जब भी मिलन हो मुखड़ी अनजान न लगे,
यादों के मेले में छुवीं विरान न लगे।
जोड़ें दिल के तार, चंद लगे लम्हों में,
धरती की अगली मुलाकात, आसमान न लगे।
फ़िराक़ में रखें अपनापन रिश्ते ढूंढने को,
मिले तो धुक-धुकी लगें बेजान न लगे।
पगडंडियां, हाईवे, मोड़-सोड़ सब हैं सफर में,
अबेर-सबेर चलेगा, पर रफ्तार को विराम न लगे।
उकाळ, उंदार वाले होते हैं प्रेम पथ अकसर,
चलते रहना, कठिन लगे पर हारमान न लगे।
पहेलियाँ बहुत हैं संसारिकता की पोथियों में,
सुलझा लो तो ज्ञान लगे अभिमान न लगे।
बरकतों के बाग हरियाली हो झकमकार जब,
तब जरूरत मंदों को वो रेगिस्तान न लगे।
जज्बातों को संभाल कर रखना अडिग,
जब निकले बात लगे, बद जुमान न लगे।
*गढ़वाली शब्दों का अर्थ :-*
मुखड़ी – चेहरा। छुवीं – बातचीत। धुक-धुकी – धड़कती। अबेर-सबेर- लेट-पेट। उकाळ उंदार -चढ़ाई उतराई। झकमकार-लबालब। जुमान – जुबाँ।
@ बलबीर राणा ‘अडिग’
8 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 03 फ़रवरी 2022 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
धन्यवाद रविन्द्र जी आभार अभिवादन
बहुत खूब । अर्थ दे कर समझना सरल कर दिया । शुक्रिया।
धन्यवाद संगीता जी
बहुत खूबसूरत रचना
पहेलियाँ बहुत हैं संसारिकता की पोथियों में,
सुलझा लो तो ज्ञान लगे अभिमान न लगे।
अति सुन्दर सृजन ।
पहेलियाँ बहुत हैं संसारिकता की पोथियों में,
सुलझा लो तो ज्ञान लगे अभिमान न लगे... वाह!क्या खूब कहा सर 👌
आभार अनिता जी
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