गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

बहुत विचलित करती हैं "अडिग" की कविताएं : पुष्तक समीक्षा



 बहुत विचलित करती हैं "अडिग" की कविताएं !


"सरहद से अनहद " काव्य संग्रह की समीक्षा
प्रकाशक : समय साक्ष्य, देहरादून
 पृष्ठ 144
मूल्य 150/
प्रकाशन वर्ष 2021

उक्त काव्य संग्रह के कवि सूबेदार बलबीर सिंह राणा 'अडिग' भारतीय सेना का गौरव हैं । उन्होंने कारगिल युद्ध में पराक्रम दिखाने के साथ-साथ सरहद पर अनेक अवसर पर शत्रु के विरुद्ध मुठभेड़ अभियानों में भाग लिया है। चमोली जिले के मटई (ग्वाड़) गाँव के निवासी 'अडिग' शांतिरक्षक सेना के अंग के रूप में कांगो(अफ़्रीका) में भी सेवारत रहे हैं। इसके अलावा वे  'अडिग शब्दों का पहरा' हिंदी में और 'उदंकार' नाम से गढ़वाली भाषा में ब्लॉग लेखन करते हैं। ब्लैक कैट कमांडो रह चुके श्री राणा अच्छे बॉक्सर भी हैं।

ये परिचय इसलिए दिया जा रहा है ताकि आप समझ जाएं कि 'अडिग' जी आपको ज़्यादा देर तक अडिग नहीं रहने देंगे ! उनकी कविताएं आपको गहराई से विचलित करेंगीं... एक रसिक सहृदय पाठक के रूप में ।

"सरहद से अनहद" काव्य संग्रह 2021 में प्रकाशित हुआ है। संग्रह में कुल 71 कविताएं हैं जिन्हें तीन अलग -अलग खंडों में विभाजित किया गया है। सैनिकों के जीवन , जीवट, जिजीविषा और शौर्य कर्म को समर्पित पहला भाग 'कर्त्तव्य पथ' है जिसमे 21 कविताएं रखी गईं हैं। 'भावांजली' नामक दूसरे खण्ड में भारत महिमा, वंदना और गौरव गान को समर्पित 6 कविताएं हैं। तीसरे खण्ड का नाम 'सतरंगी जीवन बिम्ब' है जिसमें अलग-अलग विषयों पर 44 कवितायें समाहित हैं। 

सैन्य जीवन के तमाम पहलुओं पर मार्मिकता से कई कविताएं लिखी गईं हैं । इसके साथ साथ इस संग्रह में गाँव की पीड़ा और स्मृतियाँ हैं( पृष्ठ 87 वे दिन , पृष्ठ 90 आँगन की वेदना , पृष्ठ 91 गाँव की आख़िरी चढ़ाई) , पहाड़ के प्राकृतिक वैभव की उखड़ती सांसों की चिंता है ( पृष्ठ 89 पहाड़ पर कविता) , हिंदी भाषा के सम्मान से किये जाने वाले समझौते पर दुत्कार है ( पृष्ठ 113 हिंदी की पुकार) , देशज और हिमालयी संस्कृति की चिंता है ( पृष्ठ 115 ढोल दमाऊ अब कहाँ होंगे) ,इसमे नारी विमर्श की अनुगूँज है ( पृष्ठ 101 अबला नहीं अब वो सबला है) और उत्तराखंड महिमा का मार्मिक गायन है ( पृष्ठ 116) । ख़बर को सनसनी और सनसनी को राष्ट्रीय चेतना की सनसनाहट बनाने वाले मीडिया की भी कवि ने अच्छी ख़बर ली है ( पृष्ठ 131, यौवन तुझे ललकार) . रुमानियत के साथ कविता का रिश्ता पुराना है इसलिए प्रेम की वासंती फुहार और विरह की वेदना का स्वर ( पृष्ठ 96-7) इस संग्रह का एक आयाम है।  एक बहुत अच्छी कविता 'लोकतंत्र के पर्व पर' (पृष्ठ 136) है जो शीर्षक के अनुरूप मतदान के लिए नागरिकों को प्रेरित करती है और उन्हें जाति-धर्म की संकीर्णताओं और धन और शराब के प्रलोभनों से ऊपर उठकर मतदान करने के लिए प्रेरित करती है। केदारनाथ आपदा पर भी कवि ने लिखनी चलाई है और रुद्र के बेबूझ रौद्र को सरलता से समझाने की कोशिश की है। दो- तीन कविताएं भगवान श्री कृष्ण को समर्पित हैं जिनमें एक कविता ( पृष्ठ 106-7) "कृष्ण वंदना" बहुत ही उच्च स्तरीय है :










