बुधवार, 25 नवंबर 2015

चींटी के पर


जब थी वह धरती पर
पग-पग कर्मो से नापती रही
दिन-दिन रात-रात
कर्मो की परिभाषा लिखती रही
आज एक
उग्र जिज्ञासा जगी
क्यों न पंख मांगे जाय
आसमान में उड़ कर
खुद को उठाया जाय
और खास बना जाय
लेकिन जीवन का सत्य
वह कर्मकार
चींटी नहीं समझी
कि ये पंख
उगटणहार करता हैं।

उगटणहार - अंत
@ बलबीर राणा 'अडिग'

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

दिवाली सन्देश


मिलकर ऐसा दिया जलाएं
खुशियों की किरण मुश्कराये
अंतस से  तम का अंधियारा
हमेशा के लिए मिट जाए।

चित बन्ध रहे भाईचारा
भेद न करे मनु-मन हमारा
यूँ ही मानवता के पहरे को
कोई  अधम तोड़ न पाये
मिलकर ऐसा दिया जलाएं।

हर  हृदय प्रेम ज्योति जले
समग्र समभाव दिप्त हो चले
चलो कर्म पथ अपना  सूचित बनाएं
मिल कर ऐसा दीप जलाएं।

पटाखे उल्लास उत्पात रहित हो
फुलझड़ियाँ चहुँ और माया मगन हो
दिवाली संदेश अडिग लाये
मिलकर ऐसा दिया जलाएं।

रचना:- बलबीर राणा ‘अडिग’
@ सर्वाधिकार सुरक्षित

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

सतर्कता जागरूकता सप्ताह विशेष

 विषय: “निवारण सर्तकता सुशासन का प्रभावी उपाय है” पर आपकी राय की अपेक्षा करता हूँ I 
सर्तकता आयोग के दिशा निर्देशानुसार देश ३१ अक्टूवर तक लोह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल की जयंती पर सतर्कता जागरूकता सप्ताह मना रही है और इसके तहत सतर्कता आयोग (Central Vigilance Commission (CVC) ने देश के सभी प्रशासनो और राज्यों को सतर्कता जागरूकता सम्बन्धी दिशा निर्देश जारी किया हुआ है अब यह अभियान देश के नागरिकों को भ्रष्टाचार के विरुद्ध कितना जागरूक कर पायेगा यह तो समय के गर्व में लेकिन आयोग से गुजारिस है कि यह अभियान पिछले कार्यों की तरह फाईलों व् मीडिया पब्लिकेशन की शोभा न बने, आयोग इस जारुकता अभियान के विषय निवारण सर्तकता सुशासन का प्रभावी उपाय है पर मेरी राय:-
मेरी दृष्टि से सुशासन में पांच ‘स’ होना अति आवश्यक है जिसमें सम्पूर्ण प्रजा सुखी, साधन संपन्न, सुरक्षित और स्वस्थ रहे साथ ही सुशासन की विशेषता में पारदर्शी होना, उत्तरदायी होना, विधि के नियमो का पालन करना, समावेशी होना, प्रभावी होना और कार्यकुशल होना माना गया है । युगों का इतिहास गवाह है धरती पर ऐसे कई शासक रहे हैं जिनकी प्रजा इन पांच ‘स’ से परिपूर्ण थी और आज भी विश्व के कई देश हैं लेकिन कालांतर में भारत जैसे संप्रभुता संपन्न वाले गणतंत्र में अभी तक यह सपना ही लगता है। देश को औपनिवेशिकता से मुक्ति के सात दशक होने वाले हैं फिर भी देश का आम जन एक सुखी जीवन की कल्पना खुद के लिए गाली समझता है कारण ? व्यक्ति के खुद की कमी से ज्यादा उसका शासक और शासन प्रणाली। वर्तमान भ्रष्ट तंत्र के प्रभाव से आमजन में प्रशासन के प्रति अविश्वास निराशा और क्षोभ के सिवाय कुछ नहीं है, इस अपारदर्शी प्रणाली से देश का एक वर्ग स्व उथान की सीडी चढ़ता जा रहा है और एक वर्ग मुंह ताके चढ़ने वालों को देख ख्याली पुलाव खा रहा है या अपने को असहाय महसूस कर रहा है। अब सवाल है कि कैसे आमजन की उदासी दूर हो और प्रशासन की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता आये इसके लिए आज तक की सभी सरकारों के प्रयास बैक फुट पर ही रहे। देश भ्रष्टाचार मुक्त हो और शासन कार्य प्रणाली पारदर्शी हो इसके लिए भारत सरकार ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग (Central Vigilance Commission (CVC) की स्थापना 1965 में की जो कि भारत सरकार के विभिन्न विभागों के अधिकारियों/कर्मचारियों से सम्बन्धित भ्रष्टाचार नियंत्रण के लिए कार्य करने के लिए जबावदेह घोषित किया गया, आज तक चाहे आयोग का कार्य क्रियान्वियन असरकारी रहा हो या कागजों तक सिमित रहा हो लेकिन आयोग के इस वर्ष 2015 की सोच और रूप रेखा में आशा की किरण नजर आ रही है जिसके तहत आयोग ने अपने मूलभूत उदेश्य में से एक जागरूकता को पहचाना और भ्रष्टाचार के विरुद्ध सरकारी तौर पर सार्वजानिक जागरूकता अभियान शुरू करने का निश्चय लिया जिसका विषय आयोग ने निवारण सतर्कता सुशासन का एक प्रभावी उपाय चुना है इस अभियान की प्रसंशा की जानी चाहिए और आशा भी। देश में ईमानदारी, पारदर्शिता और जबाबदेही की संस्कृति स्थापित हो इसके लिए हम सब नागरिकों का नैतिक दायित्व बनता है कि इस सरकार की इस मुहिम को सहयोग कर बल प्रदान करें खुद भी जागरुक हों और औरों को भी जागरूक करें तभी भ्रष्टाचार रूपी दानव से हम निजात पायेंगे।



