शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

एक गुमनाम पर्यावरण मित्र



जब प्रकृति वैभव की बात होती है तो तुरंत मानस पटल पर सुखी समृद्ध जीवन का बिम्ब उभरता है और दिखता है उस जहाँ में हँसते गाते कलरव करते जीवों का संसार और जीवन के लिए प्रकृति की साझेदारी। प्रकृति की यह साझेदारी अनुपम अतुल्यनीय अकल्पनीय होती है, जिसका निर्माता सृष्ठीकर्ता है। और वह किस रूप में विद्यमान है यह पृथ्वी के सबसे बुद्धिमान प्राणी मनुष्य के लिए पृथ्वी पर मनुष्य जीवन के उतरार्ध से शोध का विषय रहा है। मनुष्यों का यह शोध दो धारणाओं पर रहा। पहला वैज्ञानिक शोध और दुसरा धार्मिक मान्यताएं, वैज्ञानिक शोध इसे ब्रह्मांड में विस्फोट से उत्पन्न गैसीय घर्षण जनित मानते हैं जिससे सौरमंडल के सभी ग्रहों की स्थिति निर्धारण की और इसमें पृथ्वी को सबसे सुन्दर उपहार मिला जिसमें सजीव जीवन बसा। जबकि मानव सभ्यताएं और धार्मिक मान्यताएं एक मालिक के रूप में मानती हैं जो मनुष्य आकृति का पुरुष है, इसे ही मनुष्य पारब्रह्म परमेश्वर, भगवान, ईश्वर, अल्ला गॉड आदि ईश्वरीय संवोधन से पुकारते हैं। लेकिन मान्यताएं कुछ भी हो पृथ्वी का यह वैभव मनुष्य जनित तो नहीं है यह निर्धारित है। धरती के इस वैभव में अकल्पनीय आकृतियाँ हैं जिनका  सजीव जीवन के लिए कुछ न कुछ अहम् योगदान है बिना इनके वर्चस्व के जीवन की कल्पना संभव नहीं है। इन कुदरत की कृतियों के इस आपसी सामंजस्य और संतुलन को ही पृथ्वी पर जिवोपार्जन की धुरी माना गया है। प्रकृति की इन अतुल्य कृतियों में प्रमुख है वनस्पति, वनस्पति है तो हवा पानी है।
     पानी वर्षा से जलवायु  का संतुलन है जिससे पृथ्वी के उस हिस्से का तापमान बना रहता है जिससे हिमखण्ड अस्तित्व में रहते हैं यही हिमप्रदेश तमाम जलस्रोतों का मूल है इन्हीं से सदानीरा नदियाँ निकलती हैं। ये नदियों न हो तो पृथ्वी के सारे जलस्रोत एक दिन में ख़त्म हो जायंगे। सारांश में कहा जाय तो वनस्पति ही पर्यवारण की सेंटर ऑफ़ ग्रेवटी है जिससे जलवायु संतुलन और परिवर्तन संभव हो पाता है और जिससे जीवन के लिए सर्वोपरि चीज अन्न जल उपलब्घ होता है। हाँ प्रकृति की ये  कृतियाँ मानव जनित तो नहीं है लेकिन मनुष्य अपने आविर्भावकाल से इनका क्षरण व विध्वंस जरुर करता आया है। पर्यावरण दोहन का यह क्रम आधुनिक वैज्ञानिक युग में अपने चरम पर पहुँच गया है इसका एक कारण गलफहमी भी हो सकता है क्योंकि विज्ञान ने आज लगभग सभी चीजें कृतिम दे दी। लेकिन हम भूल रहे है कि ये सब क्षणिक हैं बिना प्राकृतिक हवा पानी भोजन के जीवन संभव नहीं है। यही सिलसिला रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पूरी पृथ्वी जीवशून्य हो जाएगी  और  यह जीवरहित अन्य ग्रहों की तरह उसर भूखंड रह जायेगा। प्रकृति पुत्र श्री इन्द्र सिंह बिष्ट जी का कहना है बुबा विज्ञान कति भी नकली चीजें बणे दे पर आखिर पुटुगे आग अन्नाऽळ ही बुझोंण और तीस पणिल, भूख तीस यूं मशीनोन थोड़ी बुझोंण ।
    ऐसा नहीं कि मनुष्य अपने इस कृत्य से अनविज्ञ है लेकिन जानने सुनने के बाद पेड़ पौधों और वनस्पतियों का दोहन करता है। विश्व के तमाम पर्यावरण विद,वैज्ञानिक व बुद्धिजीवी चिरकाल से पृथ्वी को बचाने की मुहीम पर लगे हैं और साथ ही साथ आम जनमानस को भी आगाह करते आये हैं। धरती पर मानव समझ की विडम्बना ही कहेंगे कि सारे लोग आलेख के मुख्य सार प्रकृति संवर्धन पर क्षणिक ही विचार करते हैं और ज्यादा विचार केवल और केवल अपने अन्धाधुनिकरण के लिए होता है, लेकिन कतिपय पुरुष ऐसे भी हैं जो हर क्षण हर घड़ी पर्यावरण संवर्धन के लिए जीते हैं खपते हैं, इन्हीं पुरुषों में एक गुमनाम व्यक्तित्व हैं ग्राम बैरासकुण्ड जिला चमोली उत्तराखंड के श्री इंद्रसिंह बिष्ट जी।
     श्री बिष्ट जी का कृतित्व वैसे कुछ नहीं जो एक आम किसान अपने हित के लिए करता है ऐसा ही मान सकते हैं लेकिन पर्यावरण संरक्षण हेतु उनका ये कार्य किसी प्रेरणा से कम नहीं है । श्री इंद्रसिंह बिष्ट जी उम्र 82 साल है और ये ग्राम बैरासकुण्ड जिला चमोली के वासिंदे हैं, बचपन से आज तक उनका लगाव पेड़ों पोधों और जानवरों से ऐसा रहा कि जब इनकी सेवा में लग जाय तो खाना खाने तक भूल जाते हैं, उनका यह बृक्ष और जीव प्रेम तब और प्रगाड होता गया जब वे  1997 में पी. डब्लू. डी. की सरकारी सेवा से निवृत होकर घर आये। मात भूमि प्रेम की पराकाष्ठा यह रही कि ठीक ठाक आमदनी और परिवार की मंशा के विपरीत पलायनवादी विचार को फटकने नहीं दिया और अपनी मिटटी अपने घर में अपने पैत्रिक कार्य खेती किसानी में जुट गए। इस आलेख का मूल श्री बिष्ट जी का कार्य और एक गुमनाम व्यक्ति को जीवन के रहते उनकी करनी का प्रतिफल प्रेरणा के रुप में आमजन तक पहुँचाना है।
  बात करते हैं श्री इंद्रसिंह बिष्ट जी के कार्य की, तो बताते जाएँ कि उनकी काफी पैत्रिक खेती बैरासकुण्ड गाँव से सटे फराणखिला मोहल्ले के साथ थनाकटे नामक तोक में है और खेती के साथ उनकी काफी जमीन उस समय बंजर थी जिसे गाँव वाले चारागाह के तौर पर इस्तेमाल करते थे, साथ में एक बात मुख्य थी की उस जमीन पर उस समय चीड़ ने अपना साम्राज्य करना शुरू कर दिया था बिष्ट जी ने अपने स्व श्रम से उस जमीन पर पत्थरों की घेरबाड़ की और पूरे चीड के छोटे पोंधों को उखाड़कर वहां बांज, बुरांस और कुछ काफल के पेड़ लगाने शुरू किया और हर दिन अपने खेती के दैनिक कार्यों के चलते कभी दिन भर तो कभी घड़ी दो घड़ी उन पोधों के लिए देते गए और आज 21 साल बाद देखते देखते थानाकटे में लगभग तीन एकड़ से ज्यादा भूमि पर बांज बुंरास मिश्रित बड़ा सघन जंगल बन गया, हर किसी व्यक्ति को देखने के लिए आमंत्रित करते हैं और पेड़ों के साथ ऐसी बतियाते हैं जैसे अपने बच्चों  से, हर पेड़ की जीवनी बताते हैं कब यह सूख रहा था कब इसकी जड़ों पर पग्वोर (मिटटी) लगाया, छंटनी की कब इसकी फांगे झपन्याली होनी शुरू हुई इतना अप्रितम प्रेम आम मनुष्य नहीं किसी पर्यावरण पुत्र में ही देखने को मिलता है।
