सोमवार, 3 मई 2021

मातृभाषा अभियान में प्रथम पंक्ति के संगेर थे श्री हरीश ममगांई जी

 



    करोनाकाल चल रहा है। चल क्या आँख मुँह बन्द कर भाग रहा है। आंधी चल रही है। और बबडंर चक्रवात में इन्सानी जान त्राहीमाम कर रही है। दो हजार बीस को लोग ट्वेंटी ट्वेंटी कह अशुभ मान रहे थे कि येन अध्या पध्या कने च। लेकिन इक्कीस तो बीस का भी बाप निकला। पिछले साल करोना जिस धीमी रफ्तार से भारत में आया उसी धीमी रफ्तार से जाने के उपक्रम में आ चुका था। देश ने स्वदेशी वेक्सीन भी र्निमत कर दी थी जनता आस्वस्त हो गई कि अब बच जायेंगे। पिछले साल खोये अपनो की यादें धुंधली होने के साथ नये साल में जख्म भरने के रुप में देखा जाने लगा था। अपनों का खो जाने का जख्म, बिजनिस बाड़ी रोजी रोटी का जख्म देश की अर्थ व्यवस्था का जख्म, टूट चुके आस को जगाने का वक्त देखा जाने लगा। सब जख्मों को भरने की उम्मीद से आम जन ने कमर क्या कसी र्निभीक हो गई और इस अदृश्य  काल ने मौका ना चुकाते हुए  झपट पड़ा और एक तरफ से। लपेटता झपेटता जा रहा है छोटे बड़े जवान बृद्ध जो सामने आ रहा है चटकाता जा रहा हैं। महामरी हाँ घोर महामारी। अन्य कालों में भी फैली थी बल महामारियां पर अहसास नहीं था। ऐ अपड़ी ब्वै का यनु भयाक्रांत ऐसास दुश्मन तैं कि ना हुयां। सारे जतन धरे के धरे रह गये ढाई पाई ऐन मौके पर व्यर्थ। लाखों पाई भी जान नहीं वख्स रही है। कब किसका नम्बर लग जाये पता नहीं। हे राम कौन दोषी। सिस्टम या समाज।पर समय दोषारोपण का समय नहीं सम्भलने का है और वो भी एक दूसरे का हाथ पकड़कर। धाद सहित देश की कई संस्थायें और महामानव दिन रात खुद की परवाह किये दूसरे की जान बचाने की मुहिम में लगे हैं। ऐसे लोगों की बदौलत ही  अभी तक धरती टिकी है नही तो आपदा को अवसर देख बटोरने वाले हैवानो के चलते परलय निश्चित है ।

            इसी महाप्रलय करोना महामारी के चलते कुछ दिन पहले हमने भी खोया है एक साथी को। अजीज को। धाद मातृभाषा और गढ़वाली साहित्य का संगेर श्री हरीश ममगांई जी को। पूरा धाद परिवार स्तभ्ध है। पर होनी को कौन टाल सकता। होनी निश्चित है और जतन अनिश्चित। ये वर्तमान समय बता रहा है । जतन का मौका ही नहीं दे रहा है। बल ब्याली त बात ह्वे छै अर ब्याली चलग्यां। 

            फरवरी दो हजार बीस से मैं देख रहा था कि हर दिन हरीश भैजी सबसे आगे लग कर धाद मातृभाषा ग्रुप की सांग ग्रुप एडमिन श्री गरीश पंत मृणल जी के साथ पूरे सार्मथ्य से तड़तड़ी कमर से उठाये चल रहे थे। हम लोग समयानुसार कभी कभार बोक (किनारा) भी लग जाते हैं पर हरीश भैजी कभी नहीं। ग्रुप में लगभग सभी नोकरी पेशे से हैं समय की वाध्यता हर किसी के पास होती है पर हरीश ममगांई जी का हिगनत्यार (सर्मपण) ऐसा कि हर कविता लेख पर अपनी उचित प्रतिक्रिया जरुर देते थे। उनकी इसी प्रतिबद्धता से आज सभी साहित्यकारों स्तभ्ध हैं। शोक में हैं। काणा त्वे क्या चैणा द्वी आँखा साणा। ऐसे ही हर लिख्वार को प्रतिक्रिया रुप में साणी आँखी दे जाते थे।