 लेख : बलबीर राणा ‘अडिग’
 © सर्वाधिकार सुरक्षित
 


गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

सन्देश देता दशहरा


हर वर्ष सन्देश देता दशहरा
छंटेगा तम का अंधड़ घनेरा
सत्य की  विजय अधम पर होय
सुपथ पर उगे नयां पावन सबेरा।

धैर्य न व्याकुल हो धीर दे सहारा
मर्यादा पर विश्वास बड़े  तेरा
मीठे सरोवर में जीवन नहाये
न रहे कोई  जलज धरा पे खारा
हर वर्ष .......

पुतले संग राख ख़ाक हो अहम सारा
अंतस में रावण फिर न बना रहे कारा
बाहर-बाहर गीत राम के गुंजित न हो
ज्यु भीतर भी बने पुरुषोत्तम का बसेरा
हर वर्ष...........

सर्व सम्भाव पल्लवित हो चितेरा
बगिया में कुसुम् लताएँ बनाये घेरा
उगने न पाये काँटे जात-पात के
भय हीन निर्भय हो जीवन  हमेरा।
हर वर्ष.........

दंभ अभिमान पर वार हो सदा
सत वाणों से तरकश हो भरा
छेदन हो क्रोध कपट कटुता का
अडिग कल्पना का हो यह संसारा
हर वर्ष सन्देश देता दशहरा ।

ज्यु = जिगर, दिल

रचना:- बलबीर राणा 'अडिग'
© सर्वाधिकार सुरक्षित

रविवार, 6 सितंबर 2015

माँ को शहीद का सन्देश


 
माँ जब ताबूत आये मेरा, दो आँशु गिरा मुश्करा देना
हाथ उठा तिरंगा लहराके धीर उन्हें अपना बता देना
जिसे देख रही तु चिर निंद्रा में ये माटी का पुतला है
तेरा लाल अभी भी सीमा पर खड़ा है, निगाह उठा जाना।

