बुधवार, 12 जून 2019

जीवन का चाचड़ी बन जाना






हे प्रभु ! हे ईश्वर ! मेरे कृष्ण, पीर और ईश
समभाव वाद रहित जीवन का दे आशीष
हर जन जीवन चाचड़ी बना देना
बेमनुष्यता इस धरा से मिटा देना।

      जीवन का चांचड़ी बनना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है यह इस लिए कह रहा हूँ कि चांचडी बनने के लिए मनुष्य के विचार का कर्मो में समावेश और कर्मो का चारित्रिक समभाव होना नितांत आवश्यक है। लाख कोशिश के बाद भी सांसारिकता में रहते हुए मनुष्य का समभाव होना असभव है, इसे व्यग्तिगत रूप से मनुष्य का दोष कम ही कहूंगा बल्कि सांसारिकता की देन कहूंगा क्योकि सांसारिकता में एक मनुष्य नहीं मनुष्यों का झुण्ड होता है और झुण्ड एक भीड़ है भीड़ का कोई सुनिश्चित स्वरूप नहीं देखा गया भीड़ में किसी एक की अलग पहचान नहीं होती है, और यही भीड़ का हिस्सा रहते हुए हमारे कतिपय काम भीड़ के अनुरूप हो जाते हैं और यह परबस है चाह कर भी हम उस काम को करने से खुद को रोक नहीं सकते। क्योंकि हम सब किसी किसी वाद में बंधे है और वाद में समभाव नहीं हो सकता वाद में समभाव होना पोलियो ग्रस्त व्यक्ति का एवरेस्ट फतह करना जैसा है। मनुष्य का समभाव होना बुद्धत्व हो जाना निर्वाण होना है जिसमें जाति-धर्म, ऊंच-नीच, अगड़ा-पिछड़ा, महिला-पुरुष छोटा-बड़ा सवर्ण-दलित कुछ नहीं बल्कि मात्र मनुष्य का स्वयं होना होता है। चाचड़ी ऐसी ही अपने आप में निर्वाद गुण समाये हुए उत्तराखंड का पहाड़ी लोक गीत नृत्य है, इस गीत नृत्य में हमारा लोक जीवन क्षणिक समय ही सही वाद रहित हो जाता है स्वयं में आनंदानुभुति। यह इसकी विशिष्ठ्ता है यह इसकी महानता है जब कोई व्यक्ति चांचड़ी के घेरे में दूसरे के बाजू में हाथ फंसाये शामिल हो गया तो फिर वहां कोई वाद नहीं रह जाता है, बस होता है आनंद अतिरेक । चाचड़ी/झुमैलो को लेकर यह मेरा निजी आंकलन है इसका किसी ग्रंथ या साहित्य पृष्ठभूमि से कोई सरोकार नहीं है हां लोक संस्कृति, कला और साहित्य विदों का आश्रिवाद अपने विचारों पर जरूर चाहता हूं। एक बात और स्पष्ट करना चाहूंगा कि चांचडी खुद में निर्वाद और समभाव है बशर्ते चाचड़ी पोषक लोकाचार समभाव नहीं हो सकता क्योंकि लोक और लोकाचार किसी वाद के हिस्से हैं मैं आप  सब शामिल हैं। मेरा यह आंकलन चाचड़ी के गुणों को लेकर है या यूं कहूं कि आनंद अतिरेक की मेरी अनुभूति है जिसे सबके साथ साझा कर रहा हूँ  वादबाकी अनुभव किसी और व्यक्ति का
और हो सकता है।
