मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

ब्वे की धै



कत्गा बस्ख्याल पाखों रुवेनी,

कत्गा ह्यूंद उबरा कुकडेनी,

कबैर ज्वानी गे, कब बुडडया ह्वेनी,

मी अभागी का दिन एकुलांसी कटैनी



छव्टा छनी बुबा न ये कूड़ी बिवेनी,

अनाथी मा ये रुखड़ा घोर मा जौ जमेनी,

जन बालडी लौण कु बगत आयी,

उनी मेरी पुंगडी, पलायन का डांडु न कुर्चेनी   

मी अभागी का दिन एकुलांसी कटैनी



ज्वानि का बसंत खैरी मा,

गरीबी का खतडों मा,

बिवायीं खूटियों कांडा सैनी

दुःख काटी सुख की किताब लिखनी

जन नातियों दगडी, किताब बाचण कु बगत आयी

उनी मेरी किताब, आधुकनिकता का खुटू पिसीनी 

मी अभागी का दिन एकुलांसी कटैनी।



ये ब्वे की धैर सुणी ल्यावा,

कन तुमल अपनी च, फिर भी बिंग्यावा,

अब कण के बचेली यु संस्कृति,

कण के ज्युन्दा यूँ संस्कार राला,

चौमासी जोनु जन कभी घोर दिखी भी जांदा,

गंवारों की बते त्रिस्कार न करा,

नि जाण क्या होलू हे गढ़ भूमि तेरु

हमुल त अपना बार का गारा पिसेनी,

मी अभागी का दिन एकुलांसी कटैनी।



अरे ! बुबा इत्गा त मी जणदू,

प्रकृति कु स्वभाव बदलाव होंदु,

इत्गा भी न बदला कि???

अपणी पच्छ्याण मुश्किल ह्वे जावो !

बदलाव का फेर मा एक युग कु अंत करे जावो,

फिर नि रेनी तुम उत्तराखंडी, नी ह्वेनी हिन्दुस्तानी,

मी अभागी का दिन एकुलांसी कटैनी।





अब यूँ बुडडया अंखियों मा आँसू भी नि रैनी,

जों मा रूण छै, वोन मेरी तरफ आँखा बुजीनी,

जे एकुलांस का दगडी संघर्ष करी,

जिंदगी कु घोल पोथुलों भोरी,

पोथुला पंछी बणी फुर-फुर उडेनी,

मी अभागी का दिन एकुलांसी कटैनी।





२७ जुलाई २०१३

...बलबीर राणा “अडिग”

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