कर्म साधना बैठै यति को
सिद्धि का उत्साह नहीं
स्वीकारा है समिधा बनना
फिर होम की परवाह नहीं
गतिमान वह समर भूमि में
न दिवा ज्ञान न निशा भान
उसके निष्काम जतन का
व्योम सिवाय गवाह नहीं ।
गिरी श्रृंगों का ठौर उसका
यायावर अज्ञातवासी है
गृहस्थी खेवनहार होकर
समाधि बैठ संन्यासी है
शमशीर थामें घात पर बैठा
राष्ट्र शांति का अजब दूत है
द्रुत प्रभंजन में पंख फैला
उड़ने का अभ्यासी हैं।
राहों में अवरोध नहीं कुछ
प्रस्तर मर्दन वह जवानी है
तारुण्य से लिखना स्वीकारा
अजेय भारत की कहानी है
उतरदायित्व जीवन अर्थ मान
गीत जनगण मन के गाता है
कारुण्य नहीं हृदय में संचित
दृग नहीं करुणा का पानी है।
जान हथेली ले चले जो
उन्हें मृत्यु का भय कैसे हो
प्राणो के इति तक प्रण प्रवीण
फिर प्रवण का संशय कैसे हो
समग्र समर्पण समर्थवान
सम्पूर्ण लक्ष्य साधने तक
सरहद से अनहद जो गूंजे
फिर मातृभूमि अपक्षय कैसे हो।
2 टिप्पणियां:
सुंदर रचना.... आपकी लेखनी कि यही ख़ास बात है कि आप कि रचना बाँध लेती है
बहुत अंतराल बाद आपकी टिप्णी देख पाया आदरणीय इसके लिए क्षमा चाहता हूँ हृदयतल से आपका आभार मेरे शब्दों को सबल देने का
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