काल के पास भेज आया उनको काफ़िर बन जो आए थे  
मेरी माँ के दामन में सेंध लगाने जो आए थे  
पर कुतर कुतर चीलों का निवाला बना गए उनके  
ये, काश्मीर पर नजर रखने वालो को समझा देना
माँ जब ताबूत आये मेरा, दो आँशु गिरा मुश्करा देना।

नहीं होगा चीर हरण द्रोपदियों का, अब पांडव मूक नही हैं
पांसों के जाल से छलने वाले, भरत पुत्र अब नहीं हैं
तोड़ रहे हैं, तोड़ते रहेंगे हर चक्रव्यूह काफिरों का वाणों से  
काली के भेष में आकर माँ,  दैंत्यों को ललकार देना
माँ जब ताबूत आये मेरा, दो आँशु गिरा मुश्करा देना।

कंचन निकला या पीतल, तेरा पूत ये तुझे जग बता देगा
सीना ताने जय भारती जब, जनक मेरा गर्व से गरजेगा  
हर जन्म तेरी कोख में जन्मूँ कोख पर अपनी मत रोना
शोक-संताप क्षोभ कर मेरी आत्मा मैली मत होने देना
माँ जब ताबूत आये मेरा, दो आँशु गिरा मुश्करा देना।

 नन्हें बांकुर के पालने में कम्बल मेरी बिछा देना
भारत माँ की रक्षा का पाठ बीर नारी उसे पढ़ाते रहना
जब हो जवान गबरू वो बेटा, मेरा हेट पहना देना
लाल का लाल है तैयार, ये शकुनियों को चेता देना       
माँ जब ताबूत आये मेरा, दो आँशु गिरा मुश्करा देना।



@ बलबीर राणा “अडिग’

 
 

 

 

मंगलवार, 1 सितंबर 2015

संस्कार


तू मरेगा तो युग मरेगा
बस छूट जायेंगे जीवास्म
लेकिन
ध्यान रखना
जीवास्म परजीवी होते हैं
जहाँ पोषण मिले
जम जाता है
बस अडिग
तुझे
यहीं समझना है
समझाना है।

@ बलबीर राणा 'अडिग'

रविवार, 2 अगस्त 2015

मित्र दिवस


क्योंकि आप मेरे लिए अनमोल हो
साथ हर पल रहे शाम हो या भोर हो
:-      वैसे दोस्ती या रिश्तों के लिए कोई विशेष दिवस की जरुरत नहीं थी सच्ची दोस्ती और रिश्ते अपने आप में ही हर पल महा प्रेमपास में जकड़े हुए रहते है लेकिन यह मानव बृत्ति है यहाँ विद्युत की दोनों धाराएं बहती हैं मन रखने के लिए इतिश्री भी खूब चलती है !! मेरे आंकलन से जीवन का व्यव्हार इनपुट आउट पुट का सिद्धांत है हमारी गढ़वाली में कहते हैं बल: मैं_कण_चिताणु_जन_तु_चितोल् अर्थात दोस्ती और रिश्तों की फीलिंग एक दूसरे की समतुल्य होती है मान-सामान, आदर-निरादर एक दूसरे समान्तर बहने वाली धारा है । परन्तु ई लाईफ़ का वर्तमान जीवन परिवेश जो खुद में सिमटा हुआ लगता है अगर इन दिवसों की जरुरत महसूस कर रहा है तो स्वीकार करना पड़ेगा चलो इस बहाने तो याद किया, कुछ नहीं से थोडा भला।
स्व विचार।
@ बलबीर राणा 'अडिग'

मंगलवार, 28 जुलाई 2015

कर्म कलाम बन जाए


देखो हंगामा के स्क्युलरो या ओबेसी
आँशुं यूँ नहीं निकलते डर से या बेवसी।

सच्चे मुसलमान के लिए आज राष्ट्र रो रहा है
माँ भारती के आँखों का वो तारा जा रहा है ।