      चांचडी को उत्तराखंडी लोक संस्कृति की रीढ़ कहा जाय तो अतिसयोक्ति नहीं होगी, चांचड़ी हमारा पारम्परिक लोक गायन नृत्य है, यह उस लोकसंस्कृति का नेतृत्व करता है जो पृथवी पर प्रकृति के हर स्वरूप को देव तुल्य मानता है, धार, खाळ , डाँड़ी काँठी, गाड़ गदेरे, बन जंगल खेत खलिहान, पोन पंछी, जीव नमान हर चीज के साथ मनुष्य वृति को भी इन थड़िया झुमेलों, चेती चौंफूलों आदि के माध्यम से गाता है, यह उस रीती परम्पराओं का नेतृत्व करता है जो वायुमंडल में विध्यमान हवाओं को भी परियों, ऐड़ी आछरियों को बन देवियों के रूप में मानता गाता नाचता आया है, यही इस लोक नृत्य को विशिष्ट बनाती है। चांचडी को मैं समभाव इस लिए मानता हूं कि इसमें गीत भी है नृत्य भीसमूह भी एकता भी, महिला भी पुरुष भी, स्वर भी ताल भी और सबको मिलाकर एक उमंग उत्साह आनंद का अतिरेक, कोई लिंग भेद नहीं कोई वर्ण भेद नहीं। गुजरात का गरबा आसाम का बिहू जैसे ही सशक्त यह उत्तराखण्डी लोक गीत नृत्य है जिसे हर उम्र के लोग गाते हैं नाचते हैं खेलते हैं, इसे झुमैलो नाम से भी जाना जाता है इस लोक नृत्य में देव स्तुति से लेकर लोक परम्परा, सामाजिक गीत, प्रकृति महिमा, प्रेम गीत, विरह गीत, समसमायकी गीत और हास्यव्यंग शामिल है या यूं कहें कि जीवन के विविध रगों से सजा लोक नृत्य है।  मेरे उत्तराखंड में चाचड़ी के विविध रूप हैं जिसमे चौंफुला, थडिया, तांदी, छौपती, छोलिया आदि, जो स्थान विशेष और लोकाचार पर आधारित हैं और पौराणिक काल से पीढ़ी दर पीढ़ी अपने लोक के साथ चलता आया है और यह हमारी परम्पराओं का अभिन्न अंग रहा है और आगे भी रहना चाहिए हाँ गरबा, भंगड़ा जैसे प्रचार नहीं मिला यह हम उत्तराखंडियों की कमी ही कहा जायेगा लेकिन आगे पुर जोर प्रयास किया जाय कि उत्तराखण्ड के इस लोक गीत नृत्य का राष्ट्रिय और अंतराष्ट्रीय पहचान मिले और यह हम सबकी बड़ी जिमेदारी भी है ।
            आज इस बात का दुःख है कि यह सांस्कृतिक धरोहर गांव घर से निकल कर लोकलुभाव गीत संगीत और डिजीटल वाद्ययों के साथ रंगमंचों तक तो पहुंचा लेकिन खुद गांवों में रुग्णाशन हो गया  यह चिंता का विषय है,  हाँ इतना जरूर है कि इस पीडी के कलाकारों ने इसे नए कलेवर में ढाला यह कुछ कुछ समयानुसार हो सकता है लेकिन अधिकतर गीत नृत्य पर अनावश्यक छेड़ छाड़ हो रही है जिससे इस लोकगीत या लोकनृत्य का स्वरूप ही बदल गया है, रहा है यह मंथन और चिंतन का विषय है कि सस्ती लोकप्रियता के लिए तथाकथित लोककलाकार इस अप्रितम परम्परा को आनेवाली पीढ़ी को भोंडेपन में देने जा रहे हैं। पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव इस प्रकार लोगों में पड़ गया है कि लोक की कला लोक से विमुख हो गयी है या हो जाने के मुहाने पर है। लोक साहित्य, गीत संगीत के मर्मज्ञ विद्वान जनो को कमरकस फिर से इन कारणों पर विचार करने के साथ क्रियान्वयन करने की जरूरत है तभी इस विशुद्ध विरासत को हम अगली पीढ़ी को अपने पूर्ण स्वरूप में हैंडओवर कर सकेंगे नहीं तो नियति मान चुप गर्दन निचे कर भीड़ का हिस्सा बनते जायेगे ।
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बलबीर राणा 'अड़िग'