क्यों मिथ्या भ्रम पाले मित्र
जीवन प्रेम विनोद है
राहें खुली बंद नही
ईश्वर अल्ला भगवान् के बीच का द्वन्द नहीं
अंदर झांको देखो जरा
हर घडी इन्तजार में बैठा है वह
जिसे तलासते फिरते हो
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे में
एक ही हाड मांस के पुतले को
कितना अलग देखा तुम्हारी आँखों ने
कब से उसी लाल खून को
काला समझ
बहाते आये
क्या कसूर है उन पंच तत्वों का
उसने एक मूर्ति गड़ी
धर्म जाति की किताब
उसने कभी नहीं पढ़ी
सुनो मुझ अदृश्य प्रकाश की आवाज
जो तुम्हारी आँखों को राहें दिखा रहा
कह रहा हूँ चिल्लाकर
कि!
मैं तुममें से किसी का भी नहीं
मैंने तुम्हें
प्रकृति का सुन्दर विहंगम रूप दिखाया
जो लताओं घटाओं
जीव जीवटताओं को
अपनी गोद में पालती है
और प्यार मुहब्बत का सन्देश देती है
लेकिन !
तुम उसके नियम को तोड़ते चलते गए
खुद के लिए नफरत फैलाते गए
प्रकृति मेरा आनंद है
जिसका तुमने गाला घोंट मार दिया
मैं दुःखी हूँ
तुम फिर
कैसे सुखी रह सकते हो।
@ बलबीर राणा "अडिग"
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