वैसे उत्तराखण्ड की धरती पूरे विश्व में एक मात्र ऐसी धरती है जहाँ के भूमि पुत्रों ने चिपको और मैती जैसे पर्यावरण संरक्षण मुहिमों के तहत विश्व विरादरी को पर्यावरण संरक्षण की सीख दी।आज जहाँ उत्तराखण्ड में गोरा देवी, सुन्दरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, कल्याण सिंह रावत मैती, विद्यादत्त शर्मा, गणेश सिंह गरीब जी आदि जैसे पर्यावरण हितेषी नामचीन नाम हैं वहीं इंद्रसिंह बिष्ट जी जैसे गुमनाम व्यक्ति हैं जो बिना किसी स्वार्थ के पर्यावरण रक्षा के लिए अपने जीवन को खपा रहे हैं । बताते चलें कि श्री बिष्ट जी के इस जंगल में आज पूरे बैरासकुण्ड ग्रामवासी यदा कदा जरुरत पर अपने मवेशियों के लिए चारा व उनके बिछाने के लिए सूखी पत्तियोँ (सुतर) का इस्तेमाल करते रहते हैं और एक और चमत्कार की बात है कि उस तोक में सूख गया पानी का स्रोत बांज के चलते फिर से उभर गया है, ये बांज की की महिमा है कि जिस धरती पर बांज होगा वहां पानी का सोता और जमीन नमी वाली होती है इसी बांज के परिणीत बाजं के साथ अन्य पेड़ और पादपों का खाना जंगल होता है। लेकिन आज बिडम्बना है कि क्या आम कास्तकार, क्या सरकार बांज के ऊपर ध्यान नहीं दे रही है और प्रकृति के साथ इस रूखेपन से विनाशकारी चीड़ का साम्राज्य चौड़े पत्तों वाले सघन जंगलों में अनवरत होने लग गया है।
     श्री इन्द्रसिंह बिष्ट जी के कार्य के परिणीत कुछ बातें पहाड़ का हरा सोना बांज बृक्ष पर भी की जाय, पर्यावरण, खेती- बाड़ी, समाज व संस्कृति से गहरा ताल्लुक रखने वाला बांज आजीविका का उत्तम साधन तो है ही वहीं पहाड़ी जल स्रोत को बचाने अच्छी वर्षा व भूस्खलन रोकने में सक्षम है। इन बांज के जड़ के पानी का महत्व वहीं जान सकता जिसने पिया हो। इस लेख के माध्यम से नयीं पीड़ी को संदेश देना चाहूंगा कि आगे पहाड़ और गंगा को बचाना है तो बांज का बचना अनिवार्य है चाहे इसके लिए कुछ भी जतन करो। इसी अथाह पर्यावरण प्रेम और अपने स्व सुख के लिए श्री इंद्रसिंह बिष्ट ने अपनी पैत्रिक खेती में यह बांज का जंगल उगाया आज वे स्थानीय युवाओं के लिए प्रेणा श्रोत हैं और गाँव के कई युवा इस प्रेरणा से बांज का संरक्षण कर रहे हैं।
    कहते हैं भावनात्मक लगाव भी एक अंतराल तक होता है बढ़ते वैश्विक परिदृश्य के चलते आज वर्तमान पीढ़ी के लिए ये जंगल ज्यादा लगाव वाले नहीं हैं क्योंकि उनकी आजीविका का वास्ता इन से नही है लेकिन पहाड़ और गंगा के अस्तित्व को बचाने के लिए आपको बांज का संरक्षण करना ही होगा। मध्य हिमालय में 1200 से 3500 मीटर ऊंचाई में समशीतोष्ण वनों की श्रेणी में मध्य हिमालयी क्षेत्र है और यहाँ की जलवायु बांज- बुरांस के मिश्रित जंगल अनुकूल होती है। बांज (ओक) की यहां तीन प्रजातियां है (बांज, तिलोंज/तेलिंग,और खरसू/खैरु) इन प्रजातियों की श्रेणी पहले बांज फिर खैरु फिर तेलिंग खैरु मिक्स जंगल हैं। बात करते हैं पर्यावरण रक्षा और आजीविका की तो मेरा क्षेत्र बैरासकुण्ड मटई और आस पास के सभी गाँव पुश्तेनी से बांज की रक्षा करते आये हैं गांव की खेती के साथ लगे हमारे बांज के जंगल जो हमारे पुरखों द्वारा रोपित और संरक्षित हैं आज भी अपने पूर्ण स्वरूप में झपन्याले (सघन) हैं यह पुश्तेनी धरोहर जहां हमारी आजीविका से जुड़ा है वहीं हमारी आध्यत्मिक श्रद्धा और भावनात्मक लगाव इन पेड़ों से है। क्या मजाल नियम विरुद्ध एक भी वासिन्दा एक सोँली (टहनी) काट दे, इसी दृढ़ संकल्प से हम लोग बिना चौकीदारी के भी अपने इन बांज के पेड़ों को बचाते आये, हमारे in गावों को पहाड़ के इस हरे सोने का लाभ निरंतर मिलता आया है, हमारी ग्राम पंचायत के नियम के अनुसार इस जंगल को तीन से चार खंडो में बांटा गया है एक या दो साल में एक खण्ड की छंटाई होती है उसमें भी कितने फीट की टहनी कटेगी और कितने सुगयटे (बांज के  पत्तों का गट्ठा) व कितने भारे (कच्ची लकड़ी के गठ्ठे ) एक परिवार द्वारा लाया जाएगा इसे पंचायत सुनिश्चित करती है विरुद्ध कार्य करने वाले व्यक्ति को दंडित किया जाता है इससे साल में दो से तीन महीने सम्पूर्ण गांव के मवेशियों के लिए पूर्ण चारा और वर्ष भर के लिए ईंधन (लकड़ी) मिल जाती है साथ ही हर वर्ष पतझड़ में बांज की सुखी पत्तियों (सुतर) के लिए भी यहीं नियम होता है व पर्याप्त मात्रा में मवेशियों के नीचे बिछाने के लिए सुतर मिल जाता है जिससे उत्तम कम्पोस्ट खाद बनती है।
     अपने इस लेख के माध्यम से  पर्यावरण सम्बंधित उत्तराखंड और भारत सरकार के सभी विभागों के आला  अधिकारियों और राजनीती क्षेत्र के नेताओं से अपील करता हूँ कि हिमालय अस्तित्व की जड़ बांज संरक्षण के लिए हुए कामो को देखने के लिए हमारे बैरासकुण्ड क्षेत्र में जाएँ और क्षेत्र के साथ उस अकेले 82 वर्षीय प्रकृति पुत्र इन्द्रसिंह बिष्ट जी द्वारा निर्मित बांज के जंगल को देखें फिर आपके विवेक में जो उचित सम्मान लगे उन्हें दिया जाय ताकि आने वाली पीड़ी को प्रेणा मिल सके और चीड़ के विनाशकारी परिणामों के चलते बांज के साथ पर्यावरण को बचाया जा सके।

