बुधवार, 8 नवंबर 2017

स्मरण उस सादगी का


       रंगकर्मी, साहित्यकार, कार्टूनिस एवम कविता पोस्टर विधा के महान चित्रकार,  श्रद्धेय श्री बी मोहन नेगी जी बसर्ते आज बैकुंठवासी हो गए लेकिन आपके कर्म आपको इस धरती पर जन्मान्तर को अमर कर गए। श्रद्धा से  शीष झुकता है उस तपस्वी के लिए जिसने सम्पूर्ण जीवन अपनी चित्र साधना के माध्यम से लोक समझ के व्यक्तियों को नयीं ऊर्जा से लबरेज रखा, आध्यात्मिक शुचिता और व्यसनों से मुक्त, भारतीय ऋषि परम्परा का निर्वहन करते हुए एक अनोखा संयमित जीवन जीने वाला चित्रकार जो कभी भी चर्चा में रहने को लालायित न रहा और न रहना चाहा। उनकी कला साधना जीवन की उस  गहराई को नापती हुयी जड़ तक जाती जहाँ से वास्तविक जीवन को पोषण मिलता है। न्यौछावर क्या होता है, न्यौछावर की असली परिभाषा जाननी हो तो श्रधेय बी मोहन नेगी जी कला साधना की धरोहर सहज चंद मिनट में समझा देती है।  बिना राजनैतिक पक्षधरता के, चाटुकारिता से दूर अपनी कुटिया में जीवन सार संचित करता एक महान कलाकार बिना स्वस्वार्थ के कर्म पथ पर जीवन पर्यन्त अडिग खड़ा रहा। लाभ-हानि से बिरक्त सत्ता के गलियारों में अपनी पहचान अंकित करने या सत्ताधीशों को रिझाने की छटपटाहट सोयी रही जगी रही तो वो चेतना जो मात्र कर्म जानती है फल नहीं। छोटे पहाड़ी कस्बों में कला साधना में डूबा कलावंत आज सेकड़ों कविता पोस्टर, रेखाचित्र, कोलाज, मिनिएचर्स, कार्टून आदि धरोहर धरती पर आने वाली पीढ़ी के लिये सहेज गए हैं। श्रधेय नेगी जी की सृजनता ने उत्तराखंड के साथ दुनीयां के कवियों की कविताओं को चित्र कलेवर में अमरत्व दिया है, श्रधेय नेगी जी सदैव अपनी चित्रकला और बोधपरक कबिताओं से सोई व्यवस्था और समाज जागृत करते रहे। निरन्तर सक्रीय और लगातार, लगातार दिन रात लगन में मगन भगवान् ने कौन सी देह बनायी थी कि बिराम उनसे हमेशा डरता रहा। श्रधेय बी मोहन नेगी जी को लगभग युवावस्था में आने के बाद ही जाना, 2013 से सोशियल मीडिया के माध्यम से भैजी से इनडारेक्ट संवाद बना रहा लेकिन व्यग्तिगत फोन पर 2014 से। सैन्य जीवन के अभिर्भाव से उनके साक्षात सम दर्शन नहीं कर पाया और हर छुट्टी में लालसा रहती थी कि अबकी बार जरूर पौड़ी जाऊंगा पर संभव नहीं हो सका किसी को कहां आभास होता कि चलता फिरता आदमी सडन अलविदा कह देंगा। श्रधेय नेगी जी की चित्रकला का अवलोकन साहित्य क्षेत्र में आने के बाद ज्यादा रहा उनके हर चित्र और पोस्टरों में जीवंत जीवन आयाम होता है इसे कला पारखी अच्छी तरह समझते हैं, एक दिन भी साधना को बिराम देना उन्हें सायद अखरता होगा इस लिए एक नार्मल निमोनियाँ उन्हें न लीलता। इतने लम्बे समय तक बिना किसी रिटर्न या दाम के और अपने कला साहित्य योगदान के मुकाबले किसी बड़े सम्मान से ताज्य रहकर भी निरन्तर साधना रत रहना बिरले ही लोगों के बस का होता है। बिना फायदे के पूरा जीवन किसी काम में खपा देना गृहस्थ आदमी के बस का कम ही होता है लेकिन उन्होंने गृहस्थ की अच्छी पारी खेलने के साथ कला की पिच को बखूबी सम्भाला और अभी सिर्फ प्रथम पारी का खेल मानते थे कि मृत्यु लोक का दाना पानी खत्म हो गया।
