मंगलवार, 25 नवंबर 2014

तन्हाई संग - ३

तन्हाई संग मूक बन चलता गया
दिन ढलते रहे रातें खुलती गयी
ना सूरज ने पूछा ना चन्दा ने जाना
तारों संग बतियाते रातें खुलती गयी
मनुष्यों के जंगल में भटक भटक
सारथी जीवन का ढूंढता रहा
चहुँ और कोलाहल था गिद्दों का
मांस की इस काया को बचाता रहा
जीवन के अवशेष खोजते खोजते
ना जाने कब इतनी दूर चला आया
मुड के देख रहा हूँ उन रास्तों को
जिनको नापते नापते यहाँ पहुँचा 
सोच रहा हूँ अडिग तूने क्या पाया
खुद को बिराने जो  में खड़ा पाया

सोमवार, 24 नवंबर 2014

-:हिन्दी को हिन्दी रहने दो:-


अन्य प्राणियों से हम मनुष्य को अलग रखने वाला प्रमुख तत्व भाषा ही है भाव पशु पक्षियों के भी उठते हैं भाषा के अभाव में उन्हें व्यक्त नहीं कर सकते। भाषा के अभाव में प्रारम्भ में मनुष्य भी पशु दशा में रहता होगा और दूसरी भाषा ज्ञान के अभाव में भी इसी पशु अवस्था में रहता है, भाषा ही मनुष्य को तमस से ज्योति की ओर निकालती है सत्य कथन है लोकयात्रा वाणी की कृपा से चल रही है और वाणी भाषा, लेकिन इस लोकयात्रा का पूर्ण समृद्ध स्वरुप अपनी मूल भाषा का रूप बिगाड़ के नहीं हो सकता। आज भारत को अपनी लोकयात्रा के मूल स्वरुप को बचाने की अत्यंत आवश्यकता है इस आवश्यकता में हमरा अपना सामाजिक योगदान हिंदी को खिंचड़ी होने से बचाना है हिन्दी से हिन्दुस्तान की पहचान है हिन्दुस्तान की पहचान के लिए हमें अपने आचार व्यवहार में मूल भाषा तत्व को प्राथिमिकता देना अंग्रेजी के चरम मोह को त्यागना होगा जापान विकशित अंग्रेजी की वजह से नहीं हुवा अपनी मात्र भाषा से ही उसने उन्नति की है तो फिर क्या कारण है देश का ऊपर वाला तबका हिन्दी से परहेज कर रहा। आज जरुरत है देश को अपनी राष्ट्र भाषा के मूल रूप को बचाने की हिन्दी को हिन्दी रहने देने की ।