आलेख : बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’
ग्राम मटई ग्वाड़ जिला चमोली उत्तराखण्ड
संपर्क : 9871469312 

गुरुवार, 28 नवंबर 2019

विनय गीत



मन से अर्पण दिल से समर्पण
एक ही सीरत सूरत का दर्पण
ऐसा निश्छल प्रणय हो प्रिये
हो जो कर्म मेरा, हो वह तेरा अर्जन

समझ की पटरी सामर्थ्य की गाड़ी
चलेंगे संग संग, न अगाड़ी पिछाड़ी
हंसते गाते पथ पूरा करेंगे
प्रेम गंतव्य पर चला करेंगे
तज देंगे उस दुनियां को
जहाँ होता हो भावनाओं का मर्दन

ऐसा निश्छल प्रणय हो प्रिये
हो जो कर्म मेरा, हो वह तेरा अर्जन

जब चुभे जो कंटक तेरे पग में
तब दर्द उभरे मेरे पगों  में
कारा चुभे जब आँखों में मेरी
अश्क बहे तब नैनों से तेरी
प्रीत रश्मि से अंतस उजियारा हो
हो तपिस उच्छवासों का समर्थन

ऐसा निश्छल प्रणय हो प्रिये
हो जो कर्म मेरा, हो वह तेरा अर्जन


लिखेंगे परिणय का हर एक पन्ना
अधूरी न रहे कामायनी तमन्ना
सींचेंगे गृहस्थ की, कुसुम क्यारी
बनकर मैं घन, तु पावस न्यारी
जीवन गोधूलि बेला तक
प्रेम वन्धन की संभाल संवर्धन