देवकी वसुदेव नन्दन कृष्ण चंद वन्दनम
धरा सुशोभितम अभिनंदनम गोविन्दम ।।(106)

संग्रह में विरह और प्रेम दोनों की मीमांसा है और ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा लिए अनेक कविताएं हैं। एक नज़ीर देखिये -
बुरा वक़्त एक घटना मात्र है
अंत नहीं ( पृष्ठ 138, शेषफल) 

दूर से चमकता, दमकता, आकर्षित और सम्मोहित करता हिमालय क़रीब जाने पर कितना चुनौतीपूर्ण होता है इसे सियाचिन ग्लेशियर पर नौकरी करने वाले जांबाज़ सैनिकों से बेहतर कौन जान सकता है ? "हिम किरीट" जैसी कविता इसी प्रसंग पर आधारित है...

सरहद पर चट्टान की तरह मुस्तैद एक फ़ौजी की रात कैसी होती है , पृष्ठ 53 पर 'ऊसर जिजीविषा' नामक कविता इसका पुनर्पाठ इस तरह करती है --

सुनसान स्याह रात 
बैठा वह प्रहरी 
घनघोर अँधेरे में आँख गाड़े
उस शत्रु साये को खोजती 
जो माँ के अस्तित्व को ख़तरा न बने...

युवा दोस्तों को पान सिंह तोमर फ़िल्म का मेस वाला दृश्य याद होगा जिसमें सैनिकों के लिए सीमित मात्रा में ही भोजन उपलब्ध होने का सत्य दर्शाया गया है। यह सत्य है क्योंकि एक ज़माने में फौज में आज की तरह संसाधन नहीं थे, खाना और कपड़े दोनों का भारी अभाव था। अडिग जी ने "और एक पूस की रात" के जरिये उन लाखों  लाख सैनिकों की गुमनाम पीड़ा को स्वर दिया है जिन्होंने भूख और ठंड का तापमान चुपचाप बर्दाश्त किया --

...और एक पूस की रात
हमेशा के लिए 
जम गया वो 
इस आस पर कि
कल सुबह ओढ़नी मिल जाएगी
साहब ख़ुद
झोपड़ी में आकर 
वादा कर गए हैं....

पहाड़ में विकास का जो मॉडल अपनाया गया है उस पर राज्य का बुद्धिजीवी वर्ग( thinking class) विभाजित राय रखता है। कवि के लिए टूटती, दरकती चट्टानों को नज़रंदाज़ करना बेहद मुश्किल है। कवि पहाड़ में रहता है केवल सेल्फी लेने के लिए नहीं आता। पहाड़ के सीने में होने वाले हर विस्फोट को पहाड़ी अपने भीतर महसूस करते हैं --
रहने वाला कैसे लिखेगा 
उसका हर शब्द दब रहा कंक्रीट के नीचे
डूब रहा तालाबों में 
कट रहा बुलडोजरों से...
हर शब्द पहाड़ जैसा
खड़ा हो जाता है 
पहाड़ बन कलम की नोक पर...(89) 

फ़ौज की ज़िंदगी बहुत कठिन होती है लेकिन फ़ौलादी हौसले और देशवासियों के लिए प्रेम इस कठोरता से ज़रा भी कम नहीं होता। जब नादानी ,मूर्खता या आज़ादी की फंतासियों के सम्मोहन में अपने ही देश का नौजवान फ़ौज पर पत्थर फेंकता है तो भी फ़ौजी विचलित नहीं होता। इस कविता को पढ़िए और याद कीजिये कश्मीर को...याद कीजिये अगस्त 2014 की भीषण बाढ़ को जिसमें सेना ने घर घर जाकर अपने ऊपर पत्थर बरसाने वालों को बचाया --

नहीं डरेंगे पत्थरों से
नहीं डिगा सकतीं गोलियाँ...
लाख ख़िलाफ़त करो बेशक...
तुम्हे बचाना मजबूरी नहीं
फ़र्ज़ है हमारा
चाहे दहशतगर्दी हो या पानी....

