गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

यह मैं नहीं वह काल कहता है

काल की चाल तीव्र तीखी
तेरी मुश्कान पड़ती फीकी
राज का राज भी खुल बिखर महल क्षण में ढह जाता है
यह मैं नहीं वह काल कहता है।

मैं हूँ किंचक जातक केवल
धरती का एक जीव निर्बल
एक तारे के टूटने पर असंख्य तारों से भरा गगन भी रोता है
हा हा कार बहार तू क्यों भीतर सोता है।

मैं अपने दुःख पर दुखी मौन
दर्द सबको देने वाला क्यों तू मौन
युग युग से देख रहा तू तांडव, ऐसे क्यों धरती को नचाता है
कैसे चीख पुकार तु सहता है।

बुझती निशा न्योता सहज कबूल
तेरा कैसा चलन कैसा उसूल
उषा की पुकार पर, खिल खिला दौड़ा चला आता है
दिनकर बन जीवन तपाता है।

पर्सब पीड़ा में धैर्य का सागर
तपड़ रहा नित हो रहा जर जर
कैसे उन्मुक्त हो चली बिमुख मानवता की हवा संग बहता है
ऐसा गुण तुझ में कहाँ से आता है।

घुमड़-घुमड़ चिंतन का बादल
क्यों मन घुमिल करता पागल
संसार चला है चलता रहेगा अडिग तेरा प्रश्न थक जाता है
यह मैं नहीं वह काल कहता है।

रचना:- बलबीर राणा 'अडिग'






रविवार, 21 दिसंबर 2014

स्वाति बूँद


नहीं मालुम उस बादल को
उसकी असंख्य बूंदों में स्वाति कौन है
तपती धरती की तपन को शीतल करने
वाली वो कर्मज्ञ बूँद कौन है।
जिसने संभाली इस जीवन गाँठ
उस गाँठ का पुरुषार्थ निराला है
तु फिर क्यों इतरा रहा जातक
तेरी पकड़ मात्र एक किनारा है।
किस लौ की चमक सूरज बन जाए
दीपक भी इस भेद से अनजाना है
कौन सा तारा जगमग कर दे राह को
वो स्याह रात अँधेरे में बेगाना है।
कर्म पथ की इस डगर पर
सत्य के पाँव से चलना गंवारा है
मात्र भ्रम और मिथ्या संतोष क्षणिक है
मध्य मार्ग चुना जो तूने सहारा है।
खिल-खिल कर हँस-हँस कर
उपवन का ऋण भरता वह पुष्प झर-झर कर
जिगर की पीड़ा कैसे सुगन्ध बन जाती
इस राज को छुपाता वह रो-रो कर
भंवरा बावरा मंडराता फिरता 
पिपासा बुझाने को उषा से निशा भर।
उस क्षण का नहीं पता गायकी को
कौन गीत आये अधरों पर सरस्वती बन कर
कौन पतवार राम को भी तर लाये
जिसे खेता केवट दिन भर।
जिस थाप पर वो घुंघुरू बजता
पायल अंध खुसी से चूर रहती
सुखी जीवन की वीणा को
करकस ढोलक की थाप में ढूंढती
नहीं पता उसे दर्द नृतिका का
जो टुकड़े के लिए पायल पहनती।
कांटे पर लगे मांस देख
मछली मुग्द दौड़ी आती हैं
जाल तले बिखरे दानो पर
भाग- भाग पंछी उड़ बैठ जाती हैं
नहीं पता उस बेजुबानो को
मोह का चक्रव्यूह इन्शान रच जाते हैं
अपने उर की ज्वाला  बुझाने
समुन्दर पर भी अंग्वाल मार जाते हैं।
देख सुन के, सुन देख कर भी
जीवन स्वाति बूँध पहचान नहीं पाया
क्षणिक सुख को स्वाति समझ अडिग तु
घनघोर सावन घर भर लाया।
अंग्वाल =झपकी या आगोस
रचना:- बलबीर राणा 'अडिग'
© सर्वाधिकार सुरक्षित मेरे ब्लॉग
अडिग शब्दों का पहरा
www.balbirrana.blogspot.com