ऐसा निश्छल प्रणय हो प्रिये
हो जो कर्म मेरा, हो वह तेरा अर्जन ।

@ बलबीर राणा 'अड़िग'

शनिवार, 16 नवंबर 2019

--||---एक अंतर्द्वंद---||--


ओ चिन्मय प्रकृति
अपने बहकावे में ले ले
ताकि अकेले दौड़ता रहूँ
कभी खुद से ही आगे
कभी खुद से ही पीछे
स्वयं से प्रथम और अंतिम
अकेला जीतूँगा
अकेले से ही हारूँगा
ना कोई प्रतिस्पर्धा
नहीं किसी का प्रतिरोध
प्रतिभागी, प्रतियोगी होने का
भय संशय कुछ नहीं
जय विजय का द्वंद नहीं
चेतना में एक नाद निकले
अनहद गरजै और
जीवन तेरे चिन्मय के साथ
चिरकाल वासी हो जाय
लेकिन क्या मेरे अंतर्द्वंद यह
सम्भव है?

@ बलबीर राणा 'अड़िग'


मंगलवार, 12 नवंबर 2019

रक्षा का ध्रुव प्रमाण




जय के लिए जीवन देते हैं
विजय के लिए देते हैं प्राण
प्राण को प्रण सम्मुख रखने वाले
राष्ट्र रक्षा के हैं ध्रुव प्रमाण
धन्य है, वह माता जिसने जने पूत महान
पुनीत तिरंगे की शान, भारत के वीर जवान।

मृत्यु का कोई भय नहीं है
खपने का संशय नहीं है
बुझने का डर नहीं सताता
अगर मगर मन में नहीं आता
चिराग ये वेखौप जलते हैं
बर्फ पावश हो या तूफान
पुनीत तिरंगे की शान, भारत के वीर जवान।

न कभी माया ने रिझाया
न कभी ममता ने डिगाया
बहने न दिया अश्कों से पानी
बिकल न होने दी तरुण जवानी
कर्मवेदी पर निर्भीक अड़िग ये
निःसंकोच निकलते हथेली रखके जान
पुनीत तिरंगे की शान, भारत के वीर जवान।

कराल कष्टों को साध्य वे करते
भू विविधता को वाध्य वे करते
त्याग तप सब विवश हो जाते
वियोग वैराग्य नतमस्तक हो जाते
क्षोभ ग्लानि जिनके निकट न फटके
मांगा है मिट्टी से, मृन्तुंजय वरदान
पुनीत तिरंगे की शान, भारत के वीर जवान।

कृतज्ञ हैं उस मनोबल का
शस्त्र से सशक्त आत्मबल का
होके जिजीविषा के हजार विकार
कभी न किया कर्तव्यपथ का प्रतिकार
अर्पण समर्पण को, नमन है वीरो
तुम्ही ही हो हर कठिन कष्टों का निधान
पुनीत तिरंगे की शान, भारत के वीर जवान।

@ बलबीर राणा 'अड़िग'

रविवार, 3 नवंबर 2019

असली मोगली



कार्टून का मोगली नहीं
असली जीवन का मोगली है
गाँवों का बचपन
चेहरों पर हंसी ही नहीं
अंदर से भी ठहाका है
निर्भीक अभयारण्य
प्रकृति वैभव में
कूदते हैं फांदते है
छलांगे लगाते है
क्योंकि ये अभी
विकास की जद में
नहीं आये
जद में आते ही
बन जाएंगे ये भी
बस्तों के नीचे दबे
रिमोट से उछलने
वाले बेबी।

@ बलबीर राणा 'अड़िग'

सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

आकुल गीत


जब वीरानी की आकुलता  
लगाती है धाद मुझे
कुछ सपने बुनके कुछ अपनेपन से 
कर लेती हूँ याद तुम्हें 

ये कच्चे रस्ते पगडंडियां
अब खुद ही दूरीयां नाप रही
खड़ी चढ़ाई ढलती उतराई 
अब खुद ही खुद में हाँप रही 

कैसी गति से गति मिलाकर
सबने जाने की ठानी है
एकाकीपन से बुढ़ा गयी ये
युगों की तरुण जवानी है

मुखर मौन के सुख से है या
विषम परिस्थिति का विषाद मुझे 
देवथानों की दशा दिशा देख
आ जाती है याद मुझे

देख योगनियों की कलित कलायें 
अगम पथों पर, तुरंग मर्त्य यहाँ
विटप सघन से लड़ती वनितायें 
और, जूझते जरठों का सामर्थ्य यहाँ

नहीं दिखेगी बंन्द कमरों से
घुमड़ती घटायें चौमास की
ईंटों के सघन से कैसे दिखेंगी
चपल छटाएं मधुमास की 

यह ममता का मर्म है या  
प्रेम का अवसाद मुझे
इस चमन का सूनापन देख 
कर लेती हूँ याद तुम्हें

बांध गठरी निःसंकोच चले आना
माँ माटी की सुगंध लेने को
एक अपनापन ही बचा के रखा है
और कुछ नहीं है देने को 

खातिरदारी को कोई नहीं है
सब अपने रस्ते निकल लिए
सैलानी बनकर मत आना लाड़ा
समय नहीं किसी को किसी के लिए

तुम्हारे जलड़े इस कोख से जन्मे
कोख प्रीत का प्रमाद मुझे
उन जलड़ों के कारुण्य कलरव से
आ जाती है याद मुझे

उतराई में इतनी समृद्धि दिखी 
या सामर्थ्य को सुगम लगा
शहरों ने क्या कृश किया जो
फिर चढ़ना इतना दुर्गम लगा 

देखा है इस मिट्टी में मैंने
मिट जाने वाला नेह यहाँ
कराल कष्ठों के तपन में हँसती
दमकती कंचन देह यहाँ