            श्री ममगांई गढ़वाली के उम्दा गजलकार तो थे ही साथ ही उनकी पकड़ हिन्दी कविता संस्मरण और कहानियों पर भी अच्छी थी। साहित्य परख भाषायी ज्ञान की गहराई व विवेचना आपकी पहचान थी। और ये सब होने के साथ वे एक वेहतर पाठक थे लर्नर थे, जिज्ञासु बाल चित वालेे। वर्तमान मा दिख्येणु च कि लिखणु त भौत छन पर पढ़ेणु नि, हरीश भैजिक पाढ़ाकु आदत वूं कि रचनों मा साफ दिख्येन्दी। जीवन में लर्नर एटीटयूड लाना हर किसी के बस का नहीं साब। आम इन्सान में देखा जाता कि एक आध सीड़ी कामयाबी के बाद वह खुद को सम्पूर्ण घोषित कर लेते हैं। जबकि धरती पर मानव इतिहास बताता है कि धरा पर कोई व्यक्ति सत गुण सम्पूर्ण नहीं हुआ। पिछले कुछ महिनों से मंमगांई जी अनुवाद पर लगे थें और अनुवाद की परिपक्वता ऐसे कि जैसे अनुवाद ही उनका सृजन होगा।      

ममगांई जी का सानिध्य मुझे धाद मातृभाषा ग्रुप से ही मिला उससे पहले मैं भैजी को जनता नहीं था। दो हजार बीस के लोकडाउन से धाद से ही आभासी दोस्ती हुई, दोस्ती क्या हुई कुछ दिनों में ही अजीज बन गये। क्या रुलाने के लिए ही आप इतने कम समय में अजीज बने ? सायद हाँ। गलवान संघर्ष के दौरान जब में अरुणाचल तवांग बोर्डर पर तैनात था और काफी दिनों से नेटवर्क से दूर रहा तब नेटवर्क में आने पर देखा निजी परिजनों के साथ हरीश भैजी के भी मिस काॅल व मैसेज मिला। कि राणा जी कख छै पोस्टिंग, अजक्याल भौत दिनो बटिन दिखेणा नि सब असल कुसल। उस प्रतिकूल परिस्थित में इस आपार स्नेह को कैसे भूल सकता हूँ। यदा कदा कहीं पर संसय होने से मैं उनके पास चला जाता था छुवीं लगाने यानि फोन पर। छुवीं मातृ भाषा की अपने पहाड़ की और गढ़वाली साहित्य की। वे कहते थे राणा जी आप लोगों से ही सीख रहा हूँ जबकि कौन नहीं जानता हैं कि आप हमारे सृजन र्निणायक थे। गुरु थे। चाहे पद्य हो या गद्य।

            इस अप्रेल 21 के पहले सप्ताह में हमनें फिर दाध मातृभाषा अभियान ग्रुप में काव्य प्रतियोगिता रखने का प्लान रखा जिसमें आपने डियूटी पर व्यस्त रहूँगा की बात कही थी फिर भी साथ पूरा निभाने का भरोसा दिया था और मृणाल जी को हंडरेड नहीं हंडरेड फिफ्टी परसेन्ट यकीन था कि हम मैजूद हो पायेंगे कि नहीं आप जरुर मैजुद रहेंगे। अब मृणाल जी भी एक तरफ से निहत्थे हो गये। सायद अप्रेल दूसरे हप्ते तक ममगांई जी दिखे थे फिर वे ग्रुप में नजर नहीं आये । 20-22 अप्रेल के आस पास एक दिन मैने ग्रुप में संदेश भी प्रेसित किया था लेकिन उनका कोई प्रतिउत्तर नहीं आया कामेश भाई गांव जाने की आशंका जता रहे थे लेकिन मि जाण करोना वूं तैं दिव्यलोक मा ल्यी जाणू तैयार कनू रै। उसी दौरान एक रात दस बजे फोन भी  लगाया था पर उत्तर नहीं मिला मन कुछ आशंकित हो रहा था। और एक मई को ग्रुप में मिले सन्देश ने स्तभ्ध कर दिया। कमर टुटग्ये।

