शनिवार, 25 जून 2016

जथा नाम तथो गुणों

जथा नाम तथो गुण
   नाम से भीष्म और कर्मो से भी भीष्म, हमेशा मार्गदर्शक और सारथी बने रहते हैं लेकिन मुकुट की कभी अभिलाषा नहीं रही, जी बात कर रहा हूँ गढ़ साहित्य के प्रखर लेखक, विश्लेषक व् समालोचक श्री भीष्म कुकरेती जी की, श्रद्धा से शीष खुद व् खुद झुकता है, जब कलयुग में बिचरते मनीषियों के साक्षात् दर्शन होते हैं।
      जून 2016 में निजी काम से मुम्बई में होने के कारण मन में उत्कण्ठा थी कि यहाँ आके जरूर गुरूजी भीष्म कुकरेती जी के दर्शन करूँ और समय ने इजाजत दे दी, गुरूजी से उनके आवास का गंतव्य पूछ कर पहुँच गया, 17 गढ़वाल दर्शन जोगेश्वरी मुम्बई, दरवाजे की घंटी बजाने के एक सेकण्ड में अंदर से आवाज आई आओ राणा जी, सामने साधारण सफ़ेद दाढ़ी वाले व्यक्ति ने दरवाजा खोला, कुछ संशय हुआ, चरण वंदन किये, गुरूजी आप हाँ राणा जी, वास्तव में 6 वर्ष पहले से शोसियाल मिडिया से गुरूजी का आश्रीवाद मिलता रहा लेकिन उनकी तस्वीर कभी देखी नहीं थी, इतना तो पता था कि गुरूजी जीवन दर्शन से छपोडे (मजे) व्यक्ति हैं, उनके सामने कुछ नर्वस कुछ खुसी और एक आत्मिक सुख की अनुभूति हो रही थी, वो इस लिए नहीं कि मुम्बई जैसे महानगर में वे रहते हैं इस लिए कि माया नगरी में जिजीविषा की पूर्ति के साथ कैसे एक व्यक्ति अपनी जड़ों से इतनी गहराई से जुड़ा है, क्योकि इतिहास गवाह है जब कोई व्यक्ति पलायन करता है तो इच्छित रूप से उस संस्कृति समाज का हिस्सा बनता है जहाँ वह आया है फिर जिजीविषा वापस मुड़ने का मौका नहीं देती, लेकिन बिरले लोग ही होते हैं जो दुनियां की सारी वैचारिकता के बाद भी खुद से खुद बने रहते हैं,
मित्रो वैसे हमारे उत्तराखण्डी साहित्य जानकारों के लिए श्री कुकरेती जी नए नाम नहीं हैं फिर भी जो लोग साहित्य से कम रु व् रु हैं उन्हें बता दूँ कि श्रद्धेय कुकरेती जी अपने आप में उत्तराखंड के साहित्य इनसाइक्लोपीडिया हैं, आज उनके पास उनकी साधना का आपार भण्डार है लेकिन दुनियां की दृष्टि में कम ही है क्योंकि गुरूजी ने उनको कम ही पब्लिश किया है, गुरूजी कहते हैं राणा जी क्या जरुरत है सब रखा है जिसको अभिलाषा होगी ढूंढ लेगा, आज इंटरनेट के जमाने उत्तराखंडी साहित्य के प्रचार प्रसार और व्यख्या में श्री गुरूजी के आगे कोई नहीं है उनके द्वारा 19वीं शताब्दी के उतराध से लेकर आज तक सभी उत्तराखंडी साहित्यकारों की समीक्षा की गयी है,  और हम जैसे नव साहित्यकारों के लिए हमेशा बालजीवन घुटी बने हैं, गुरूजी ने ही पहली बार तमाम नव गढ़ कवियों  के सृजन को अंग्वाल् कविता संग्रह में समेटा।
      कभी कभी अचरज होता है कि यह व्यक्ति कब लिखता है इतना साथ ही उस विश्लेषक मष्तिष्क की परख पर,  हाँ एक बात जरूर है कहते हैं गॉड गिप्ट तो गुरूजी भी इसे भगवान् की देन मानते हैं कि राणा जी उसी परम ब्रह्म का आशीष है जो इतनी शक्ति दे रहा हैं। गुरूजी की संप्रीति सयुंक्त गढ़वाली कविता संग्रह अंग्वाल्, समसामयकी पर तमाम व्यंग, गढ़वाली  भाषा का हिंदी इंग्लिश कोष, स्वरचित नाटक, इंग्लिश नाटकों का गढ़वाली रूपांतरण, तमाम गढ़ कवियों  और साहित्यकारों की कृतियों की इंग्लिश हिंदी समीक्षा, व् इंटरनेट के बृहद संसार में उत्तराखंडी लोक साहित्य संस्कृति का प्रसार, श्रध्येय कुकरेती जी का अथक प्रयास ही है जो आज देश विदेश में रह रहे सभी उत्तराखंडी इंटरनेट के माध्यम से अपने इतिहास और संस्कृति से रु व् रु हो रहे हैं।
     गुरूजी के ना चाहते हुए भी गुरूजी का अप्रितम फोटो खींच लिया तीन बिसी (60)  से ऊपर चले गए, घर में सुखी परिवार का साथ है, और है गुरूजी का अपनी माटी से जुड़ाव व् संवेदनाये। जुग जुग जियो गुरूजी।
    अंत में गुरूजी के विषय में इतना ही कहना चाहूँगा कि गुरूजी आप नीव की ईंट है जो कभी दिखती नहीं है, बसरते उस नीव की ईंट में खड़े भवन पर लगी कंगूरे की ईंटें चमकती रहती हैं।
@  बलबीर राणा 'अडिग'
अडिग शब्दों के पहरे से
www.balbirrana.blogspot.in