मरु बांझ नहीं संततिवती हूँ
है जननी का अहसास मुझे
भरे वक्षों से छलकता पय 
दिलाता ममत्व की याद मुझे

कब तक विरह अट्टहास करेगी
इस अक्षुण अभिलाषा पर
क्यों संयम को संशय हो रहा है
तनमय तंद्रा आशा पर

क्या गुनाह किया जगदीश्वर ने 
मेरी उपत्यकाओं की रचना कर 
समझ से परे क्यों मतिमान मनुज
क्यों दुत्कार रहे हैं भर्त्सना कर

कल्पों से कितने आये और गए
नहीं तुमसे फरियाद मुझे 
अपनी नहीं तुम्हारी पीड़ा से
आ जाती है याद मुझे। 

धाद = आवाज लगाना
जलड़े = जड़ें 
लाड़ा = लाडला

@ बलबीर राणा 'अड़िग'

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

प्रकृति वैभव


नीला अम्बर आँचल ओढ़े
प्रकृति का यह मंजुल रूप
रात्री चंदा की शीतल छाया
दिवा दिवाकर गुनगुनी धूप

जड़ जंगल  पादपों  का  वैभव
जीवनदायनी सदानिरायें निर्मल
तन हरीतिमा  चिंकुर  प्राणवायु
पय पल्लवित जीव अति दुर्लभ

आँगन सतरंगी कुसुम वाटिकायें
गोद  पशु  विहगों   का  विहार
लहलहाती अनाज की  बालियां
क्षुधा    मिटाता   समग्र   संसार

तेरे इस अनुपम वैभव में भी
दुःखी हो अगर कोई इन्शान
कर्महीन मतिहीन  ही  होगा
जो न समझा   तेरा  विधान ।

@ बलबीर राणा 'अड़िग',

शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

सकून



उस बस्ती बस्ती में
सकून को हँसते देखा
जहाँ कच्चे ठिकानों में
पक्के ठौर थे
बेचैनी के अट्टाहास ने
सहमा दिया वहां
जहाँ  रात
चमचमाती झालरों में नाच रही थी। 

@ बलबीर राणा 'अडिग'

बुधवार, 25 सितंबर 2019

रिश्ते



इस आश पे रोज पैरों को निकलता  हूँ
कि नाप सकूं फासले रिश्तों के इस जहाँ में
पर ठिठक जातें कदम उन खाईयों देख
जिनके मिजाज खुद में बहुत गहरे हैं।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

राष्ट्र नायक की प्रतिष्ठा में


उस कर्मयोग, तप निष्ठा की जय
भव फलक भारत प्रतिष्ठा की जय
नित नव लक्ष्य शरसंधान की जय
सक्षम शख्स स्वाभिमान की जय
अंतस प्रेरित ललक लगन की जय
अरि दाह समर्थ अगन की जय।

देश न रुकने देने का संकल्प
देश न झुकने देने का संकल्प
संकल्प नभ तक भारत पताका का
मंजूर न किया और कोई विकल्प।

दूर दृष्टा ओजशस्वी ओजवान
पथिक वो अनवरत गतिवान
जीवन भारत वैभव को समर्पित
प्रबल इच्छाशक्तिधारी हिम्मतवान ।

बचना चंट चटक चाटुकारों से
कुर्सी के चपल साहूकारों से
दृग सुदामाओं तक पहुंचना बाकी
तभी मिलेगी मुक्ति मुफलिस विकारों से।

@ बलबीर राणा 'अड़िग'

शनिवार, 31 अगस्त 2019

गर्व और गौरव का पर्व



पर्व यह अभिमान का है
प्रेरणा पुरुषों को प्रणाम का है
त्याग समर्पण और दृढ़ता का
सैन्य फलक पर प्रमाण का है ।

पर्व फेब फोर्टीन की शान का है
शौर्य विजय गाथा गुणगान का है
असंभव कहना नहीं सीखा जिन्होंने
उन रणवांकुंरों के स्वाभिमान का है।

पर्व जन्म जमान्तर विधान का है
गढ़वालियों के स्वाभिमान का है
हो गए जो वतन के लिए आहुत
वीरात्माओं को श्रद्धासुमन सम्मान का है

पर्व है गर्व और गौरव का
पल्टन के सौरव सौष्टव का
वर्तमान कर्मवेदी पर खरा उतरें
वैसे ही कंचन बनकर निखरें
जिन कंचनो की आभा से दीप्त हुआ यह भवन
उन नीव की ईंटों का स्वागत सुमिरण
भविष्य उसी समर्पण से सृजित करेंगे
सत श्री पौधों को उर्जित करेंगे।

रंचना : बलबीर सिंह राणा 'अड़िग'

अडिग शब्दों का पहरा: आर्तनाद

अडिग शब्दों का पहरा: आर्तनाद: पर्णकुटी के छिद्रों से पहली रश्मि रोशनी देखता हूँ गौशाला में कुम्हलाती बछियां रंभाती गवैं देखता हूँ नहीं पता किस धारा किस सेक्शन से बब...