बात किसी हिन्दू मुसलमान की नहीं
बात किसी जाती धर्म सम्प्रदाय की नहीं।

बात राष्ट्र धर्म सर्वोपरि और ईमान की है
मानवता के जो लिए जिये उस इन्शान की है।

ऋषि योगी पैगम्बर जो सम्पूर्ण अवतार था
गीता कुरान का एक बंध एक सार था।

एक दिन धरती पर मिटटी सबको त्यागनी है
कर्म कलाम बन जाए सबको पढ़नी यही कहानी है।

#श्रधांजलि_डा_कलाम
@ बलबीर राणा "अडिग"

सोमवार, 27 जुलाई 2015

एक और उद्वेग

तुझे अपना समझ जी रहा था
नहीं पता था तु पराया समझ निभा रहा है
इबादत लिखने चली जब कलम  दिल में तेरे
देख हैरान हूँ परायापन की स्याही पहले से पुती हुयी है।

@ बलबीर राणा "अडिग"
©सर्वाधिकार सुरक्षित

शनिवार, 18 जुलाई 2015

मेरा हिम प्रवास

जाने कैसे कटते दिन कैसी गुजरती है रातें
ठिठुरता रोम रोम और क्रन्दन कराती है हवाएँ
तुझसे क्यों खपा होने लगा मैं गिरिवर
रचने वाले ने खिलोने में दी तेरी ये फिजायें।

दूर से जितना मोहक लगता है तू हिम शिखर
तेरा आँगन निर्जीवटता बिष पुष्पों से भरा है
डरता है सजीव जीवन तेरे आशियाने से
इस लिए मंद मूक मुश्कान लिए तु निश्चल खड़ा है।

क्यों नहीं पूछता उन नराधम इन्शानो से
जिन्होंने तुझ ऋषि पर भी हक़ की रेखा खींच दी।
क्या खोएगा क्या पायेगा वो तेरे शैल खंडो से
स्वेत मृत आवरण पर भी जिन्होंने मुठ्ठी भींच दी।

कितनी भी खीज उतार तू शीत बबडंरों के झोंको से
डगमगाउँगा नहीं पला हूँ मैं भी माँ भारती की ढूध् की धार से
क्यों ना कट जाए सर, निकल जाए सांस इस जेहन से
पहरा करेगी रूह अडिग की, घूम घूम तेरी इन चोटियों से।

रचना-: बलबीर राणा 'अडिग'

मंगलवार, 2 जून 2015

माँ कहाँ है बचपन


अरे माँ तु ही तो कहती थी
अले मेरे लsला
ज्यादा उथल पुथल न कल
बहार आने के बाद
खूब नाचना
सलालत करना
हुदंगल मचाना
किलकारियां मारना
कान्हा जैसा होगा तू जरूर
लेकिन!!!
जब आई बारी किल्किलाने की
तो... तो !
किताबों का बोझ
कंप्यूटर इंटरनेट
दुनियां का इन्साइक्लोपिडिया
और ना जाने कितने
बोझ तले
मेरी किलकारियों को दब गयी
धरती में आते ही
डाक्टर, इंजिनियर
और भी
पैंसों की मशीन बनाने की जुगत
होड़ अहम् की
दम्भ की
वाह रे दुनियां
दुनियां वालो
तुम्हारे लालच ने
बचपन आने नहीं दिया
बता माँ
कहाँ है बचपन?

रचना:- बलबीर राणा "अडिग"
© सर्वाधिकार सुरक्षित

मंगलवार, 19 मई 2015

विकास का पथिक

पथिक आप दौड़ रहे हैं
संग मेरी आशाएं भी पीछा कर रहीं हैं
आशाएं अपेक्षा को बल दे रही
सपना उन्नत भारत का देख रही
योगी राह में थक ना जाना
मेरी अपेक्षा को उपेक्षित ना होने देना
तुझे मंजिल पर पहुंचना होगा
मुख विरोधियों का बंद करना होगा।
सौभाग्य भारत का अब नहीं सोयेगा
अब ना दुःख की बाट कोई जोयेगा।

@ बलबीर राणा 'अडिग'

