रविवार, 6 अप्रैल 2014

तन्हायी संग

4.भोर दूर हिमगिरी श्रिंखला की अनुपम छटा देख,
मन मुग्द होकर पूछ बैठा
क्या कभी मेरा धीर तेरे धीर जैसा रह पायेगा,
ईमान मेरा तेरे जैसे अडिग रह पायेगा,
हिमगिरि बोला
इस प्रश्न का उत्तर मेरे संग बारह मास तठ्स्त सैनिक के पास है
विषम परिस्थिति पर भी जिसका राज है
तभी हिमगिरी का एक खंड भरभरा विखंडित हो जाता है
वह अडिग सैनिक रिपु बाण छाती सह शांत हो जाता है।
क्षण भर में वह अडिगता क्षोभ का घूँट जाती है ।
और मै अपने सवालों का जबाब नहीं ढूंढ पाता हूँ
मैं अक्सर तन्हायी को बुलाता हूँ।
5.
तन्हायी की खामोसी शांत नहीं बैठ पाती
जीवन के प्रति जुजुप्त्सा बढती जाती,
सृश्ठी की इन रचनाओं के बीच
मेरी रचना की मंजिल दूर नजर आती,
इसी तरह सत्य पथ के गंतव्य पर,
तन्हायी संग तन्मय चलता हूँ।
मैं अक्सर तन्हायी को बुलाता हूँ।
6.
शील समुद्र की शालीनता देख
आदतन पूछ बैठा
क्या कभी मेरे दिल की चंचलता
तेरे जैसे अचल हो पायेगी
अपने उदर में लाखों जीवों का, संसार बसा पायेगी,
तभी ज्वार भाटा का जलजला किनारों को तोड़ अपने गर्भ में ले जाता,
किनारों के बचे जीवन के क्रंदन सुन फिर व्यथित हो जाता हूँ।
मैं अक्सर तन्हायी को बुलाता हूँ।
6.
सृष्ठि की इस दोधारी तलवार के पैनेपन को
मेरी तन्हायी जब तक परख पाती
तभी एक आवाज कानो से टकरायी,
मत भटक धरा के ओर-छोर
तेरे सवालों का जबाब
मेरी उत्तम रचना मानव मस्तिस्क ही है,
दृष्टि बदलेगा तो मैं सृष्ठि बदल जाऊँगी,
जीवन का सच तुझे समझा पाऊँगी।
फिर एक बार अंतर मन में झांकता हूँ
खुद पर ही खुद को हंसता देखता हूँ
मै अक्सर तन्हायी को बुलाता हूँ।
क्रमश: -

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