बुधवार, 28 अगस्त 2019

आर्तनाद


पर्णकुटी के छिद्रों से पहली रश्मि रोशनी देखता हूँ
गौशाला में कुम्हलाती बछियां रंभाती गवैं देखता हूँ
नहीं पता किस धारा किस सेक्शन से बबाल मचा है
मैं दिन की बाटी सांझ चूल्हे का  जुगाड़ देखता हूँ

अरुणोदय से गोधूलि तक मिट्टी में खटकता हूँ
दो कौर के उदर को, उदरों के लिए जुतता हूँ
इतना यकीन है मेरे स्वेद से मोती ही निकलेगा
कर्म वेदी पर हर क्षण को स्वाति नक्षत्र देखता हूँ

घाम न देखा नग्न देह ने, न पहचानी शीत पवन
काष्ट बने निष्ठुर पाँवों से होंगे कितने कंकड़ मर्दन
बटन दबाया जिस सपने पर उसे ओझल पाता हूँ
समृद्ध निलय के कंगूरों को दिवास्वप्न सा देखता हूँ

शैशव से नीला अम्बर छत्रछाया छत्रपति देखा
अर्क ताप शीतल पावस से धरा को सजते देखा
अचल अचला पर कहाँ वह रेखा किसीने देखा
जिस अदृश्य रेखा पर इंसानो को कटते देखा।

रंचना : बलबीर राणा 'अड़िग'






शनिवार, 24 अगस्त 2019

लिप्सा के शूल मुझे नहीं चुभते



हर ईंट जतन से संजोयी
कण कण सीमेंट का घोला
अट्टालिकाएं खड़ी कर भी
स्व जीवन में ढेला

यह कैसा मर्म कर्मो का
जीवन संदीप्त पा नहीं सकता
नीली छतरी के नीचे कभी
छत खुद की डाल नहीं सकता

मुठ्ठी भर मजदूरी से
उदर आग बुझ जाती
चूं चूं करते चूजों देख
तपिस विपन्नता की बड़ जाती

चिकना पथ बनाते बनाते
खुरदरी देह दुखने लगी है
पथ के कंकर नगें पावों को
फूल जैसे लगने लगी है

हाँ खुदनशीब हूँ
लिप्सा के शूल मुझे नही चुभते
टाट के इस बिछावन में
फूल सकून के हम चुनते।

@ बलबीर राणा 'अडिग'

बुधवार, 14 अगस्त 2019

भविष्य वन्दना


जयति जयति हिन्दोस्तां भारत विशाला
शान से लहराता रहे ये तिरंगा हमारा
जयति जयति माँ वसुंधरा आर्यावर्त हमारा
सुख समृद्धि से उन्नत रहे हिन्दोस्तां हमारा

सत कर्मो की सेवा जगे सुत कर्मवीर हो
तेरा हर पुत्र भारत माता राष्ट्रधर्म वीर हो
जीवन जुगति प्रगति की हो सब दुर्भाव मिटे
हृदयों में उन्नति के बहु भाव जगे

श्रम शक्ति श्रीमन हो, सब मुख सुख निवाला
शान से  लहराता रहे ये तिरंगा हमारा

कश्मीर से कन्याकुमारी सुकुमार बलवान हो
मणिपुर से कच्छभुज भुजा शूर शक्तिमान हो
बिलग पंथ जातियों से गुंथी यह विपुल माला
श्रेष्ठ मनुजता का सूत्र यह अतुल्य धागा

हिन्दू मोमिन सिख ईसाईयों की एक धारा
शान से  लहराता रहे ये तिरंगा हमारा

दुःख कराल कष्ट ना हो, ना रहे कोई बेचारा
सब धर्मो का मान रहे न चुभे कोई कारा
भाई बंधुत्व की अड़िग भीत, दुर्ग अभेद्य हो
महालोकतंत्र के देश में न कोई विभेद हो

देश क्षितिज के पार तपाये ताप हमारा
शान से लहराता रहे ये तिरंगा हमारा।

गीत : बलबीर राणा 'अडिग'

मंगलवार, 13 अगस्त 2019

प्रकृति निधि


यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं
मोह, प्रेम राग/अनुराग भरे नाते हैं
चेहरे ये आते जाते राहगीरों के नहीं
ये आनन हर उर में घर कर जाते हैं।

जैसे आसमान में निर्भीक बादल टहलते
जैसे निर्वाध विहारलीन खग मृग विचरते
बे रोक-टोक आती पुरवाई बलखाती मदमाती 
नन्हे अंकुर को आने में धरती हाथ बढ़ाती
सृष्टिकर्ता की ये कृतियाँ जीवन गीत गाते हैं
यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं।


पतंग का दीपक प्रेम, पंछी का कीट
मछली का जल, बृद्ध का अतीत
उषा उमंग का निशा गमन करना
दिवा ज्योति का तिमिर हो जाना
फेरे हैं ये फिर फिर कर फिर आते हैं
यही प्रकृति निधि ..............

सुकुमार मधुमास का निदाघ तपना
निदाघ का मेघ बन पावस में बहना
तर पावसी धरती शरद में पल्लवित
तरुणाई शीतल हेमंत में प्रफुल्लित
फिर शिशिर में बुढ़े पत्ते झड़ जाते हैं
यही प्रकृति निधि........

गुरुवार, 1 अगस्त 2019

ब्रह्मपुत्र का तीर


1.
वैशाख में सजता
ब्रह्मपुत्र का यह तीर
मेखला चादर में कसी बिहू नृत्यकाएं
थिरकती हैं ढोल की थाप पर
रंगमत हो जाती मौसमी गीत पर
प्रियतम का प्रणय निवेदन
नर्तकी का शरमाना बलखाना
ना-नुकर कर छिटक जाना
प्रियतम का कपौ फूल से
जूड़े को सजाना
बिहू बाला का मोहित होना
बह्मपुत्र की जलधारा का
लज्जित हो जाना
अमलतास के फूलों का
स्वागत में झड़ना
ढोल की थाप का सहम जाना
दोनो ओर की पहाड़ियों का
आलिंगन के लिए मचलना।

2.
सुहानी संध्या
दूर तक फैला ब्रह्मपुत्र का फैलाव
मांझी भूपेन दा के गीतों को
गुनगुनाते हुए पतवार चलता
देश से आये यायावरों को
सारंग ब्रह्मपुत्र का दिग दर्शन कराता
शहर की बिजलियों की झालर
जलधारा में टिमटिमाते दिखती
नाव आहिस्ता किनारे ओर सरकती।

