शनिवार, 18 जुलाई 2015

मेरा हिम प्रवास

जाने कैसे कटते दिन कैसी गुजरती है रातें
ठिठुरता रोम रोम और क्रन्दन कराती है हवाएँ
तुझसे क्यों खपा होने लगा मैं गिरिवर
रचने वाले ने खिलोने में दी तेरी ये फिजायें।

दूर से जितना मोहक लगता है तू हिम शिखर
तेरा आँगन निर्जीवटता बिष पुष्पों से भरा है
डरता है सजीव जीवन तेरे आशियाने से
इस लिए मंद मूक मुश्कान लिए तु निश्चल खड़ा है।

क्यों नहीं पूछता उन नराधम इन्शानो से
जिन्होंने तुझ ऋषि पर भी हक़ की रेखा खींच दी।
क्या खोएगा क्या पायेगा वो तेरे शैल खंडो से
स्वेत मृत आवरण पर भी जिन्होंने मुठ्ठी भींच दी।

कितनी भी खीज उतार तू शीत बबडंरों के झोंको से
डगमगाउँगा नहीं पला हूँ मैं भी माँ भारती की ढूध् की धार से
क्यों ना कट जाए सर, निकल जाए सांस इस जेहन से
पहरा करेगी रूह अडिग की, घूम घूम तेरी इन चोटियों से।

रचना-: बलबीर राणा 'अडिग'

कोई टिप्पणी नहीं: