रविवार, 13 अक्टूबर 2013

दोहे : विजय दशमी




जब स्व भाव की भक्ति हो, तब मन मंदिर निर्मल होय
भावनाओं से दूजी और कोई, शक्ति न किसी मंदिर में होय।।

श्रीराम तो माध्यम ठहरे, कर्म साधना ही सिद्धी कमाय  
वाह्य सूची और सफ़ेद पोश से, बुद्धी शुद्धी कभी न पाय।।

सच परताप के पुरुषार्थ को, नहीं चाहिए आडम्बर का अर्पण।
उजले मन के तिल  गुड से भी दिखे,  प्रभु कृपा का दर्पण।।

कागजी रावण के दहन से, दहन न मन रावण का होय।
अहम् रुपी रावण तभी जले, जब, कर्मो में राम होय।।

विजयादशमी का पर्व हर वर्ष, अपनाने को कहे सत्य पंथ।
सतोपंथ की अडिग यात्रा का, कभी न होगा धरा से अंत।।

दिखा गए श्रीराम हमें, सत्य विजय मार्ग का परमार्थ।
फिर तू क्यों संशय में अडिग, समझ ले जीवन का अर्थ।।

    १३ अक्तूबर २०१३
...बलबीर राणा “अडिग”
© सर्वाध सुक्षित  

कोई टिप्पणी नहीं: