जब स्व भाव की भक्ति हो, तब
मन मंदिर निर्मल होय।
भावनाओं से दूजी और कोई,
शक्ति न किसी मंदिर में होय।।
श्रीराम तो माध्यम ठहरे, कर्म
साधना ही सिद्धी कमाय।
वाह्य सूची और सफ़ेद पोश से,
बुद्धी शुद्धी कभी न पाय।।
सच परताप के पुरुषार्थ
को, नहीं चाहिए आडम्बर का अर्पण।
उजले
मन के तिल गुड से भी दिखे, प्रभु कृपा का दर्पण।।
कागजी
रावण के दहन से, दहन न मन रावण का होय।
अहम्
रुपी रावण तभी जले, जब, कर्मो में राम होय।।
विजयादशमी
का पर्व हर वर्ष, अपनाने को कहे सत्य पंथ।
सतोपंथ
की अडिग यात्रा का, कभी न होगा धरा से अंत।।
दिखा
गए श्रीराम हमें, सत्य विजय मार्ग का परमार्थ।
फिर
तू क्यों संशय में अडिग, समझ ले जीवन का अर्थ।।
१३ अक्तूबर
२०१३
...बलबीर
राणा “अडिग”
©
सर्वाध सुक्षित
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