            कितनी बारिकी से वे हर रचना की परख और मुल्यांकन करते थे। जब पिछले साल ग्रुप में गढ़वाली छंद बध काव्यशाला के तहत  प्रतियोगिता होती रही थी तो हरीश भैजी पहले ग्रुप में छंद विधान से संबन्धित तमाम प्रकार की जानकरी साझा करते थे कि किस प्रकार से कौन छंद लिखा जाता है उस छंद का मापदंड क्या है मात्रा भार क्या होना चाहिए आदि आदि। फिर मुल्यांकन पर एक एक पंक्ति और मात्रा को गिनते हुए हर प्रतिभागी को उसकी कमी बताते थे। ता ब्वाला अगला भै कु यतनु सर्मपण अपणी भाषा का पैथर जन कि बल्द बेची रितो हुयूं ह्वलु। मि स्वचदू छै कि यीं मनखी घौर बार नि छ जु इत्गा टेम होणु। पर जुनूनी मनखी तैं समै कमि नि होन्दी बल।

            मातृभाषा अभियान तैं इनु संगेर नि मिललू। सांग उठाने वाले हम सब हैं पर आप जैसा नहीं क्योंकि अपनी अडिग बात बोलुं तों हर इन्सान कहीं ना कहीं आत्ममुग्द होता है पर आपके चेहरे पर ये छव्या (झाई) मुझे तो कभी नजर नहीं आई । जितनी भारी और गहरी आवाज उतना धीर गंभीर चरित्र। किसी बात पर भी उतावलापन नहीं। शालीनता और धैर्य की प्रतिमूर्ति। आज जहां हमारी गढ़वाली भाषा ने अपना योग्य सृजक खोया वहीं आपके परिवार और आपके विभाग को आपके रुप में हुई क्षति की भरपाई मुष्किल है। भगवान आपके परिवार को इस महा दुःख सहने की शक्ति और आपको अपने दिव्य लोक में यथोंचित स्थान प्रदान करे।

            श्री हरीश भैजी से मिलने का मौका नहीं मिला क्योंकि पिछले साल से मिलना अभिषाप हो रखा हैं। साहित्य सेवियों का मिलन साहित्य संगोष्ठियों में ही होता है जो पिछले वर्ष से वेवनारों पर ही चल रहा है। और मैं ठैरा वेबनार रहित मनखी इस लिए एक आद विडयो काॅल के अलावा र्वच्वल मिलन भी नहीं हुआ।

            यह आंधी आप जैसे कतिपय स्वजनो को उड़ा ले गयी और आगे क्या होगा राम जाने। अल्प समय में जितने अनुभव आपसे मिले और आपको जान पाया उतनी बातें आलेख में लिखना संभव नहीं हो पा रहा है, क्येंकि बार बार गला भी रुंध रहा हैं और आँखें पसीज रही है। मैं अतिभावुक होना नहीं दर्शाना चहता हूँ क्योकि मेरा फिल्ड मुझे भावुकता की इजाजत नहीं देता है। खैर सैनिक होने के साथ मैं आम नागरिक भी हूँ इसलिए भावुक होना लजमी है। दिल से श्रधेय ममगांई जी की सदगी को सल्यूट करता हूँ। हर बात को इम्तीनान से सुनते थे और अधिकतर प्रतिउत्तर में सहमति ही जताते थे। सबके साथ सामंजस्य बैठाना आप से सिखने को मिला और मिला हर चीज वस्तु का सम्मान करना, धैर्य रखना।  

            धाद मातृभाषा अभियान के एडमिन श्री गिरीश पंत मृणाल जी के साथ अपना यथा संभव सहयोग जताते हुए श्री ममगांई जी के सृजन को एकत्रित कर पुष्तक रुप में लाने के लिए अपनी वचन बद्धता व्यक्त करता हूँ और धाद के अन्य साधकों से भी सहयोग की अपील करता हूँ। यह एक साहित्यकार के लिए सच्ची श्रृद्धांजली होगी और हम भाषा प्रेमियों का कर्तव्य । अपणु किंचक प्रयास से यीं श्रद्धान्जली स्मारिका कु कैर अफूं तैं तस्सली देणु कि वा देवआत्मा कखि ना कखि बटिन जरुर द्यखली अर आश्रीवाद द्येली। पैली श्रदेध छाँ अब प्रथम पुज्यनीय ह्वेग्यां किलै कि वा अब पितर बणग्यां।

आखिर मा गढ़वळि साहित्य का यीं सिपै तैं वूं कि द्वी रचना आखिर जात्रा अर प्राण (मरण विषै) से याद करि अपणी श्राद्धान्जली देन्दू।

 

@ बलबीर राणा अडिग

 

आखरी जात्रा

1.