            2014 की बात है मेरी और भुला महेंद्र राणा जी की साजी कबिता पोथी खुदेड डंडयाली जब श्रधेय बी मोहन नेगी जी के पास पहुंची तो भैजी का घर में फोन आया क्योंकि घर का ही स्थायी  संपर्क नम्बर हमने किताब में दिया था, हेलो!!!! कु घोर ह्वलु  बड़ा राणा या छवटा राणा कु? घोरवाली फोन रिसीब करि जी नमस्ते, जी मैंन पचछ्याणी नि कै बड़ा छवटे बात कना क्योंकि मैं अकेला भाई हूँ इस लिए श्रीमती को संसय हुआ। आप बलबीर राणा जिक का घोर बटिन ब्वना भुली?  मैं बी मोहन नेगी बुनु पोड़ी बटिन, राणा जीओं की किताब मिली मिते, सायद श्रीमती जी का परिचय न था भैजी से उसने जी भैजी में ही जवाब दिया, कख च राणा जी? वुं ड्यूटी पर छ, कख ह्वली ड्यूटी अज्कयाल? जी कश्मीर मा छ, अच्छा भुला तेँ मेरु आश्रीवाद और किताब की शुभकामनाएं दये दियां। दूसरे दिन जब श्रीमती जी ने बताया की कल पौड़ी से बी मोहन नेगी जी फोन आया था और बधाई दी, भली मिठ्ठी भौंण छी वों की। मन गद गद हो गया और दूर बॉर्डर पर एक सहज व्यक्तित्व की मूर्ति का चित्र अपने सामने महसूस करने लगा, यह मेरी कलम की चाटुकारिता नहीं बल्कि अपने संसारिक समझ के विपरीत एक अहसास था क्योंकि भैजी मेरी दृष्ठि में इससे पहले रसुखी व्यक्ति थे उनकी सहजता का अनुमान नहीं था इसलिए भी कि मैंने उन्हें किताब नहीं भेजी थी, जब भेजी ही नहीं तो फोन आने का सवाल ही नहीं लगता था, लेकिन बाद में पता चला कि महेंद्र भाई ने भैजी थी क्योंकि उनकी मुखा भेंट पहले भैजी से हुई थी। उसी दिन घर से भैजी का फोन नम्बर लिया और तुरन्त उन्हें कृतज्ञ मन से फोन किया, फोन पर उनकी मृदुलता ने उनकी आत्मीय सहजता की छवि को मेरे मानस पटल पर अंकित किया, तब से लगभग बराबर फेसबुक पर उनकी यात्रा किसी फोटो और पोस्टर पोस्ट विशेष पर फोन से भी बात करता रहता था, सितंबर 2017 में जब भैजी के बीमार होने की खबर मिली, फोन से हाल जाना तो  बोले भुला ठिक ही छों चिंता न करा, जरा यु खांसी नि जाणि, अब काफी सुधार च, खाणु बी खाणु छों, भुला आप बड्या लिखद कबिता जरा छवटी लिखण, क्या पता था भैजी की वह अंतिम सीख और आवज होगी और इतने जल्दी मुझे इस बॉर्डर पर मेरे आई कन की अनंत दिव्य यात्रा पर जाने की खबर मिलेगी। और मेरी आने वाली कबिता भैजी के कुची से वंचित हो जाएगी। नमन ऐ महान साधक, कोटिस श्रद्धा सुमन, भगवान आपको अपने चरणों में चिर शांति दे।

वे दिन


वही भूमी वही धरती
वही नक्श नजारे हैं
नहीं रहे तो,  वे दिन
बचपन में हमने गुजारे हैं।

गांव मोहल्ला चौक चौबारे
खेत खलियान हमारा है
न रहा वो अल्हड़पन
जिसने सबको लुभाया हैं।

चाचा ताया भाई बहन
रिश्ते वे अब भी सब सारे हैं
नहीं रहा वो अपनापन
हमारे बचपन ने निभाये हैं।

स्कूल कालेज पाठशाला
खेल मैदान सब न्यारे हैं
न रहे वे खुशनुमा पल
जो हमारे बचपन ने बिताए हैं।

कुछ परिवेश बदला, बदली प्रवृति
कुछ बदलते समय का इशारा है
कोई लौटा दे फिर उस भोलेपन को
जिसने सबको भरमाया हैं।

*@ बलबीर राणा 'अडिग'*