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

हैवानी फितरत

कब चेतेगा तु इन्शान
खुद के लिए फरिस्ता
दूजे के लिए हैवान
कराहता रहेगा जीवन
जब तक सुनाएगा
लहू सैलाबी फरमान।
@ बलबीर राणा 'अडिग'

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

प्रश्न

हद-की-हद से पार
मद का मोह मेरे यार
पद का मंथन
घर से जंतर मंतर
अब नयाँ फंडा नयाँ धन्दा
भावनाओं पर नयाँ फंदा
200 की- 20 हजार
प्लीज खाले मेरे यार
प्रश्न अडिग का बरकरार
झाड़ू अब तु थाली से रहा हार

@ बलबीर राणा 'अडिग'

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

तन्हाई संग - ३

तन्हाई संग मूक बन चलता गया
दिन ढलते रहे रातें खुलती गयी
ना सूरज ने पूछा ना चन्दा ने जाना
तारों संग बतियाते रातें खुलती गयी
मनुष्यों के जंगल में भटक भटक
सारथी जीवन का ढूंढता रहा
चहुँ और कोलाहल था गिद्दों का
मांस की इस काया को बचाता रहा
जीवन के अवशेष खोजते खोजते
ना जाने कब इतनी दूर चला आया
मुड के देख रहा हूँ उन रास्तों को
जिनको नापते नापते यहाँ पहुँचा 
सोच रहा हूँ अडिग तूने क्या पाया
खुद को बिराने जो  में खड़ा पाया

सोमवार, 24 नवंबर 2014

-:हिन्दी को हिन्दी रहने दो:-


अन्य प्राणियों से हम मनुष्य को अलग रखने वाला प्रमुख तत्व भाषा ही है भाव पशु पक्षियों के भी उठते हैं भाषा के अभाव में उन्हें व्यक्त नहीं कर सकते। भाषा के अभाव में प्रारम्भ में मनुष्य भी पशु दशा में रहता होगा और दूसरी भाषा ज्ञान के अभाव में भी इसी पशु अवस्था में रहता है, भाषा ही मनुष्य को तमस से ज्योति की ओर निकालती है सत्य कथन है लोकयात्रा वाणी की कृपा से चल रही है और वाणी भाषा, लेकिन इस लोकयात्रा का पूर्ण समृद्ध स्वरुप अपनी मूल भाषा का रूप बिगाड़ के नहीं हो सकता। आज भारत को अपनी लोकयात्रा के मूल स्वरुप को बचाने की अत्यंत आवश्यकता है इस आवश्यकता में हमरा अपना सामाजिक योगदान हिंदी को खिंचड़ी होने से बचाना है हिन्दी से हिन्दुस्तान की पहचान है हिन्दुस्तान की पहचान के लिए हमें अपने आचार व्यवहार में मूल भाषा तत्व को प्राथिमिकता देना अंग्रेजी के चरम मोह को त्यागना होगा जापान विकशित अंग्रेजी की वजह से नहीं हुवा अपनी मात्र भाषा से ही उसने उन्नति की है तो फिर क्या कारण है देश का ऊपर वाला तबका हिन्दी से परहेज कर रहा। आज जरुरत है देश को अपनी राष्ट्र भाषा के मूल रूप को बचाने की हिन्दी को हिन्दी रहने देने की ।

रविवार, 12 अक्तूबर 2014

मैं नहीं हम


आपके बगैर यात्रा अधूरी ।
संगे संघठन से होगी पूरी ।।

आपके कदम मेरी चाल ।
सदे पगों की एक लय ताल ।।

फिर नहीं रहेगा संसय कोई
भावनाएँ नहीं रहेगी सोयी ।।

सातपाँच की लकड़ीयों से ।
बनेगा एक गठठा हम सबसे ।।

मैं नहीं हमारे का हो बोध ।
नहीं जागेगा कभी प्रतिशोध ।।

आओ मिलकर जतन करें ।
स्व नहीं पर हित का वरण करें ।।

@ बलबीर राणा "अडिग"

