ये झुर्रियां और गाल का पिचकापन्न
देख रहा हूँ जीवन की साँझ ढलती जा रही है।
पथरायी आँखे होंठों का बधिरपन
सवाल अनगिनित, तुझ से कर रही है।
माला के दानो में भजता रहा गिनता रहा
तेरे मूक को देख अब हिम्मत जबाब दे रही है।
अब कुछ आस जगी उसकी नींद खुल आलस अब भी है
आने वाले नव भरतवंशी के लिए आस जग रही है।
उग रहा एक सुरज भारत में
काले वालों की काली रात जा रही है।
होंठों पर जिसका भारत बंदन
बीणा के स्वर संग बंदेमातरम गा रही है।
इन्तजार है उस एक नयीं सुबह का
जिसे देख रहा हूँ मैं वह हँसते आ रही है।
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