3.
कहर बन जाता है सावन
डूब जाता बह्मपुत्र का रंगमत तीर
सहम जाता है जीवन
लील जाता है बांस की झोपड़ियों को
जिनमें सजती हैं बिहू बालाएं
मांझी की पतवार किनारे में भयभीत
ब्रह्मपुत्र के इस बिकराल का
जीवन ध्वस्त करना
जीवन का फिर संभल कर संवरना
तीरों को गुलजार होना
सदियों से सतत जारी।

@ बलबीर राणा 'अड़िग'

गुरुवार, 11 जुलाई 2019

प्रकृति निधि


यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं
मोह, प्रेम राग/अनुराग भरे नाते हैं
चेहरे ये आते जाते राहगीरों के नहीं
ये आनन हर उर में घर कर जाते हैं।

पतंग का दीपक प्रेम, पंछी का कीट
मछली का जल, बृद्ध का अतीत
उषा उमंग का निशा गमन करना
दिवा ज्योति का तिमिर हो जाना
फेरे हैं ये फिर फिर कर फिर आते हैं
यही प्रकृति निधि ..............

सुकुमार मधुमास का निदाघ तपना
निदाघ का मेघ बन पावस में बहना
तर पावसी धरती शरद में पल्लवित
तरुणाई शीतल हेमंत में प्रफुल्लित
फिर शिशिर में बुढ़े पत्ते झड़ जाते हैं
यही प्रकृति निधि........

जैसे आसमान में निर्भीक बादल टहलते
जैसे निर्वाध विहारलीन खग मृग विचरते
बेरोकटोक आती पुरवाई बलखाती मदमाती
नन्हे अंकुर को आने में धरती हाथ बढ़ाती
सृष्टिकर्ता की ये कृतियाँ जीवन गीत गाते हैं
यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं।

निदाघ - ग्रीष्म,  पावस- वर्षा
रंचना :-  बलबीर राणा 'अड़िग'

मंगलवार, 9 जुलाई 2019

सरहद से अनहद


कर्म साधना बैठै यति को
सिद्धि का उत्साह नहीं
स्वीकारा है समिधा बनना
फिर होम की परवाह नहीं
गतिमान वह समर भूमि में
दिवा ज्ञान न निशा भान
उसके निष्काम जतन का
व्योम सिवाय गवाह नहीं ।

गिरी श्रृंगों का ठौर उसका
यायावर अज्ञातवासी है
गृहस्थी खेवनहार होकर
समाधि बैठ संन्यासी है
शमशीर थामें घात पर बैठा
राष्ट्र शांति का अजब दूत है
द्रुत प्रभंजन में पंख फैला
उड़ने का अभ्यासी हैं।

राहों में अवरोध नहीं कुछ
प्रस्तर मर्दन वह जवानी है
तारुण्य से लिखना स्वीकारा
अजेय भारत की कहानी है
उतरदायित्व जीवन अर्थ मान
गीत जनगण मन के गाता है
कारुण्य नहीं हृदय में संचित
दृग नहीं करुणा का पानी है।

जान हथेली ले चले जो
उन्हें मृत्यु का भय कैसे हो
प्राणो के इति तक प्रण प्रवीण
फिर प्रवण का संय कैसे हो
समग्र समर्पण समर्थवान
सम्पूर्ण लक्ष्य साधने तक
सरहद से अनहद जो गूंजे
फिर मातृभूमि अपक्षय कैसे हो।

रचना :- बलबीर राणा 'अडिग'

बुधवार, 12 जून 2019

जीवन का चाचड़ी बन जाना






हे प्रभु ! हे ईश्वर ! मेरे कृष्ण, पीर और ईश
समभाव वाद रहित जीवन का दे आशीष
हर जन जीवन चाचड़ी बना देना
बेमनुष्यता इस धरा से मिटा देना।

