मंगलवार, 9 जुलाई 2019

सरहद से अनहद


कर्म साधना बैठै यति को
सिद्धि का उत्साह नहीं
स्वीकारा है समिधा बनना
फिर होम की परवाह नहीं
गतिमान वह समर भूमि में
दिवा ज्ञान न निशा भान
उसके निष्काम जतन का
व्योम सिवाय गवाह नहीं ।

गिरी श्रृंगों का ठौर उसका
यायावर अज्ञातवासी है
गृहस्थी खेवनहार होकर
समाधि बैठ संन्यासी है
शमशीर थामें घात पर बैठा
राष्ट्र शांति का अजब दूत है
द्रुत प्रभंजन में पंख फैला
उड़ने का अभ्यासी हैं।

राहों में अवरोध नहीं कुछ
प्रस्तर मर्दन वह जवानी है
तारुण्य से लिखना स्वीकारा
अजेय भारत की कहानी है
उतरदायित्व जीवन अर्थ मान
गीत जनगण मन के गाता है
कारुण्य नहीं हृदय में संचित
दृग नहीं करुणा का पानी है।

जान हथेली ले चले जो
उन्हें मृत्यु का भय कैसे हो
प्राणो के इति तक प्रण प्रवीण
फिर प्रवण का संय कैसे हो
समग्र समर्पण समर्थवान
सम्पूर्ण लक्ष्य साधने तक
सरहद से अनहद जो गूंजे
फिर मातृभूमि अपक्षय कैसे हो।

रचना :- बलबीर राणा 'अडिग'

2 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

सुंदर रचना.... आपकी लेखनी कि यही ख़ास बात है कि आप कि रचना बाँध लेती है

बलबीर सिंह राणा 'अडिग ' ने कहा…

बहुत अंतराल बाद आपकी टिप्णी देख पाया आदरणीय इसके लिए क्षमा चाहता हूँ हृदयतल से आपका आभार मेरे शब्दों को सबल देने का