सुख आनंद में जो जाने पहचाने निकले,
दुःख में पता नहीं क्यों अनजाने निकले।
दुःख में पता नहीं क्यों अनजाने निकले।
बजाते थे जो खासम ख़ास होने का ढोल,
उन्हीं के ढोलों के पुड़खे फटे पुराने निकले।
दोंळे पकड़ स्यूँ पैटाता रहा जिनको कलतक ,
वही जुतायी सीखने पर आज मारने निकले।
ना आने का पत्थर रख रहा था जिस माटी में,
उसी माटी में मेरे पुरखों के खजाने निकले।
मिट्टी बोली ठीक है जी लगा बैठा और कहीं तो क्या?
लेकिन ! पासणी* पर पहला कोर देने वाले क्यों बीराणे निकले?
ये गाँव-गुठयार डांडे-मरुड़े सब उसी आनंद में हैं,
इनका क्या? तुम खुद के लिए अनजाने निकले।
कटुगी* देने का ढिंढोरा जो पीटते थे अडिग,
उन्हीं के उबरे मीठे जड़* के ठिकाने निकले।
*पासणी - बच्चे को पहली बार खाना चखाने का दिन
*कटुगी - ज्वर में दी जाने वाली वनौषधी जड़
*मीठे की जड़ - कटुगी के जैसी वनौषधी जो चोट या अन्य दर्द में काम अति है पर खाने पर जहर होता है।
©® बलबीर सिंह राणा 'अडिग'
ग्वाड़ मटई बैरासकुण्ड चमोली
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