      जीवन का चांचड़ी बनना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है यह इस लिए कह रहा हूँ कि चांचडी बनने के लिए मनुष्य के विचार का कर्मो में समावेश और कर्मो का चारित्रिक समभाव होना नितांत आवश्यक है। लाख कोशिश के बाद भी सांसारिकता में रहते हुए मनुष्य का समभाव होना असभव है, इसे व्यग्तिगत रूप से मनुष्य का दोष कम ही कहूंगा बल्कि सांसारिकता की देन कहूंगा क्योकि सांसारिकता में एक मनुष्य नहीं मनुष्यों का झुण्ड होता है और झुण्ड एक भीड़ है भीड़ का कोई सुनिश्चित स्वरूप नहीं देखा गया भीड़ में किसी एक की अलग पहचान नहीं होती है, और यही भीड़ का हिस्सा रहते हुए हमारे कतिपय काम भीड़ के अनुरूप हो जाते हैं और यह परबस है चाह कर भी हम उस काम को करने से खुद को रोक नहीं सकते। क्योंकि हम सब किसी किसी वाद में बंधे है और वाद में समभाव नहीं हो सकता वाद में समभाव होना पोलियो ग्रस्त व्यक्ति का एवरेस्ट फतह करना जैसा है। मनुष्य का समभाव होना बुद्धत्व हो जाना निर्वाण होना है जिसमें जाति-धर्म, ऊंच-नीच, अगड़ा-पिछड़ा, महिला-पुरुष छोटा-बड़ा सवर्ण-दलित कुछ नहीं बल्कि मात्र मनुष्य का स्वयं होना होता है। चाचड़ी ऐसी ही अपने आप में निर्वाद गुण समाये हुए उत्तराखंड का पहाड़ी लोक गीत नृत्य है, इस गीत नृत्य में हमारा लोक जीवन क्षणिक समय ही सही वाद रहित हो जाता है स्वयं में आनंदानुभुति। यह इसकी विशिष्ठ्ता है यह इसकी महानता है जब कोई व्यक्ति चांचड़ी के घेरे में दूसरे के बाजू में हाथ फंसाये शामिल हो गया तो फिर वहां कोई वाद नहीं रह जाता है, बस होता है आनंद अतिरेक । चाचड़ी/झुमैलो को लेकर यह मेरा निजी आंकलन है इसका किसी ग्रंथ या साहित्य पृष्ठभूमि से कोई सरोकार नहीं है हां लोक संस्कृति, कला और साहित्य विदों का आश्रिवाद अपने विचारों पर जरूर चाहता हूं। एक बात और स्पष्ट करना चाहूंगा कि चांचडी खुद में निर्वाद और समभाव है बशर्ते चाचड़ी पोषक लोकाचार समभाव नहीं हो सकता क्योंकि लोक और लोकाचार किसी वाद के हिस्से हैं मैं आप  सब शामिल हैं। मेरा यह आंकलन चाचड़ी के गुणों को लेकर है या यूं कहूं कि आनंद अतिरेक की मेरी अनुभूति है जिसे सबके साथ साझा कर रहा हूँ  वादबाकी अनुभव किसी और व्यक्ति का
और हो सकता है।
      चांचडी को उत्तराखंडी लोक संस्कृति की रीढ़ कहा जाय तो अतिसयोक्ति नहीं होगी, चांचड़ी हमारा पारम्परिक लोक गायन नृत्य है, यह उस लोकसंस्कृति का नेतृत्व करता है जो पृथवी पर प्रकृति के हर स्वरूप को देव तुल्य मानता है, धार, खाळ , डाँड़ी काँठी, गाड़ गदेरे, बन जंगल खेत खलिहान, पोन पंछी, जीव नमान हर चीज के साथ मनुष्य वृति को भी इन थड़िया झुमेलों, चेती चौंफूलों आदि के माध्यम से गाता है, यह उस रीती परम्पराओं का नेतृत्व करता है जो वायुमंडल में विध्यमान हवाओं को भी परियों, ऐड़ी आछरियों को बन देवियों के रूप में मानता गाता नाचता आया है, यही इस लोक नृत्य को विशिष्ट बनाती है। चांचडी को मैं समभाव इस लिए मानता हूं कि इसमें गीत भी है नृत्य भीसमूह भी एकता भी, महिला भी पुरुष भी, स्वर भी ताल भी और सबको मिलाकर एक उमंग उत्साह आनंद का अतिरेक, कोई लिंग भेद नहीं कोई वर्ण भेद नहीं। गुजरात का गरबा आसाम का बिहू जैसे ही सशक्त यह उत्तराखण्डी लोक गीत नृत्य है जिसे हर उम्र के लोग गाते हैं नाचते हैं खेलते हैं, इसे झुमैलो नाम से भी जाना जाता है इस लोक नृत्य में देव स्तुति से लेकर लोक परम्परा, सामाजिक गीत, प्रकृति महिमा, प्रेम गीत, विरह गीत, समसमायकी गीत और हास्यव्यंग शामिल है या यूं कहें कि जीवन के विविध रगों से सजा लोक नृत्य है।  मेरे उत्तराखंड में चाचड़ी के विविध रूप हैं जिसमे चौंफुला, थडिया, तांदी, छौपती, छोलिया आदि, जो स्थान विशेष और लोकाचार पर आधारित हैं और पौराणिक काल से पीढ़ी दर पीढ़ी अपने लोक के साथ चलता आया है और यह हमारी परम्पराओं का अभिन्न अंग रहा है और आगे भी रहना चाहिए हाँ गरबा, भंगड़ा जैसे प्रचार नहीं मिला यह हम उत्तराखंडियों की कमी ही कहा जायेगा लेकिन आगे पुर जोर प्रयास किया जाय कि उत्तराखण्ड के इस लोक गीत नृत्य का राष्ट्रिय और अंतराष्ट्रीय पहचान मिले और यह हम सबकी बड़ी जिमेदारी भी है ।
            आज इस बात का दुःख है कि यह सांस्कृतिक धरोहर गांव घर से निकल कर लोकलुभाव गीत संगीत और डिजीटल वाद्ययों के साथ रंगमंचों तक तो पहुंचा लेकिन खुद गांवों में रुग्णाशन हो गया  यह चिंता का विषय है,  हाँ इतना जरूर है कि इस पीडी के कलाकारों ने इसे नए कलेवर में ढाला यह कुछ कुछ समयानुसार हो सकता है लेकिन अधिकतर गीत नृत्य पर अनावश्यक छेड़ छाड़ हो रही है जिससे इस लोकगीत या लोकनृत्य का स्वरूप ही बदल गया है, रहा है यह मंथन और चिंतन का विषय है कि सस्ती लोकप्रियता के लिए तथाकथित लोककलाकार इस अप्रितम परम्परा को आनेवाली पीढ़ी को भोंडेपन में देने जा रहे हैं। पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव इस प्रकार लोगों में पड़ गया है कि लोक की कला लोक से विमुख हो गयी है या हो जाने के मुहाने पर है। लोक साहित्य, गीत संगीत के मर्मज्ञ विद्वान जनो को कमरकस फिर से इन कारणों पर विचार करने के साथ क्रियान्वयन करने की जरूरत है तभी इस विशुद्ध विरासत को हम अगली पीढ़ी को अपने पूर्ण स्वरूप में हैंडओवर कर सकेंगे नहीं तो नियति मान चुप गर्दन निचे कर भीड़ का हिस्सा बनते जायेगे ।
@
बलबीर राणा 'अड़िग'