मैं पढ़ा लिखा या लिखा पढ़ा, पता नहीं
अंकुरण से बाल पकने का, पता नहीं।
सांसे मिल रही थी भोजन मिल रहा था
मैं पिंड पोषित हो रहा था पल रहा था
निश्चिंत था, पड़े पड़े मजे में कट रही थी
किसी पर बीत रही भी होगी, पता नहीं।
मैं पढ़ा लिखा .......
न जाने एक दिन छटपटाहट होने लगी
निश्चिंतता को हड़बड़ाहट होने लगी
बाहर निकलूँ कुछ करूँ निकलने की ठानी
कोई पीड़ा में कराही भी होगी, पता नहीं।
मैं पढ़ा लिखा ..........
तभी लगा मैं कहीं और आ गया हूँ
रोने लगा आते ही, कुछ मांगने लगा हूँ
अब सांसे मेरी थी, शरीर मेरा पर, बस नहीं था
परबस में कितना हँसा कितना रोया, पता नहीं ।
मैं पढ़ा लिखा ............
प्यार दुलार में पलता गया बढ़ता गया
शनै शनै आदमी की राह चढ़ता गया
क ख ग दादी नानी की चौखट से शुरू हुआ
कब वैश्विक ज्ञान कोश तक पहुंचा, पता नहीं।
मैं पढ़ा लिखा ...........
संस्कार वे चौक चौबारे के अब बौने लगने लगे
इतना पढ़ा कि आत्मा परमात्मा को धोने लगा
धरती स्वरूपा जननी पर भी सवाल करने लगा
पालक पिता से भी कब भरोसा उठने लगा, पता नहीं ।
मैं पढ़ा लिखा .............
अरे छोड़ो ! कौन भगवान कैसा भगवान, मत बात करो
कौन पालन कर्ता कौन हर्ता मत इन पर विश्वाष धरो
सबसे बड़ा मेरा जियाराम, करूंगा धरूँगा जो चाहे वो
संवेदनशील जगत में कब संवेदनहीन हुआ, पता नहीं।
मैं पढ़ा लिखा या लिखा पढ़ा, पता नहीं।
@ बलबीर राणा अड़िग
1 टिप्पणी:
सुन्दर नवगीत।
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