सोमवार, 18 मई 2015

विकास का पथिक


आप दौड़ रहे हैं
संग मेरी आशाएं भी पीछा कर रहीं हैं
आशाएं अपेक्षा को बल दे रही
सपना उन्नत भारत का देख रही
योगी राह में थक ना जाना
मेरी अपेक्षा को उपेक्षित ना होने देना
तुझे मंजिल पर पहुंचना होगा
मुख विरोधियों का बंद करना होगा।
सौभाग्य भारत का अब नहीं सोयेगा
अब ना दुःख की बाट कोई नहीं जोयेगा।

@ बलबीर राणा 'अडिग'

रविवार, 10 मई 2015

माँ मेरी भावांजलि


माँ
तेरे चुम्बन का अहसास
थपकियों का प्यार
गोदी का सुख
माथे पर काले टीके की
लक्षमण रेखा
टीस उस डंडे की चोट की
जो कुसंगति की राह से अभी भी रोके हुए है
सब कुछ तो है
तेरा मेरे साथ
केवल तेरी काया ही नहीं है
उबरे (किचन) मैं
शीलन भरी लकड़यों के साथ
जूझती तेरी फूक
और आँख के आँशु ही नहीं है
तेरा जीवन के मध्य में जाना
मेरा दुर्भाग्य था
आज तेरी सगोडि
फ़ूलों से लकदक है
सारे फूल तेरा अभिषेक करते हैं
इसी तरह आशीष की
छत्र छाया रखना ।

सगोड़ी=बाटिका

@ बलबीर राणा 'अडिग'
फोटो साभार गूगल

रविवार, 26 अप्रैल 2015

वर्तमान शिक्षा व्यवस्था मनुष्य निर्माण नहीं मशीनों का निर्माण


वर्तमान शिक्षा व्यवस्था मैकाले की शिक्षा व्यवस्था, जिसमें मनुष्य निर्माण नहीं मशीनों का निर्माण हो रहा है इसी शिक्षा व्यवस्था कि देन है कु व्यवस्थाएं और भ्रष्ट समाज, समाज कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि वह कर्मचारी, अधिकारी और नेता समाज का हिस्सा ही तो है जो केवल उपरी आय पर गिद्द निगाह जमाये बैठा है, और भौतिक सुख को ही जीवन का उद्देश्य मान चुका है I आज भरकम और व्यवसायीकरण भारतीय शिक्षा व्यवस्था के तले आम आदमी/ गार्जियन रौंदा जा रहा हैI हाल ये है कि जो माता पिता जान-समझ भी रहे हैं कि गलत हो रहा है लेकिन मूक होकर नियति मान पिसते जा रहे हैं क्योंकि बच्चे का भविष्य का सवाल है मशीन ही सही कल दो रोटी तो खा लेगा और बच्चे को मशीन बनाने कि कवायद पर जोरों से लगे हैंI क्वालिटी नहीं क्वांटीटी का विकास हो रहा है, ऊपर से सरकारी मानक प्रसेंटेज वाला थ्री इडियट का चतुर्लिंगम I

काश अगर लोकतंत्र में बोट के अलावा कोई और बिकल्प होता तो अच्छा थाI बोट बैंक और कुर्सी ने आम आदमी को सबकुछ फ्री देकर नपुंसक बना दिया भगवान् कृष्ण के कर्मफल का सिद्धांत फ़ैल हो गया समझो I अमुख पार्टी को बोट दो कुर्सी पर बिठाओ और बैठे बिठाए फ्री में पाओ I सचमुच में होना तो ये चाहिए था कि जनता का विकास करना है तो उनके बौधिक विकास के लिए उनके हाथ में काम  देना था फ्री का पैंसा नहीं I एक और महत्वपूर्ण तथ्य जो आज भारत की कर्मशीलता को क्षीण करता जा रहा है वो है आरक्षण! पता नहीं किस विद्वान ने इस आरक्षण वाली थ्योरी को चालु किया अगर वास्तविक में निन्म्बर्ग का उथान करना है तो उनको सार्वभौमिकता से काबिल बनाया जाय ताकि खुद की क़ाबलियत से वो आदमी वो सब कुछ अर्जन कर सके जिसका वो हकदार है  यह आरक्षण निति समाज के धुर्विकारण करने का फंडा है I सुना है अब पद्दोनती में भी आरक्षण होने लग गया है या  मांग हो रही है, बेक़ाबलियत और अनुभवहीन व्यक्ति तंत्र का संचालक बन बैठेगा तो भारत निर्माण ऐसे ही तो होगा जो पिछले ६७ वर्षों से होता आया है I इमानदार काबिल अधिकारी और कर्मचारी हजारों पोस्टिंग और मानसिक यातनाओं से झुजता रहता हैI

