मंगलवार, 3 जनवरी 2017

बुझती अग्नि की उमंग


उजली हैं दिशाएं छंटने लगा कुहासा
कुचली हुई शिखाओं की जगने लगी आशा
कोई जरा बता दे ये कैसे हो रहा
धुंधली तिमिर का तेज क्यों चमक रहा
अपसय की झालर धूमिल पड़ गयी
आकंठ झोपडियों की माला दिप्त हो गयी
किस दाता ने संदीप्ति को जिला दीया
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दिया
इस वतन के हित का अंगार मांगता हूँ
सो रही जवानियों में ऐसा ज्वार मांगता हूँ।

बैचैन थी हवाएं, चहुँ और हुदंगड़ था
सालीन किश्ती को बबंडर का डर था
मँझदार में था केवट ओझल था किनारा
उछलती लहरों के कुहासे में चमका सितारा
नभ का अनल लिख दे सदृष्ट हमारा
भगवन इसी तरह भगा देना अँधेरा
तेरी किरण से ऐसा ही संग्राम मांगता हूँ
ध्रुव पर भारत की यही  पहचान चाहता हूँ।

कुचक्र के पहाड़ से अवरुद्ध थी गंग धारा
शिथिल था बलपुंज केसरी का वेग सारा
अग्निस्फुलिंग रज  ढेर होने के कगार था
स्वर्ण धरा का यौवन अँधेरे में भटक रहा था
निर्वाक था हिमालय यमुना सहमी हुई थी
निस्तब्धता थी निशा, दुपहरी डरी थी
ऐसा ही विकराल भीमसेन का माँगता हूँ
भ्रष्टाचारियों के जिगर यही भूचाल माँगता हूँ।

मन की बंधी उमंगें फिर पुलकित हो रही हैं
अरमान आरजू की बरात सजित हो रही हैं
भीगी दुःखी पलों की रातें सुनिन्द सोने लगी
 विक्रमादित्य की वसुन्धरा मुश्कराने लगी
क्या ब्राह्मण क्या ठाकुर क्या कहार कुर्मी
लाज के मारे कीचड़ में लिपटी थी लक्ष्मी
गर्त में पड़ी मानवता का उत्थान माँगता हूँ
शासक अभिमन्यु शिवाजी तूफान माँगता हूँ।

भर गया था भयंकर भ्रष्ट टॉक्सिन हर रग में
बेचैन थी  जिन्दगी  घर घर में
ठहरी हुई साँस को रस्ता मिलने लगा
गरीब के घर आशा का दीप टिमटिमाने लगा
लेकिन राजनीति के इन शकुनी पांसों से
निजात मिलना आसान नहीं लगता
असंख्य दुर्योधनों के संग कुरुक्षेत्र में
कटने का संशय कम नहीं लगता
प्यारी जन्मभूमि के हित वरदान माँगता हूँ
कृष्ण सदिस ऐसा ही भगवान माँगता हूँ।

रचना : बलबीर राणा 'अडिग'
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