरासकुण्ड, औली सभी जगह घूमे थे अपनी कार से।
मुझे बोला कि ब्वै कार में इतनो को जगह नहीं होगी तुझे कभी ले जाऊँगा। वह कभी मेरे
रहते कभी आयेगा पता नहीं। पर चलो ! फिर भी हरीस लग रहा था कि
मेरे अपने सामने हैं। सूनि गुठयार’ से मर्खू* बैल
भला।
लोगों के देखने से मेरे नाती मेरे
पास आए थे। उन तीन महीनों में वह ब्वारी मेरे नजदीक नहीं बैठी। दो तीन दिन अपने हाथ
से कल्यो और खीर बना के खिलाई थी। नातियों ने खूब हाथ चाट सपोड़ा था, पर वो बिहारी की बेटी मुहँ बना कर बार बार अंग्रेजी में मनीष और बच्चों को
डांटती रही थी। मेरा मनीष वैसे ही पहले से निमाणा (सीधा)
आदमी जो ठैरा। किसी के मुँह कभी नहीं लगा इसीलिए उस ब्वारी ने अपनी मुठ्ठी
में कसा हुआ है। त्रिया चरितर की समझ वर्तमान तक। लकड़ी जल कर पीछे आती है यह वर्तमान
के समझ के परे होता है। जवानी का जादू बुढापे का वाड़ू (अवरोध)। अबोध नातियों ने भी क्या जनना था दादी की पीढ़ा को जब कभी गोदी में उठाने
को होती छिटक जाते थे जैसे मुझे कोड़ हो। आँखों के सामने होने का जस था। कोरा स्वाभिमान।
बाहर के देखने से मेरी गुठ्यार सूनी नहीं बल्कि भरी हुई है। ऐरां ! बिमला तेरु भाग ?
ब्वारी के जाने के बाद गाँव वालों
की निरपट गाली अलग खाई मैंने कि तेरा लड़का उस हिरोइन को कहाँ से लाया। दो लड़क्वाव
(लड़कों वाली) औरत और चिरीं जींस, नंगे बाजू गाँव में घूम रही है। ससुर जेठ कुछ नहीं
देखना। बलार* जमाना शर्मलाज बि हर्ची। लोग बोल रहे
थे कि क्या बोल्ते, उसके फैशन से हमारी लड़कियां और लड़के भी बिगड़
रहे है। उसको बोलना उस फैशन वाली को तखुन्द (वहीं) ही रखना याँ मत लाना। ममता अंधी होती है मुझे कुछ नहीं दिखता है ना सुनाई देता।
मुझे वे सामने दिखने चाहिए जैसे भी हो।
इस साल जब लोगों ने बोला कि करोना
की दूसरी लहर आ गई है सभी जगह लॉकडाउन लग गया तो आशा बंध गई थी कि इस साल भी मेरे अपने
मेरे पास आयेंगे। पर बंणाग लगे इस दूसरी लहर को जल्दी खतम होने को आई। अरे दूसरी लैर
तू जल्दी क्यों जा रही है ? कुछ रुक कर जा वो आ रहे होंगे,
सकुशल। वो आ रहे होंगे।
ना प्रभो ना ! वो अब नहीं आएंगे, नहीं आएंगे, मेरे रहते नहीं आएंगे। ना ही ये करोना आगे रहेगा। खोपड़ी पर हाथ रख अकेले भूक्रा
भुकर रोने लगी। सिसकते हुए, अरे बिमला “मूत के निवाते से पूस
की रात कब तक कटेगी”। मत झूटी आस बाँध, विकास की जद में आया पुत्र
माँ के सात दूध की धार का उद्धार करेगा कल्पना परे है। “कभी तपते जेठ तो कभी ठिठुराती
पूस वाला अतीत देख बौडी खुद से कुपित हो खुद को श्रापित कर रही थी”। छाती से नीचे तक
आँशुओं से भीग चुकी थी।
दो घंटे कब निकले पता नहीं चला।
अंधेरे ने डांडी कांठी घेर ली थी। सब स्याह सुन, निन्यारे
(पहाड़ी झिंगुर) कब अपना सांध्यगान पूरा कर चुकने
के बाद चुप हो गए थे, बौडी को पता ही नहीं चला। गिरते संभलते
फिर औंधे मुँह पड़े जीवन फिल्म का सीन तब अक्षि से ओझल हुआ जब बच्चू की ब्वारी मीना
ने दूध के लौटे के साथ चौक में प्रवेश कर आवाज दी, जी कख छाँ
आज, अंध्यारु कर्यूं भैरो बल्ब बि नि बाळी तुमल।
कहानीकार : बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’
मुख्या
गढ़वाली शब्दों का अर्थ :-
डाने – पहाड़ की
। बौडी,- ताई। धार – ऊँचा रिज। छिल्ल - चीड़ की तेलीय लकड़ी। द्यो कूड़ी - देव घर। दानेण - चौक की बैठने
वाली दीवाल ।
ग्वाळा पुज्ये - ग्वाल पूजा।
अंयार -अंयार का पेड़। अठवाड़ - बली। ह्यून्द हिंवाळ - जाडों के दिन। रौंतले - रौनकदार,
सुरम्य। डुर्कताळ - डुकरना। औडाळ - आँधी वारिश। बिवांळ - मन बहलावा। मनखी - मनुष्य। डंडयाळी - उपरी मंजिल। धुर्रपळे - मकान की ऊंची वाली छत। खैनी - आवाद। गोठ - गौशाला। जंगार की जांठी
- नदी पार करने वाला डंडा। ब्वारी - बहू। नोन्याळ - बच्चे। उबरा - मकान का नीचे वाला तल। कुठार - अनाज का संदूक। द्वार बाटा - शादी के अगला दिन मायका और ससुराल जाने की रश्म। घिमसाण - समूह। छिल्ल - चीड़ की तेलीय लकड़ी। अग्येला - आग पकड़ने वाला। बंठा
- पीतल की गागर। सुरुक
- आहिस्ता। ग्वेर - ग्वाले। सुद्दी - सुदों। फाम - जेहन में । बगत - वक्त। देस्वाळ - देशवाले। मवासी - कुटुम्ब। झण - पति पत्तनी। चुल्लख्वंजी -
घर का बूरा। तिबारी - मकान के प्रथम तल का खुला बरामदा। ब्वै
- माँ । गंगलौडों - छोटे गोल
पत्थर। हिलांस - एक मेलोड़ी पक्षी। ऐरां - हे राम (विस्मयबोधक) शब्द। मौंस्याण - सौतेली माँ। जुंद्याल - अक्षत। बीसी - बीस। कूड़ी - मकान। ल्वे खाब - लहू भरा मुख, महादुःख का
समय। गाजी पाती
- पशुधन और कृषी। खैरी - दुःख। खराये - साफ होना,। झड़ द्यो - जाड़ो के दिन। खौळिक - मंगल स्नान। छौळिक -हल्दी चांवल कर उबटन। राजन बाजन दृ खुसी खुशाल। ख्वाला
- मोहल्ला। मर्खू - मारने वाला। चिरीं - पीड़ा की कराहट। बलार - बेर्शम। जी कख छाँ आज भैरो बल्ब नि बाळी तुमल - सासू जी कहाँ हो आज बाहर का बल्ब नहीं बाला आपने।