आज भारत के निति निर्धारकों को जापान जैसे देश से शिक्षा लेने कि जरुरत है जहाँ आदमी मशीनों का निर्माण करता है मशीन आदमी का नहीं और मैकाले की क्वांटीटी शिक्षा व्यवस्था को छोड़ स्वामी विवेक नन्द के कर्मयोग शिक्षा को अपनाना होगा तभी गाँधी जी के सपनो का भारत बनेगा, क्या कोई कुर्सी पर बैठा बुधिजीवी मुझे बता पायेगा कि उस शिल्पकार, कलाकार और कर्मकार जो निजी लघु उद्योग से खुद के साथ दूसरे की भी आजीविका बना है उसे क्यों नहीं किसी मैनेजमेंट या अन्य डिग्रियों से नवाजा जाता है? क्यों नहीं सरकार उसे अतरिक्त तनखा देती है? उस सफल किसान को क्यों नहीं डिग्री दी जाती जो अपनी मेहनत और तकनिकी से पैदावार कर देश की उदर ज्वाला शांत करता है ? इस शिक्षा व्यवस्था ने आज किसानी जैसे परमार्थी कर्म को भी संशय में डाल दिया और हताश किसान राजनीती पार्टियों द्वारा पिपली लायिब का नथा बनने पर मजबूर हो रहा है I असली भारत निर्माण के लिए निति नियंताओं को ऐसे हजारों क्यों पर मंथन, मनन और क्रियानवयन करना होगा  तभी जाकर एक स्वाबलंबी भारत और भारतीय का पुन: निर्माण हो सकेगा I

 
लेखक: बलबीर राणा ‘अडिग’
© सर्वाधिकार सुरक्षित

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

गुणों का बाजार

गुणों का बाजार
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सुना था
गुण और ईमान
एक दूसरे के पूरक होते है
ईमान बिकता नहीं
परन्तु
गुण बिकने लगे हैं
करोड़ों की बोली लगी है
अब !
मैं गरीब
गुण खरीदूं कैसे खरीदूं
गुण भी
अमीरों के हो गए।
@ बलबीर राणा 'अडिग'

मुठ्ठी भर सुख


बस?  मुठ्ठी भर सुख
और ! बक्सा भर दुःख
उठा लाया , फिर क्यों बोझ ढोने को रोता है
धतूरा जो तु बोता है।

समेटा है संभाल
मुँह चुरा न भाग
अमानत तेरी, मुझे क्यों उठाने को कहता है
घडी- घडी प्रार्थना करता है।

रचना:- बलबीर राणा 'अडिग'

मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

चींथडों में अपनापन

गरबी तू ही अच्छी थी
चींथडों में मेरे अपने
मेरे आगोस में हुआ करते थे
महलों की मखमली चादर
मैंने तेरा क्या बिगाड़ा
जो तु मेरे अपनों को
मुझसे छीन ले गयी।

रचना:-बलबीर राणा "अडिग"

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

दीमकी हमला


अब कोई आशा ही नहीं ?
बचने का रास्ता ही नहीं

सुना था परमाणु हमला
तीन पीढ़ियों को विक्लांग करता
लेकिन ये कौन सा हमला हुवा
जो पूरे युग को विक्लांग कर गया
इतिहास के किसी भी पन्ने पर
ऐसा आहिस्ता दीमकी हमला अंकित नहीं देखा
जो धीरे धीरे कुरेद जड़ नष्ट कर दे
और आने वाली पीडी
जीवन भर दूसरी संस्कृति की वैशाखी पर
चलने को मजबूर हो।