गढ़वाल( और कुमाऊँ) वीरों की भूमि रही है।  गढ़वाल के वीरों प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर आज तक देश-दुनिया में वीरता को नए ढंग से परिभाषित किया है । महावीर गबर सिंह, दरवान सिंह( दोनों विक्टोरिया क्रॉस विजेता) चन्द्र सिंह गढ़वाली, और वीरता के किवदंती पुरुष बन गए बाबा जसवंत सिंह जैसे नायकों को समर्पित है --'गढ़वाली जवान हूँ " कविता....अपनी माँ को लिखे इस संदेश  में एक सैनिक का संकल्प देखिये --

क़सम जो खाई थी गीता पर हाथ रखकर
उस क़सम को हर हाल में निभाता जाऊँगा
तिरंगा लहरारूँगा या लिपटकर तिरंगे में आऊँगा !( माँ को संदेश पृष्ठ 45) 

'ढोल दमाऊ अब कहाँ होंगे' -- कविता को देवेश जोशी जी सरहद पर तैनात सैनिक का भुतानुराग (nostalgia) मानते हैं लेकिन मुझे लगता है यह कविता विलुप्त लोक संस्कृति को लेकर कवि की पीड़ा है। 

इस संग्रह को उपयोगी सुझावों और वांछित सराहना से अपना आशीर्वाद दिया है साहित्य और समालोचना के कुछ बेहद प्रतिष्ठित नामों ने , जिनमें शामिल हैं श्री देवेश जोशी, डॉ. नंद किशोर हटवाल और श्री शूरवीर रावत। मेरे लिए यह चकित करने वाला है कि भाई  शूरवीर रावत ने जीवन और उम्मीद से भरी  इन कविताओं (केवल अनहद शब्द के कारण !) में पलायनवाद देखा !!

इस काव्य संग्रह में जग़ह-जग़ह पर प्रिंटिंग की भी कई अशुद्धियाँ हुईं हैं। कम से कम 'समय साक्ष्य' जैसे लोकप्रिय प्रकाशन समूह से इसकी उम्मीद नहीं थी ! 
हथियाने( पृष्ठ 61) ,प्रदूषण (पृष्ठ 69) , कृष( पृष्ठ 99), ख़ुशनसीब ( पृष्ठ 104), अपार ( पृष्ठ 111) ,पीढ़ी वंशावलियों ( पृष्ठ 136) , तूफ़ानों ( 136) जैसे शब्दों को अशुद्ध लिखा गया है।  इसके अतिरिक्त बूँद, चाँद, बेड़ियाँ जैसे शब्द( अनुनासिक, अनुस्वार का अंतर) भी सुधार की माँग करते हैं। "ऑफिस के कूल्हे पर "(101) जैसी पंक्तियाँ बताती हैं कि भाव और भाषा , शिल्प और बिम्ब के क्षेत्र में कवि को अभी बहुत ध्यान देना है।

अडिग जी, कविता को बहुत लंबा न खींचें। यकीन मानिए, आपकी छोटी कविताएं बहुत बड़ी हैं !( फ़र्ज़, उम्र के दीये, आड़, और एक फूस की रात... जीवन रेस नहीं आदि) । कविता वही जो थोड़े से सब कुछ कह दे...सोये समाज को आलोड़ित-आंदोलित करने के लिए एक पृष्ठ की कविता बहुत है। जिन्हें नहीं जागना है उन्हें चंद्रवरदाई भी जगा नहीं पाएंगे ।
 भविष्य के लिए मेरी शुभकामनायें

@ डॉ चरण सिंह केदाखंडी 



शनिवार, 9 अप्रैल 2022

माँ दुर्गा अराधना


 

माँ आदिशक्ति भगवती,
बुद्धी शक्ति ज्ञान दे।।
समभाव समरस भावना का,
मानवता वितान दे।।


हर पुत्र यत्नशील हो,
जन-जन में तेरी भक्ति हो।
नित निलय अर्चना हो तेरी,
मनु दीन दुःख से मुक्त हो।।
 
अपनत्व हर दिल में धड़के,
बंधुत्वा वरदान दे।
लड़ सकूं अर्धम रण मैं,
ऐसा नैतिक भान दे।।
 
माँ आदिशक्ति भगवती.........
 
देवमाता भवमोचनी,
कण-कण में तेरा वास है।
भवप्रीता, भवानी, दुर्गा
सारा भुवन तेरा दास है।।
 
वत्स वत्सला चित्तरूपा,
चित चैतन्य नव निर्माण दे।
पा सकूं चितवृति निरोध,
सत्यपथ संज्ञान दे।।
 
माँ आदिशक्ति भगवती.........
 
नारायणी मोक्षदायनी तू,
भक्त वत्सल ममतामयी।
दुष्ट दानव घातिनी तू,
शस्त्र शास्त्र धारणी।।
 
अधिष्ठात्री जगत जननी,
सर्वमंगल मांगल गान दे।
सुख शांति हो वतन हमारा ,
शुभ सुमंगल वितान दे।
 
माँ आदिशक्ति भगवती.........
 
सस्वती, सुरसुन्दरी माँ,
माहेश्वरी कृपाश्वरी।
लक्ष्मी, सती, सावित्री,
विश्वेश्वरी भुवनेश्वरी।
 
अपर्णा, अनेकवर्णा,
सत्कर्म बुद्धी विधान दे।
कल्याण हो भक्तों का तेरे ,
ऐसा अभय वरदान दे।।


माँ आदिशक्ति भगवती,
बुद्धी शक्ति ज्ञान दे।।
समभाव समरस भावना का,
मानवता वितान दे।।


@ बलबीर राणा अडिग

सोमवार, 4 अप्रैल 2022

विस्थापित बाप की सिहरन

 


1.
थी बल*, वह सुन्दर व महान भूमि
हैलो  ईश्वर कहाँ है वह ?
कहाँ है उसकी सुन्दरता, महानता ?

मेरी माँ कहती थी,
बल,
मेरे बाप दादाओं ने
अपने स्वेद से सींचकर
स्वर्ग बनाया था उसे ।
 
वह धरा 
जीवन के लिए अमृत थी
ऐसा इतिहास में मैने भी पढ़ा था।

पुरखों के स्वेद से पल्लवित
धरती धधकी थी, बल,
मेरे पैदा होने के 
सालभर बाद ।
 
टिड्डियों का झुण्ड आया था, बल
शोर मचाते झैं झैं करते
सबको चट कर गए थे रातोंरात,
मेरे बाप को भी बिस्तर से उठा ले गई थी, बल,
वे टिड्डियां।
हमारी बारी आने वाली थी कि
माँ मुझे छाती और 
बहन को पीठ चिपका भाग निकली थी
चुपचाप अंधेरे में जवाहर टनल से नीचे।
 
2.
जिस भूमि को लोग स्वर्ग कहा करते हैं
वह आग के बीच भागते जीवों वाला जंगल है
अब भी मुझे।
 
बीत चुका है युग कलित भूमि का
वहाँ आदमी हैं पर आक्रांत
भावनाएं है पर आक्रोश
आदमखोरों का आसरा 
आज भी जस का तस ।

3.
ऊँचे हिम शिखरों से रिस रही होगी
चिनाव, झेलम,
तर रही होगी धान की खेती
सेब, बदाम के बगीचों कों,
डेढ सौ साल पहले
बुढ्ढे दादा का रोपा चिनार
जवान ही होगा
डल झील में किश्ती वैसे ही
आहिस्ता सरक रही होगी,
लेकिन मेरे लिए क्या ?
 
4.
आज भी
पीर पंजाल, समसाबाड़ी, हिमालय
पर्वत मालाओं के बीच के
उस कटोरे में जीवन त्रासद है
डरता हूँ वहां जाने से
क्योंकि मेरे पूर्वजों के खंडरों में
खडग लिए अब भी छुपा है निशाचर
तिलक धारियों की टोह में।
 
5.
आँख खोलते ही चीख निकलती है
उस भयंकर आकृति को देख
जिसके हाथ में ऐके सैंतालीस है
वह आँखों से खून टपकाता दौड़ रहा है
शान्ति को मारने।
 
कैसे लौटूं वहाँ,
अब भी मुझे अजान की जगह
भाग जाओं सुनायी दे रहा है,
बताओं कौन दे रहा है गांरटी
कि मेरी माँ के जैसे मेरी पत्नी को
ना भागना पड़े अंधेरी रात में  
नादान चूजों को छाती चिपकाये,
और
मेरी तरह 
जीवन से बिदक ना जाए 
ये मासूम भी
ताउम्र के लिए
मेरी उस छिन्न-भिन्न खोपड़ी देख
जिस पर चेहरे की निशानियां
नदारद हों ।
 
* बल
गढ़वाली में बल शब्द का प्रयोग
- अन्यपुरुष कथन का भाव प्रकट करने में
- अपनी बात को जोर देने में
- प्रत्यक्ष ना देखने का भाव प्रकटीकरण में
- कथन की विश्वसनीयता पर संदेह   
- कथा, कहानी व घटना सुनाने में  
 
@ बलबीर राणा ‘अडिग’