शनिवार, 13 सितंबर 2014

मैं हिन्दी हूँ


अतुल्य स्वर व्यजनो की तान रही हूँ
एक सभ्य समाज की पहचान रही हूँ
ठुकरायी जा रही हूँ अब अपने ही घर से
अपने नहीं अपनों के लिए परेशान रही हूँ।

अडिग हिमालय की शान रही हूँ
विश्व बन्धुत्व की मिशाल रही हूँ
शुद्ध अक्षतों में मिलावट से
पहचान अपनी नित्य खो रही हूँ।

दुत्कार की पीड़ा हर पल दुखाती
मात्र मुँहछुवाई अब नहीं सुहाती
घर की जोगणी बाहर की सिद्धेश्वरी
सौतन की डाह अब सह नहीं जाती।

राष्ट्र भाषा हिन्दी हूँ आपकी गैर नहीं
सीखो जग की भाषा उनसे मेरा बैर नहीं
मेरे देश में मेरा पूर्ण अधिकार दे दो
अस्तित्व संसार में तुम्हारा मेरे बगैर नहीं।

वर्ष में एक दिन मेरे नाम का मनाकर
कर्तव्यों की इति श्री आखरी कब तक
फिरंगी अंग्रेजी को सर्वमान्य मान कर
मेरी बेरोजगाऱी आखरी कब तक
मेरे साथ मेरी बहनों को मान देना होगा
मेरे देश में मेरी शिक्षा को सम्मान देना होगा।

रस, छंद, अलंकार की अलौकिकता मत भूलो
सूर कबीर की अमृत वाणी मत भूलो
कितने जतन से संवारा महादेवी ने
भारुतेंदु, मुंशी प्रेमचन्द का सृजन मत भूलो।

सुन लो भारत वासी मेरी पुकार
मैं हिन्दी हूँ भारत की बिन्दी हूँ
सजता है भाल भारत माँ का मुझसे
अडिग कलमकार की जिन्दगी हूँ।

रचना:- बलबीर राणा "अडिग"
©सर्वाधिकार सुरक्षित

बुधवार, 10 सितंबर 2014

कश्मीर में सैनिक की पुकार

नहीं डरे हम पत्थर और गोलियों से
नहीं खपा तुम्हारी नफ़रत की जुबानी
तुन्हें बचाना मज़बूरी नहीं फर्ज है
चाहे दहसतगर्दी हो या पानी।

#दहसतगर्दी #पानी
@बलबीर राणा

पहली जिज्ञांसा

पहली जिज्ञासा
आज भी पहली
कुछ बदला नहीं
अहसास ऊँचे उठे
मन का रंग गहरा
मंत्रणा गंभीर
चित चंचलता दीर्घ
चपलता वही
बदला तो केवल 
बंधन....
जिसके कदम रस्म से चल कर
आज
अटूट कर्म यज्ञ तक पहुंचे।
@ बलबीर राणा अडिग

शनिवार, 6 सितंबर 2014

क्यों मेरा बचपन मार दिया

माँ कहती थी
अले मेरे लाल
ज्यदा उथल पुथल न कल
बहार आने के बाद
खूब नाचना
सलालत करना
हुदंगल मचाना
किलकारियां मारना
लेकिन!!!
अब आई बारी किल्कीलाने की
तो... तो !

मेरा बचपन छीन लिया
किताबों का बोझ
कंप्यूटर इंटरनेट
दुनियां का इन्साइक्लोपिडिया थोप दिया
डाक्टर, इंजिनियर
और ना जाने कितने प्रकार की
पैंसों की मशीन बनाने की जुगत
वाह रे दुनियां
दुनियां वालो
तुम्हारा लालच ने
क्यों मेरा बचपन मार दिया।

:- बलबीर राणा "अडिग"
© सर्वाधिकार सुरक्षित

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

जीवन रेत ही तो है


जीवन रेत ही तो है.....
रेत का भरोसा नहीं
फिसलने का चलन
क्षणिक पद चिह्न
अभी !
अटल अमर पहाड़ दिखता
कल !
और कहीं होता
क्योंकि हवा संग
स्वरुप बदलने की प्रवृति है
बडना बिगड़ना
नित नयीं
मृग तृष्णा
कभी तपिस
कभी ठिठुरन
और मन तू
महल बनाने चला
लेकिन ! जीवन यही है
अडिग यही सच्चाई है।