जागो भारत जागो
मत इण्डिया बन कर भागो
हिन्दी बचेगी बचेंगा भारत भी
बचेंगे हम भी।

चिंतन :- बलबीर राणा "अडिग"
© सर्वाधिकार सुरक्षित "अडिग शब्दों का पहरा"
www.balbirrana.blogspot.in

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

"पर" (द्वी घर्यों) वालों का बेलनटाईन डे


जों झुकड़ों प्रेम ज्योत जगी वो रांकाक सारा नि रैन्दा
क्या नाम दिया बेलनटाईन डे अंग्रेज चले गए पूछ थामे हम घिसट रहे हैं । भल मानुसो दिल से सोचो प्रेम प्यार मोहबत माया के लिए कोई घडी समय या दिन चाहिए अगर चाहिए तो वो मानव शरीर ही नहीं हो सकता दानव है या पशु!!  ऐसे प्रेमालाप वाले दिन तो पशुओं या दानवों का आता है । सच कहूँ तो यह दिन " पर " (अनाचार का दोष) वालों का है।  हमारी गढ़वाली में "पर" शब्द को इज्जत पर तीक्ष्ण बाण का घाव माना जाता है अर्थात "पर" उस पर लगता तो द्वी घर्या (दो घरों वाली या वाला) हो जाता है पुरुष हो या महिला।   उसकी औलाद से रिश्ता भी परहेज माना जाता था तो ये दिन पशुवत मनोवृति वाले द्वी घर्या वालों का है जिनके जीवन में प्रेम मात्र एक दिनी होता है । मेरे कटु सत्य को अपने को आधुनिक कहने वाले सहन नहीं कर पाएंगे पर अन्तरात्मा से पूछना जिस दिल में प्रेम की ज्योत जलती है वहां हमेशा अपनत्व का प्रकाश रहता है उसे विशेष दिन की जरुरत नहीं होती । इस दिन का इतिहास जो भी रहा हो लेकिन इसकी भोंडे चलन से यह "पर" वालों का ही दिन लगता है  जो सनातन संस्कृति में अनुचित के साथ औचत्यहीन है।
@ बलबीर राणा अडिग

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

कोटिस प्रणाम


दुर्गन्ध गुलामी की उबाती होगी
सुगंध माटी की ललचाती होगी
बंद कमरे में बंद माँ भारती की घुटन
तुमसे सही नहीं जा सकी होगी
आज खुली हवा में सांस लेते देश की
हवा तुम्हें बुलाती होगी।

माटी का कर्ज चुकाया तुमने
अपने स्व को त्याग तुमने
बलिदान दे गए आन बान पर
रंग दे बसंती का चोला पहना तुमने
फांसी के फंदे पर झूलते वक्त
मुस्कराती माँ भारती की तस्बीर देखी होगी
दुर्गन्ध गुलामी की उबाती होगी।

शत शत नमन तुम्हें शेर ए हिन्दो
शीश नवा कोटिश प्रणाम
कोटिश प्रणाम
गीत:- बलबीर राणा "अडिग"

प्रकाश आवाज दे रहा है


क्यों मिथ्या भ्रम पाले मित्र
जीवन प्रेम विनोद है
राहें खुली बंद नही
ईश्वर अल्ला भगवान् के बीच का द्वन्द नहीं
अंदर झांको देखो जरा
हर घडी इन्तजार में बैठा है वह
जिसे तलासते फिरते हो
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे में
एक ही हाड मांस के पुतले को
कितना अलग देखा तुम्हारी आँखों ने
कब से उसी लाल खून को
काला समझ
बहाते आये
क्या कसूर है उन पंच तत्वों का
उसने एक मूर्ति गड़ी
धर्म जाति की किताब
उसने कभी नहीं पढ़ी
सुनो मुझ अदृश्य प्रकाश की आवाज
जो तुम्हारी आँखों को राहें दिखा रहा
कह रहा हूँ चिल्लाकर
कि!
मैं तुममें से किसी का भी नहीं
मैंने तुम्हें
प्रकृति का सुन्दर विहंगम रूप दिखाया
जो लताओं घटाओं
जीव जीवटताओं को
अपनी गोद में पालती है
और प्यार मुहब्बत का सन्देश देती है
लेकिन !
तुम उसके नियम को तोड़ते चलते गए
खुद के लिए  नफरत फैलाते गए
प्रकृति मेरा आनंद है
जिसका तुमने गाला घोंट मार दिया 
मैं दुःखी हूँ
तुम फिर
कैसे सुखी रह सकते हो।

