रविवार, 30 सितंबर 2012

खुशियों के कुछ पलों के लिए




खुशियों के कुछ पलों के लिए 
घोंसले में चहकता है पंछी 
पंखो के बाहुपाश में  समेटता 
चमन को 
चोंच टकराता
घरोंदे के ओर- छोर, 
उमंग ढूंडता
जीतना चाहता अपने मौन को 
मस्तमंगल धुन में
संसार के पराभव को गाना चाहता 
खुशी की व्यंजना में
प्रेम का शब्दावरण 
पहनाना चाहता 
क्रूर बाज के तीक्ष्ण निगाहों से 
घरोंदे को बचाना चाहता 

बलबीर राणा "भैजी"
३० सितम्बर  २०१२ 



मंगलवार, 25 सितंबर 2012

वटवृक्ष: तेरा जीना बेकार !!

वटवृक्ष: तेरा जीना बेकार !!: यौवन तुझे आज फिर ललकार !! तेरा जीना बेकार !! फैला है अनियमिता का अन्धकार लूट खसोट का व्यापार खुली आँखो के धृतराष्टों के ...

रविवार, 23 सितंबर 2012

पिंजरे में कैद जीवन



पिंजरे में कैद जीवन
हाँ यहाँ कैद रहती
उसकी दुनियां उसका संसार
यहां उसके
विचार कैद
भावनाएं कैद
कुन्द होता विवेक
कर्मों के इस कारागार में
मन का पंछी
पंख फडफडाता
वो उडना चाहता
आजाद विचारों की अभिव्यक्ति के साथ
बखान करना चाहता
मन के उद्गारों को
पूरा करना चाहता
दिल के अरमानो को
लेकिन क्या ??
इसके आदर्श और आदेशों की बेडियां
इजाजत देगी ?
आदेश उच्चस्थ के
धंभ के
अहम के
आदर्श संस्था के
मान के
सम्मान के
दे के स्वाभीमान के
लेकिन !!!
कौन समझेगा?
इस मूक पशु की बेदना को
हाँ मूक पशु ही है
जो रक्षित करता
देश की आन को
बान को
शान को
यहां हांकी जाती उसकी इच्छाऐं
थोपी जाती बेवाक बर्चनायें
उसके सच्चे जीवन की आजादी
इस खुले कारागार के नियमों का
हर हाल में पालन करना
यही अज्ञाकारी जीजिविषा से वह
अलौलिक मनुष्य योनि के सच्चे
उपभोग से बंचित रखता

रचना - बबीर राणा भैजी
२३ सितम्बर 2012

रचनाकार: बलबीर राणा की कविताएं

रचनाकार: बलबीर राणा की कविताएं

सोमवार, 17 सितंबर 2012

सुर में पहाड़ की वेदना ताल में दर्द

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उनके गीतों और  रचनाओं  में समाता उत्तराखंड,
 उनकी भिव्यक्ति  में निर्विकार पहाड़ी  जीवन 
हर शब्द में झलकती  उत्तराखंडी संस्कृति 
सुर में पहाड़ की वेदना
ताल में दर्द
प्रखर  उत्तराखंडी आवाज
जिस आवाज से 
हडकंप मचता राजसत्ता में
कुशासन की  कुर्सी हिलती 
उस कंठ से निकलती 
माँ बेटियों की संवेदनाएं 
प्रेमी  दिलों की चंचलता 
दिखता  मनमोहक उत्तराखंडी  छटा का विह्ंगम  दृश्य 
किस ओर उनकी नजर नहीं जाती 
कण कण में होते क्षण क्षण में होते 
हर जगह व्याप्त उनकी उपस्थिति 
ऊँचे हिवांली काठियों में 
रोंतेली घाटियों में 
कल कल करती श्वेत गंगा यमुना के प्रवाह में 
बिपुल पहाड़ी गाँव में विचरण  करती लय
सुरों से  सुमन  खिलते जवान दिलों में 
फिर अठ्लेलियाँ लेता बूढा जीवन 
झूम उठती माँ की ममता 
हे गढ़ पुरुष उत्तराखंडी  शिरमोर 
तुझे कोटि कोटि प्रणाम 

बलबीर राणा "भैजी" 
१४ सितम्बर २०१२ 

रूद्र रूप

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रूद्र तेरे रूप ने कल के
हंसते खेलते जीवन को
आज !!!!!
शोकसंतप्त बिरानी में बदल दिया।
गिददों का अकाट्य जमवाडा
हाहाकार मचाता
क्रुर………… क्रन्दन
अपराधी बनी बिद्याता
निठली मूक खडी है
अश्रु भरे चेहरों को
आक्रोषित नजरों से घूर रही है
प्रकृति तेरे धुर्त अकर्मण्य कर्म ने
चहकते चमन,
महकते आंगन को
रिसता रगड बना बना दिया
जहाँ अब जीवन के अवशेष
मिटटी गारों के साथ पुल-पुल करते बह रहे
रात झींगुरों का सुर,
दुखी दिलों को चीर रहा
अरे !
यह सन्ताप !!!!
र्निदोशों को क्यों दे गया?
प्रकृति तेरे रूद्र रूप से
भ्रष्टाचार रथ के सारथी आने वाले हैं
त्रासदी भरे मातम में अपना रथ चलाने वाले है
तेरे कर्म पर राज रोटी सेंकने वाले हैं
कुछ राहत के छीटें मार ………. मानवता की इतिश्री करने वाले हैं
दुखीयों के नाम खुद का घर भरने वाले हैं
तु ही बता
किस रूद्र रूप का सामना करें ?
तेरे या खुद के ......
(रगड = भुस्खलन के बाद की जमीन, पुल-पुल = आहिस्ता खसकती जमीन, गारे = छोटे कंकड पत्थर)
बलबीर राणा "भैजी"
१६ सितम्बर २०१२