---: बलबीर राणा "अडिग"
© सर्वाधिकार सुरक्षित

रविवार, 17 अगस्त 2014

विश्वकर्मा

हर एक ईंट सजोयी मैने
हर कण सीमेंट का घोला
अट्टालिकाएं खड़ी कर संवारी
जीवन में मेरे फिर भी ढेला

मर्म ना जाना किसी ने मेरा
मैं भी तो सपने बुनता हूँ
खुले आसमान के नीचे
एक बन्द आशियाना चाहता हूँ

मुठ्ठी भर मजदूरी से
उदर आग बुझ जाती

घोंसले में आँ-आँ करते चूजों देख
तपिस गरीबी कि और तपाती

चिकनी सड़क पर फिसलने वालो
गज-गज इसे सजाता आया हूँ
चलना जरा संभल के इसमें
सबकी सलामती की दुवा करता हूँ

उन बन्द हवेलियों की ठंडी हवा  से
झोपड़ी की गर्म पवन  अच्छी है
तुम्हारे दिखावे के प्रेमालिंगन से
तन्हा मुझ विश्वकर्मा की अच्छी है 



६ अगस्त २०१४ 
© सर्वाधिकार सुरक्षित
रचना :- बलबीर राणा “अडिग”

 

समृद्ध साध्य हो देश हमारा

कहने को ना रहे कोई बेचारा
समृद्ध साध्य हो देश हमारा
सीमाओं का ना रहे बंधन
सबका एक सुर ताल हो सारा ।

ना कोई रूप का, ना किसी रंग का
ना जाति- धर्मं का, ना सम्प्रदाय का,
पहचान सबकी भारत के भारती हो
सबकी ईद सबकी दिवाली हो
बसुधेव कुटम्बकम का वह पुराना नारा
समृद्ध साध्य हो देश हमारा ।

गंगा-जमुना निर्वाध बहे
खग-मृग निर्भय चरे
स्वच्छ रहे पत्ती-पत्ती
तेल रसित हो जीवन बत्ती
चैन का गुन्जन गाएं भोंरा प्यारा
समृद्ध साध्य हो देश हमारा ।

जड़ चेतन मानुष-मानुष की
एक दूजे के दुःख हरने की
ना कोई वैभव में गरजे
ना कोई रोटी को तरसे
सबके मुख सुख का निवाला
समृद्ध साध्य हो देश हमारा ।

हर दिन हो नयाँ सबेरा
हर रात हो  घनी नींद का घेरा
तमस तम हर चित से हरे
मन सरोवर प्रेम नीर से भरे
जग में जग-मग हो भारत मेरा
समृद्ध साध्य हो देश हमारा ।


कहने को ना रहे कोई बेचारा
समृद्ध साध्य हो देश हमारा
अडिग के सपने को मिले सहारा
समृद्ध साध्य हो देश हमारा



15 अगस्त 2014
© सर्वाधिकार सुरक्षित
रचना :- बलबीर राणा “अडिग”
 



कृष्ण पूर्णांश




कृष्ण पूर्णांश
उन्मुक्त जीवन
तृष्णा विहीन
स्वच्छंद
जहाँ चाह वहां राह
सम्पूर्ण सन्दर्भ से गर्वित
सम्पूर्ण कलाओं का कलाकार
सम्पूर्ण अवतार
भोगी - योगी
प्रेम करुणामयी
अहिंसक चित
पर
हिंसा के दनावल उतरता तत्पर
एक हाथ माया की मुरली
दुसरे हाथ सुदर्शन
दो विपरीत धाराओं में उर्जा नियोजन
विपरीत क्रियाओं का समायोजन
इस लिए
कृष्ण अंश नहीं
पूर्णांश
सम्पूर्ण अवतार ....


© सर्वाधिकार सुरक्षित
रचना :- बलबीर राणा “अडिग”