जूनी जलूड़ी त आज तलक कैन नि खाई

सूना पलंग मा से ह्वा या बुगचा बण्युं रै उमर भर

एक दिन सब छोड़ी छाड़ि आखिरी जात्रा का

बाटा लग जाण

एक दिन तय च जब आखिरी संदेश जालु

भै. भयातए ओर. पोराए रिस्तादारए अर दगड़या. सगड़या होला कठ्ठा

तांतु लग जालु वूंकु भी जौं खाडकरों तैं जिंदा मा

द्वी छुईं भी गाड़णु कु बगत त बिल्कुल हराम

पर जिकुड़ी मा टोम करणा खुणि हत्यार पळ्यौणौ खूब छौ।

2.

अपरी ठसक अर ठंगट्याट लेकि मड़घाट आला कना कना

अर वख भी अपरी चपराट से बाज नि आला

मड़घाट मा द्वी तरों का मनखि ह्वे जांदन जरा हेरा

एक विशेषाधिकार युक्त जौंमु सांस कु अर जिकुड़ी की धकधक कु परमिट बाकी रंदु

हैका वु जु टुप्प सांग पर पोड़ि पोड़ि सब्युं कु तमासु देखदन

मिजाण हैंसदा भी होला गात से भैर हवा का रूप मा

अर खरोळदा होला जिन्दों का जिकुड़ी का भैर. भितर ।

3.

अडिंठा वु देखला कु नकन्याट करणु च अर कैकी निरक डबळाट च

वु ई भी देखला कि क्वी त बानु बणैकि वख बटि भी ठसकणा छन

कुछ कोणों मा गुणमुण गुणमुण चार पुश्तों की योजना बणाणा छन

बल हमुन अब तलक यु तीर मारयालि अर ऐथर हौर धमाकु करला

माथि मजिस्ट्रेट झणि क्या आदेश जारी ह्वा करणु अपरी कलम से।

4.

दगड़योंए पाणि पिलौण त ल्वोटा माए मटयाळा मा नि

वु सब्युं कु बुबा भी बुल्दु बल प्रेम का द्वी फूल

पाती भी वे खुण बिजयाँ छन

मड़घाट मा आखिरी जात्रा मा सब कुछ

देखणो कु मिलदु

नि मिलदि कुछ त वु च द्वि सच्चा आंसुओं का दगड़ ष् मौन विदाई ष्।

 

प्राण (मालिनी छंद मा)

कसम वसम खावाए चा नि खावा हमारी ।

हम त मर गयां रेए जान ह्वेगी तुमारी ।

सुरुक सुरुक बैरीए प्राण ली ग्ये चुरैकी ।

सरम वरम भी ख्वैए ह्वे अदानो भिखारी ।।

 

हरक फरक मायाए से कु होंदों कु चांदो ।

जख जख ठग चांदोए वो दिलों तैं मिसांदो ।

जनम मरण से भीए माथि प्रेमी कु बाटो ।

कतर कतर ह्वे जौए वो खुट्टी नी उठांदो ।।

 

रचना :  हरीश ममगांई

 

4 टिप्‍पणियां:

अंजना कण्डवाल 'नैना' ने कहा…

ममगाईं भैजी के यूँ अचानक चले जाने से स्तब्ध हूँ। मैं भी उनके निमित्त हर कार्य मे आप के साथ हूँ।

Manmohak Garhbhumi ने कहा…

मी भी सार लग्यूं छा कि कभी त भैजी दगड़ मुखाभेंट होली पणि हे विधाता यू क्या ह्वा सच त आणि नी च ।भैजी तुम हमरी जिकुड़ी क कुट्यार बैठ्यां छो एक विशेष सम्मान क साथ। याद कै कैकि गफ्फा नि घुटेंणु अर जिकुड़ी पर चीरा पुड़णा छिन भैजी। हमर प्रेरणास्रोत, उत्साहवर्धन करणवाळाहमरू मार्गदर्शन करण वाळ हे पवित्र आत्मा सत सत नमन।
🙏🙏😭😭😭😭😭😭

बलबीर सिंह राणा 'अडिग ' ने कहा…

प्रिय मनमोहक जी, हरीष भैजी के साथ भी कोई संस्मरण आपका तो जरूर मितें पोस्ट कैर दियाँ।

बेनामी ने कहा…

सहृदयी प्रेमी मनिख स्व, हरीश ममगाईं जी हमेशा हमरि यादों म ज्यून्दा राला, नमन हे प्राणी त्वेकु।।