मंगलवार, 13 अगस्त 2019

प्रकृति निधि


यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं
मोह, प्रेम राग/अनुराग भरे नाते हैं
चेहरे ये आते जाते राहगीरों के नहीं
ये आनन हर उर में घर कर जाते हैं।

जैसे आसमान में निर्भीक बादल टहलते
जैसे निर्वाध विहारलीन खग मृग विचरते
बे रोक-टोक आती पुरवाई बलखाती मदमाती 
नन्हे अंकुर को आने में धरती हाथ बढ़ाती
सृष्टिकर्ता की ये कृतियाँ जीवन गीत गाते हैं
यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं।


पतंग का दीपक प्रेम, पंछी का कीट
मछली का जल, बृद्ध का अतीत
उषा उमंग का निशा गमन करना
दिवा ज्योति का तिमिर हो जाना
फेरे हैं ये फिर फिर कर फिर आते हैं
यही प्रकृति निधि ..............

सुकुमार मधुमास का निदाघ तपना
निदाघ का मेघ बन पावस में बहना
तर पावसी धरती शरद में पल्लवित
तरुणाई शीतल हेमंत में प्रफुल्लित
फिर शिशिर में बुढ़े पत्ते झड़ जाते हैं
यही प्रकृति निधि........

2 टिप्‍पणियां:

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन अंग दान दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

बलबीर सिंह राणा 'अडिग ' ने कहा…

हार्दिक आभार आदरणीय हर्षवर्धन जी