बुधवार, 28 फ़रवरी 2024

हुनर के बाजार में

हुनर  के  बाजार में हुस्न की कीमत  नहीं   होती,
कर्मों  की  फसल    कभी   गनीमत   नहीं  होती।

इश्क की डगर  को सीमा से आगे बढ़ाना  हो तो,
आगे  पीछे   देख लेने से  फ़जीहत  नहीं   होती।

बढ़ा   दिखने  की  चाह   में  गाँव  तो  छोड़ दोगे,
पर! ससुराल में घरजवैँ की  हैसियत नहीं होती।

मातृभूमी  के ऋण  से उऋण  होना आसान नहीं,
क्योंकि माँ के दूध की निर्धारित कीमत नहीं होती।

नशीहत  देनी है तो पहले दे  देनी  चाहिए  अडिग,
बिगड़ने  के  बाद  फिर  कोई  नशीहत  नहीं होती।

©® बलबीर सिंह राणा 'अडिग'
ग्वाड़ (मटई) चमोली
15 फ़रवरी 2024

सुपर हाईएल्टीट्यूड समर


सुपर हाईएल्टीट्यूड समर भूमी को
मनोयोग से जानना होगा
असली लड़ाई मन की यहाँ
मन से जी लगाना होगा।

अति उतुंग दुर्गम  में बैठे हो
असय कष्ट तो होगा ही
माईनस से माईनस तापमान में
शीत शूल तो चुभेगा ही
इन शूलों को दृढ़ता से
समर्थ बनके साधना होगा।

सुपर हाईएल्टी समर भूमी को
इस उतुंग समर भूमी को

हिमगिरी श्रृंगों के बीच में
ऑक्सीजन कमी ही मिलेगी
पादप वनस्पती विहीन भूमि में
साँसे उखड़ती सी लगेगी
हिम्मत बाँध धीरज रखके
सांसों को मनाना होगा।

सुपर हाईएल्टी समर भूमी को

हाड़ मांस का शरीर यह
इफाजत इसकी जरुरी है
राष्ट्र खातिर कष्ट सहना
मज़बूरी नहीं जरुरी है
पहनी है जो वर्दी अमोल
मोल इसका गढ़ना होगा।

सुपर हाईएल्टी समर भूमी को
इस उतुंग समर भूमी को

न ढीला होना ना ही दिखना
घात पर बैठा अरि देख रहा
प्रतिकूलता की इस मार को
सामने वो भी तो झेल रहा
उसकी तीक्ष्ण निगाहों में
और तीक्ष्ण तीर चुभाना होगा।

सुपर हाईएल्टी समर भूमी को

आम को जो असाध्य होता
सैनिक उसे साध्य करता
प्रबल विपदा प्रचंड काल को
झुकने पर बाध्य करता
आप ख़ास हैं वतन विश्वास को
हमेशा जेहन में रखना होगा।

सुपर हाईएल्टी समर भूमी को


@ बलबीर राणा 'अडिग'
मटई

गजल




सुख आनंद में जो जाने पहचाने निकले,
दुःख में पता नहीं क्यों अनजाने निकले।

बजाते थे जो खासम ख़ास होने का ढोल, 
उन्हीं के ढोलों के पुड़खे फटे पुराने निकले।

दोंळे पकड़ स्यूँ पैटाता रहा जिनको कलतक ,
वही जुतायी सीखने पर आज मारने निकले।

ना आने का पत्थर रख रहा था जिस माटी में,
उसी माटी में मेरे पुरखों के खजाने निकले।

मिट्टी बोली ठीक है जी लगा बैठा और कहीं तो क्या?
लेकिन ! पासणी* पर पहला कोर देने वाले क्यों बीराणे निकले?

ये गाँव-गुठयार डांडे-मरुड़े सब उसी आनंद में हैं,
इनका क्या? तुम खुद के लिए अनजाने निकले।

कटुगी* देने का ढिंढोरा जो पीटते थे अडिग,
उन्हीं के उबरे मीठे जड़* के ठिकाने निकले।


*पासणी - बच्चे को पहली बार खाना चखाने का दिन
*कटुगी - ज्वर में दी जाने वाली वनौषधी जड़
*मीठे की जड़ - कटुगी के जैसी वनौषधी जो चोट या अन्य दर्द में काम अति है पर खाने पर जहर होता है।

©® बलबीर सिंह राणा 'अडिग'
ग्वाड़ मटई बैरासकुण्ड चमोली

बबाल वाले बबालों से निकाले गये

बबाल वाले बबालों से निकाले गये,
बिगैर जबाब सवालों से निकाले गये।

धर पकड़ तक आशा थी कुछ होने की
पकड़े जाने पर कारागारों से निकाले गये।

उदघाटन में शामिल सभी कंगूरे छपा लिए गये,
नीव पर बैठे किताबों से निकाले गए।

जमाना खेलता रहा जब तक थी हवा
हवा निकली कि कबाड़खानो से निकाले गए ।

बटुवे के बजन तक सुमिरन में था अडिग
बटुवा खाली हुआ कि ख्वाबों से निकाले गए।

©® बलबीर राणा अडिग