शुक्रवार, 27 जून 2014

कुर्सी प्रधान की


कुर्सी प्रधान की तो मिल गयी
कार्यों को कितना निभाएगा
कहीं भूक से निर्लज इसे तू भी बेच कर तो नहीं खायेगा
वैसे कुर्सी भूक नहीं मगर दोनों में कोई बैर नहीं
कहीं भूक बेताब हुयी तो कुर्सी की खैर नहीं।

----- राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर जी की आजादी से सभार समतुल्य सामयिक परिवर्तन
@ बलबीर राणा "अडिग"

गुरुवार, 26 जून 2014

Gg

देश के विशाल आकार और विविधता, विकसनशील तथा संप्रभुता संपन्न धर्म-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा, तथा एक भूतपूर्व औपनिवेशिक राष्ट्र के रूप में इसके इतिहास के परिणामस्वरूप भारत में मानवाधिकारों की परिस्थिति एक प्रकार से जटिल हो गई है. भारत का संविधान मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिसमें धर्म की स्वतंत्रता भी अंतर्भूक्त है. संविधान की धाराओं में बोलने की आजादी के साथ-साथ कार्यपालिका और न्यायपालिका का विभाजन तथा देश के अन्दर एवं बाहर आने-जाने की भी आजादी दी गई है. यह अक्सर मान लिया जाता है, विशेषकर मानवाधिकार दलों और कार्यकर्ताओं के द्वारा कि दलित अथवा अछूत जाति के सदस्य पीड़ित हुए हैं एवं लगातार पर्याप्त भेदभाव झेलते रहे हैं. हालांकि मानवाधिकार की समस्याएं भारत में मौजूद हैं, फिर भी इस देश को दक्षिण एशिया के दूसरे देशों की तरह आमतौर पर मानवाधिकारों को लेकर चिंता का विषय नहीं माना जाता है.[1] इन विचारों के आधार पर, फ्रीडम हाउस द्वारा फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2006 को दिए गए रिपोर्ट में भारत को राजनीतिक अधिकारों के लिए दर्जा 2, एवं नागरिक अधिकारों के लिए दर्जा 3 दिया गया है, जिससे इसने स्वाधीन की संभतः उच्चतम दर्जा (रेटिंग) अर्जित की है.[2] भारत में मानवाधिकारों से संबंधित घटनाओं के कालक्रमसंपादित करें 1829 - पति की मृत्यु के बाद रुढ़िवादी हिन्दू दाह संस्कार के समय उसकी विधवा के आत्म-दाह की चली आ रही सती-प्रथा को राममोहन राय के ब्रह्मों समाज जैसे हिन्दू सुधारवादी आंदोलनों के वर्षों प्रचार के पश्चाद गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक ने औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया. 1929 - बाल-विवाह निषेध अधिनियम में 14 साल से कम उम्र के नाबालिकों के विवाह पर निषेद्याज्ञा पारित कर दी गई. 1947 - भारत ने ब्रिटिश राज से राजनीतिक आजादी हासिल की. 1950 - भारत के संविधान ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के साथ संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की. संविधान के खण्ड 3 में उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय मौलिक अधिकारों का विधेयक अन्तर्भुक्त है. यह शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व से पूर्ववर्ती वंचित वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान भी करता है. 1952 - आपराधिक जनजाति अधिनियम को पूर्ववर्ती "आपराधिक जनजातियों को "अनधिसूचित" के रूप में सरकार द्वारा वर्गीकृत किया गया तथा आभ्यासिक अपराधियों का अधिनियम (1952) पारित हुआ. 1955 - हिन्दुओं से संबंधित परिवार के कानून में सुधार ने हिन्दू महिलाओं को अधिक अधिकार प्रदान किए. 1958 - सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम, 1958-[3] 1973 - भारत का उच्चतम न्यायालय केशवानन्द भारती के मामले में यह कानून लागू करता है कि संविधान की मौलिक संरचना (कई मौलिक अधिकारों सहित संवैधानिक संशोधन के द्वारा अपरिवर्तनीय है. 1975-77- भारत में आपात काल की स्थिति-अधिकारों के व्यापक उल्लंघन की घटनाएं घटीं. 1978 - मेनका गांधी बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कानून लागू किया कि आपात-स्थिति में भी अनुच्छेद 21 के तहत जीवन (जीने) के अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकता. 1978-जम्मू और कश्मीर जन सुरक्षा अधिनियम, 1978[4][5] [[1984 - ऑपरेशन ब्लू स्टार और उसके तत्काल बाद 1984 के सिख विरोधी दंगे 1985-6 - शाहबानो मामला जिसमें उच्चता न्यायालय ने तलाक-शुदा मुस्लिम महिला के अधिकार को मान्यता प्रदान की जिसने मौलानाओं में विरोध की चिंगारी भड़का दी. उच्चतम न्यायालय के फैसले को अमान्य करार करने के लिए राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम महिमा (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित किया. 1989 - अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 पारित किया गया . 1989-वर्तमान- कश्मीरी बगावत ने कश्मीरी पंडितों का नस्ली तौर पर सफाया, हिन्दू मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर देना, हिन्दुओं और सिखों की हत्या तथा विदेशी पर्यटकों और सरकारी कार्यकर्ताओं का अपहरण देखा. 1992 - संविधानिक संशोधन ने स्थानीय स्व-शासन (पंचायती राज) की स्थापना तीसरे तले (दर्जे) के शासन के ग्रामीण स्तर पर की गई जिसमें महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीट आरक्षित की गई. साथ ही साथ अनुसूचित जातियों के लिए प्रावधान किए गए. 1992 - हिन्दू-जनसमूह द्वारा बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर दिया गया, परिणामस्वरूप देश भर में दंगे हुए. 1993 - मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई. 2001 - उच्चतम न्यायालय ने भोजन का अधिकार लागू करने के लिए व्यापक आदेश जारी किए.[6] 2002 - गुजरात में हिंसा, मुख्य रूप से मुस्लिम अल्पसंख्यक को लक्ष्य कर, कई लोगों की जाने गईं. 2005 - एक सशक्त सूचना का अधिकार अधिनियम पारित हुआ ताकि सार्वजनिक अधिकारियों के अधिकार क्षेत्र में संघटित सूचना तक नागरिक की पहुंच हो सके.[7] 2005 - राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एनआरईजीए) रोजगार की सार्वभौमिक गारंटी प्रदान करता है. 2006 - उच्चतम न्यायालय भारतीय पुलिस के अपयार्प्त मानवाधिकारों के प्रतिक्रिया स्वरूप पुलिस सुधार के आदेश जारी किए.[8] 2009 - दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 की घोषणा की जिसने अनिर्दिष्ट "अप्राकृतिक" यौनाचरणों के सिलसिले को ही गैरक़ानूनी करार कर दिया, लेकिन जब यह व्यक्तिगत तौर पर दो लोगों के बीच सहमति के साथ समलैंगिक यौनाचरण के मामले में लागू किया गया तो अंसवैद्यानिक हो गया, तथा भारत में इसने समलैंगिक संपर्क को प्रभावी तरीके से अलग-अलग भेद-भाव कर देखना शुरू किया.[9] भारत में समलैंगिकता भी देखें:

सोमवार, 23 जून 2014

शरीर के पट

शरीर के पट
व्योम पर पग टिकाने को आतुर मन
पर वहां कोई ठोर ही नहीं
पूरी जगह तारों ने हड़प ली
जो अंतस के अंध में टिमटिमाते हैं
पर उनमें रोशनी नहीं
अडिग है मन का भ्राता जिगर
जो मनोरम धरती को छोड़ता ही नहीं।
@ बलबीर राणा "अडिग"

मंगलवार, 10 जून 2014

तन्हायी की राह

उन तन्हा राहों में हम सफ़र नहीं मिला जिधर भी गया 
जिन्दगी के रस्तों को राहगीर की  तरह छोड़ता गया।

दुनियां को क्या देखता वह अपने को संवारती रही
मेरा सपनो का महल शीशे कि तरह टूटता गया।

उलझनों की कड़ियाँ  बिखरी पड़ी  थी उन राहों में 
सुलझाने की कोशिस में खुद ही उलझता गया।

चमन की बहारों से गुजरने को अब जी नहीं चाहता
यौवन में तन्हायी की राह पकड़ी थी चलता गया।

ना जाने कब होगा गंतब्य पूरा इस बीरान रस्ते का
चलते चलते जीवन का चौथाई पखवाड़ा गुजर गया।


ये क्या दिखता




ये क्या दीखता
हर दिन एक तमाशा दिखता
कोयी पत्थर फेंकता कोयी खाता दिखता
शर्म लाज चौराहे पे रखकर
मानवता पर कालिख पोतता दिखता

ये क्या दीखता
कोयी तिल तिल को तरसता दिखता
कोई ठूंस ठूंस के भरता दिखता
कोयी संगीत सभाओं में मस्त है
कोयी पूस की रात ठंड में मरता दिखता

ये क्या दिखता
हर कोयी बदलाव चलन चलाने की बात करता दिखता
खुद को बदले की कभी नहीं सोचता
एक नयां बोज जनता सर रखके
ठीकरा दूसरे सर फोड़ता दिखता

मेरे भय्या मेरी नजर में खोट है या
खोट टीवी के परदे पे दिखता
क्या करें अब गंगा भी मैली हो गयी
फिर अपना दामन कैसे साफ दिखता

१२ फ़रवरी २०१४ 
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शनिवार, 7 जून 2014

अक्षरों का जाल

अंतःकरण के तीन बिम्ब
मन, चंचल अस्थिर
बहिर्मुख है
बुद्धि गंभीर
अंतर्मुखी
और हृदय भावुक
सब,
अपने-अपने प्रभाव से
अक्षरों को गुंथ रहे
ताकि
जीवन एक सुन्दर कविता बने सके
लेकिन!
देशकाल की गिरगिटी चाल
तीनो को भ्रमित कर
पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर
लगवा रहा
जीवन ना कविता बन पा रही
ना ही किताब
बस बन रहा तो
केवल!
अक्षरों का जाल ।


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....बलबीर राणा “अडिग”

गुरुवार, 5 जून 2014

माँ बसुन्धरा



माँ बसुन्धरा को नमन करें
दो फूल श्रधा के अर्पण करें
न होने दें क्षरण माँ का
सब मिल कर यह प्रण करें।

कितना सुन्दर धरती माँ का आँचल
पल रहा इसमें जग सारा,
अपने मद के लिए क्यों तू मानव
फिरता मारा-मारा
संवार नहीं सकते इस आँचल को तो
विध्वंस भी तो ना करें,
माँ बसुन्धरा को नमन करें।

हिमगिरी शृंखलाओं से निरंतर
बहती निर्मल जल धारा,
सींच रहा इससे जड़ जीवन
उगता नित नयें अंकुरों का संसार प्यारा,
यूँ ही सोम्यता बनी रहे
सब मिल कर जतन करें,
माँ बसुन्धरा को नमन करें।

जल-जंगल पादप लताएँ
जगाये हैं जीवन ज्योति हमारी,
आज काट-काट कर खंडित हो रहे
एक दिन पड़ेगी जीवन पर भारी,
प्रदुषण के बारूदों से
प्रकृति प्रवृति को परवर्तित ना करें,
माँ बसुन्धरा को नमन करें।

©
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बलबीर राणा "अडिग"