@ बलबीर राणा "अडिग"

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

चकबंदी और भूमि सुधार के बिना पहाड़ का समुचित विकास असम्भव

     केंद्र सरकार या राज्य सरकार कितने भी विकासोन्मुख योजनाएं चला दे गारंटी के साथ कहता हूँ बिना भूमि सुधार और चकबंदी के उत्तराखंड का रति भर भी वास्तविक विकास नहीं हो पायेगा, हाँ सीधे- साधे गरीबों को पेट पालने हेतु छुट- पुट रोजगार और चकडेतों के लिए भण्डार अवस्य मिल जायेगा। औपनिवेशिक दौर से आज तक हुक्मरानो ने पहाड़ की श्रमसाध्य जनता को खुद के पाँव में खड़ा होने लायक विकल्प नहीं दिए परस्थितिजन्य पहाड़ का आदमी मनिआर्डर अर्थव्यवस्था के सहारे जीवन को संवारने पर जुटा रहा और वास्तविक जमीनी विकास के लिए सरकारों का पहाड़ के प्रति उदासीन रवया रहा है। पृथक उत्तराखंड के बाद उत्तराखंडी सरकारों ने मुख्यमंत्रियों की आवाद तो खूब की परंतु राज्य की जमीन बंजर होने से बचाने में बिफल रही पहाड़ का युवा केवल एक पीडीय सुखद जीवन की चाह में शहरों की और लालायित होता रहा, आलम ये है आज पलायन से बिरान सुन्दर सोम्य प्रकति की गोद में बसे गांव अपनों की पीड़ा से कराहते दिख रहे हैं।
   लम्बे समय से चल रहे विकास की योजनाओं का लाभ धरातल पर नहीं दिख रहा हाँ इतना जरूर हो रहा है सम्बंधित योजनाओं से जुड़े नौकरशाह और नेताओं की पाँचों उंगलिया घी में रहती है और माफियाओं की पौ बारह, इसी परिधि में चल रहे अनियांत्रि विकास योजनाओं के चलते केदार नाथ जैसे प्राकृतिक कोप भाजन का शिकार हर वर्ष राज्य को होना पड़ रहा है।
   विचारणीय बात यह है कि किसानो का खुद खेती के प्रति उदासीन होना और योजनाओं का कागजों में सिमटना क्यों सतत जारी है, कारण पूरी खेती का एक जगह में ना होना है। कृषि बागवानी की चाहे कितने पाठ क्यों ना पढ़ाये जाय और कश्मीर हिमाचल के जैसे होने के हजार सपने दिखाए जाय लेकिन 15 से 20 जगह 5 से 10 किलोमीटर में बिखरी खेती में कैसे काम होगा कैसे नईं वैज्ञानिक तरीके की खैती ईजाद होगी, उत्तराखंड की भूमि में आपार संभावनायें भी है और सामर्थ्य भी, परन्तु! कमी है दृढ़ इच्छा शक्ति सरकार की और हम यहाँ के वाशिंदों की भी, अग़र आज का बेरोजगार युवा चकबंदी पुरोधा श्री गणेश सिंह रावत गरीब जी के जैसे संकल्पित हो तो 16 से 18 घंटे मनसिक टीस देने वाली शहरों की नौकरी में जीवन नहीं खपाना पड़ेगा और मैदानों में 100 गज व् 5 विस्वा जमीन के लिए पूरे जीवन की कमाई भू माफियों के हाथों नहीं लुटानी पड़ेगी।

लेखक:- बलबीर राणा 'अड़िग' (गरीब क्रांति अभियान कार्यकर्त्ता)
ग्राम मटई चमोली