काल की चाल तीव्र तीखी
तेरी मुश्कान पड़ती फीकी
राज का राज भी खुल बिखर महल क्षण में ढह जाता है
यह मैं नहीं वह काल कहता है।
मैं हूँ किंचक जातक केवल
धरती का एक जीव निर्बल
एक तारे के टूटने पर असंख्य तारों से भरा गगन भी रोता है
हा हा कार बहार तू क्यों भीतर सोता है।
मैं अपने दुःख पर दुखी मौन
दर्द सबको देने वाला क्यों तू मौन
युग युग से देख रहा तू तांडव, ऐसे क्यों धरती को नचाता है
कैसे चीख पुकार तु सहता है।
बुझती निशा न्योता सहज कबूल
तेरा कैसा चलन कैसा उसूल
उषा की पुकार पर, खिल खिला दौड़ा चला आता है
दिनकर बन जीवन तपाता है।
पर्सब पीड़ा में धैर्य का सागर
तपड़ रहा नित हो रहा जर जर
कैसे उन्मुक्त हो चली बिमुख मानवता की हवा संग बहता है
ऐसा गुण तुझ में कहाँ से आता है।
घुमड़-घुमड़ चिंतन का बादल
क्यों मन घुमिल करता पागल
संसार चला है चलता रहेगा अडिग तेरा प्रश्न थक जाता है
यह मैं नहीं वह काल कहता है।
रचना:- बलबीर राणा 'अडिग'
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