धरा पर जीवन संघर्ष के लिए है आराम यहाँ से विदा होने के बाद न चाहते हुए भी करना पड़ेगा इसलिए सोचो मत लगे रहो, जितनी देह घिसेगी उतनी चमक आएगी, संचय होगा, और यही निधि होगी जिसे हम छोडके जायेंगे।
बस? मुठ्ठी भर सुख और ! बक्सा भर दुःख उठा लाया , फिर क्यों बोझ ढोने को रोता है धतूरा जो तु बोता है।
समेटा है संभाल मुँह चुरा न भाग अमानत तेरी, मुझे क्यों उठाने को कहता है घडी- घडी प्रार्थना करता है।
रचना:- बलबीर राणा 'अडिग'
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