मंगलवार, 10 जून 2014

तन्हायी की राह

उन तन्हा राहों में हम सफ़र नहीं मिला जिधर भी गया 
जिन्दगी के रस्तों को राहगीर की  तरह छोड़ता गया।

दुनियां को क्या देखता वह अपने को संवारती रही
मेरा सपनो का महल शीशे कि तरह टूटता गया।

उलझनों की कड़ियाँ  बिखरी पड़ी  थी उन राहों में 
सुलझाने की कोशिस में खुद ही उलझता गया।

चमन की बहारों से गुजरने को अब जी नहीं चाहता
यौवन में तन्हायी की राह पकड़ी थी चलता गया।

ना जाने कब होगा गंतब्य पूरा इस बीरान रस्ते का
चलते चलते जीवन का चौथाई पखवाड़ा गुजर गया।


कोई टिप्पणी नहीं: