हे प्रभु मेरे
कृष्ण, मेरे ईश
वाद रहित जीवन
का दे आशीष
जन जीवन चांचड़ी
बना जाए
सुख संतोष का
दे बक्शीष।
जीवन का चांचड़ी बनना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन
है यह इस लिए कह रहा हूँ कि चांचडी बनने के लिए मनुष्य के विचारों का कर्मो में समावेश
और कर्मो का चारित्रिक होना नितांत आवश्यक है। लाख कोशिश के बाद भी सांसारिकता में
रहते हुए मनुष्य का समभाव होना असंभव है़। समभाव होना मनुष्य का दोष कम और सांसारिकता
की देन ज्यादा कहूंगा क्योकि सांसारिकता में एक मनुष्य नहीं मनुष्यों का झुण्ड होता
है और झुण्ड एक भीड़ है भीड़ का कोई सुनिश्चित स्वरूप या आकार नहीं होता, भीड़ में किसी
एक की अलग पहचान नहीं होती है। और यही भीड़ का हिस्सा रहते हुए हमारे कतिपय काम भीड़
के अनुरूप हो जाते हैं। जो नितांत परबस है चाह कर भी हम उस काम को करने से खुद को रोक
नहीं सकते। यह इस लिए कह रहा हूँ क्योंकि मनुष्य परिवार से लेकर राष्ट्र तक किसी न
किसी वाद से बंधा होता है वाद में समभाव की सम्भवना ना के बराबर होती है। मनुष्य का
वाद रहित समभाव होना पोलियो ग्रस्त व्यक्ति का एवरेस्ट फतह करना जैसा है।
समभाव होना महात्मा होना या बुद्धत्व में निर्वाण होना जैसा है,
जिसमें जाति-धर्म, ऊंच-नीच, अगड़ा-पिछड़ा, महिला-पुरुष छोटा-बड़ा सवर्ण-दलित कुछ नहीं
बल्कि मात्र मनुष्य होना होता है। चांचड़ी ऐसी ही अपने आप में निर्वाद गुणों में समाविष्ट
उत्तराखंड का विशुद्ध लोकगीत नृत्य है। इस गीत नृत्य में हमारा लोक जीवन क्षणिक ही
सही परन्तु पूर्णरूपेण वाद रहित हो जाता है समभाव हो जाता है। स्वयं में आनंदानुभुति।
यह लोक की विशिष्ठ्ता के साथ आपसी प्रेम सौहार्द और अपनेपन प्रतीक भी है। जब कोई व्यक्ति
चांचड़ी के घेरे में दूसरे के बाजू में हाथ फंसाये शामिल हो गया तो फिर वहां कोई वाद
नहीं रह जाता है, बस होता है एक आनंद अतिरेक। चांचड़ी झुमैलो की विशिष्ठ्ता के परिपेक्ष
में यह मेरा निजी विचार है इसका किसी ग्रंथ या साहित्य पृष्ठभूमि से कोई सरोकार नहीं
है। इसे लोककला के मर्मज्ञ विद्वानों ने बड़े सुन्दर ढंग से परिभाषित किया हुआ। एक बात
और कि चांचडी खुद में निर्वाद और समभाव तो है लेकिन चांचड़ी से बाहर आकर लोक समभाव नहीं
रहते क्योंकि लोक किसी वाद का हिस्सा रहता ही है। यह मेरा चांचड़ी के अन्दर रहते हुए
आनंद अतिरेक पर स्वयं की अनुभूति है वादबाकी अनुभव अनुभूति किसी और की और कुछ भी हो
सकती है।
चांचडी को उत्तराखंडी लोकगीत और सांस्कृतिक परम्परा
की रीढ़ कहा जाय तो अतिसंयोक्ति नहीं होगी, यह पारम्परिक लोकगायन और नृत्य उस लोकसंस्कृति
का नेतृत्व करता है जो पृथवी पर प्रकृति के हर स्वरूप को देव तुल्य मानता है। धार,
खाळ, डाँड़ी काँठी, गाड़ गदेरे, बन जंगल खेत खलिहान, पौण पंछी, जीव नमान हर चीज के साथ
मनुष्य वृति यहां तक कि हवा रुपी परियों, ऐड़ी आंछरियों, बन देवियों और देवतांओं को
इन गीतों के माध्यम से गाया जाता है। यही इस लोकगीत नृत्य को विशिष्ट बनाती है।
चांचडी को मैं समभाव इस लिए मानता हूँ कि इसमें गीत है नृत्य है,
समूह है, एकता है, महिलाएं भी हैं और पुरुष भी, साथ ही बिना वाद्य यंत्रों के सुर और
ताल ऐसा कि एक बार आनंद अतिरेक में आ गया तो व्यक्ति चूर चूर थकने तक विश्राम लेने
का नाम ना ले। इस आनंद अतिरेक में कोई लिंग
भेद नहीं कोई वर्ण भेद नहीं। गुजरात के गरबा और आसाम के बिहू जैसा ही सशक्त हमारा यह
लोकगीत नृत्य है जिसे हर उम्र के लोग गाते हैं नाचते हैं खेलते हैं। हाँ बिडम्बना यह
रही कि राष्ट्र फलक पर वो पहचान नहीं मिली जो गरबा या विहू या पंजाब भंगड़ा मिली। हमारे
उत्तराखण्ड के सामूहिक लोकगीत नृत्यों की श्रृंखला में चांचडी, झुमैलो, चौंफुला, थडिया,
तांदी, छौपती, छोलिया आदि है जिनमें में देव स्तुति, लोक परम्परा, सामाजिकता, प्रकृति
महिमा, प्रेम गीत, विरह गीत, समसमायकी और हास्यव्यंग आदि अनेक लोकाचार विषयकों पर आधारित
गीत होते हैं होते हैं या यूं कहें कि जीवन के विविध रगों से सजी वृहद् लोक सांस्कृतिक
परम्परा की सुन्दर वाटिका है चांचडी ।
ये सभी लोकगीत नृत्य पौराणिक काल से पीढ़ी दर पीढ़ी अपने लोक के साथ
मौखिक चलते आये हैं। इन विशुद्ध लोक गीतों के रचनाकारों के नाम आज विज्ञ न होना हमारे
इतिहास की बिडम्बना रही है हाँ बीसवीं शताब्दी से आज तक डॉ गोविन्द चातक, डॉ नन्द किशोर
हटवाल आदि साहित्यविदों के परारभ्ध से आज ये गीत हमारे पास ग्रन्थों के रुप में संकलित हैं और इन साहित्य मनीषियों की बदौलत ये गीत कालजयी बन गये हैं। उत्तराखंड का लोक भविष्य इन मनीषियों
का ऋणी रहेगा। नयीं पीड़ी से अपील है कि ये हमारी लोक परम्परा का अभिन्न अंग था, है,
और आगे भी रहना चाहिए इसके लिए प्रयासों की निरन्तरता हर जन अपने स्तर पर रखे तो यह
सांस्कृतिक विरासत लम्बेकाल तक जिन्दी रहेगी। जब लोक के साथ उसकी लोकभाषा या लोक परम्परा
नहीं है तो फिर उस लोक के अस्तित्व सवालिया निशांन समझो। आधुनिक वैश्वीकरण के दौर में इस लोक
विरासम का जीवित रहना मुश्किल तो है लेकिन नामुमकिन नहीं विश्व के तमाम समाज अपनी लोक
पहचान के लिए हमेशा हर मुमकिन संघर्षरत रहे हैं और हमें भी रहना होगा इसे इग्नोर करना
अपनी पहचान अपने हाथों से मिटाने जैसा होगा।
आज जब राष्ट्र फलक पर उत्तराखण्ड की मेधा हर क्षेत्र में एक विशिष्टता
रखती हो तो इस दृष्टिकोण से हमारी इस लोक विरासत की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान न होना
जरूर लोक मर्मज्ञों के प्रयासों पर सवालिया निशाँन है इस क्रम में इसे विफलता ही कहा जायेगा। अगर आगे पुरजोर प्रयास किया जाय तो
चांचड़ी झुमैले को राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय फलक पर पहचान दिला सकते हैं। यह हम सबकी
जिम्मेवारी है साथ ही इस पर अब सरकार के स्तर पहल हेतु जोर डाला जाना चाहिए। इन लोक
सांस्कृतिक धरोहरों का विलुप्तता के कगार पर होने के चलते इन्हे विद्यालयी संगीत पाठ्यक्रमों
में शामिल करना होगा तब जाकर कहीं हम नव पीड़ी इस ओर उन्मुख करा पायेंगे। जब तक सभी
लोक वाद्यय, गीत, जागर, संगीत और नृत्यों को
रोजगार से नहीं जोड़ा जायेगा तब तक इनके संरक्षित होने की उम्मीद करना बेमानी होगा।
राज्य हमारा लोक हमारा नेता नीति नियंता हमारे तो अड़चन कहां है, अड़चन है तो वो है पहल
की सरकार तक आवाज पहुंचाने की और यह अकेले किसी एक संघठन या व्यक्ति की नहीं बल्की
पूरे लोक समाज की जिम्मेवारी है। सभी सामाजिक मंचों को इसकी पुर जोर पैरवी करनी होगी।
जहाँ आज इस बात की ख़ुशी है कि ये लोकगीत नृत्य
घर गावों के थौलों चौकों से निकलकर आधुनिक संगीत और डिजीटल वाद्ययों के साथ मंचों पर
नयें कलेवर में आया वहीँ इस बात का दुःख है कि खुद लोक में यह रुग्णाशन में है आधुनिक
मनोरजन के माध्यमों के चलते आम जन इसे अब पुराने रुढ़ि का हिस्सा मान ताज्य कर रहे हैं
यह चिंता का विषय है। र्वतमान पीढ़ी के कलाकारों ने इसे नए कलेवर में ढालना या मोड़ना
कुछ हद तक सामयिक हो सकता है लेकिन इन्हें
पाश्चात्य या फ़िल्मी प्रभाव देना इस लोक धरोहर
का अपक्षय होगा यह दूसरा चिंता का विषय है।
आज कतिपय सांस्कृतिक कलाकार इन लोकगीत नृत्यों में अनावश्यक छेड़छाड़ करके नुक्सान पहुंचा
रहे हैं यह कदापि स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। आज पाश्चात्य संगीत का प्रभाव इस प्रकार
सर चढ़ बोल रहा कि लोक की तमाम कला, लोक से विमुख होती जा रही है। इस बाबत लोक संस्कृति
के मर्मज्ञ विद्वतजनो को एक मंच पर आकर विचार करने और ऐसा ना हो इस पर अमल करने की
जरूरत है तभी इस विशुद्ध विरासत को हम अगली पीढ़ी को अपने पूर्ण स्वरूप में हैंड ओवर
कर सकेंगे नहीं तो नियति मान चुप बैठना अपनी लोक परम्परा की हत्या करना जैसा होगा।
@ बलबीर राणा ‘अड़िग’
1 टिप्पणी:
सार्थक आलेख।
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