रविवार, 18 फ़रवरी 2018

कुर्सी पर चूं नहीं हुई



रहा जीवन सदियों से कुर्सी की दासी
महल अजीर्ण, बाहर भूखी उबासी
जन घिसता रहा पिसता रहा
पर कुर्सी तुझ पर चूं नहीं हुई।

बुद्धि लिखती रही, बेबसी बकती रही
लाचार मरता रहा ईमानदार खपता रहा
बाहर नगाड़े फूट गए बज-बज कर
लेकिन कुर्सी तुझ पर चूं नहीं हुई।

साल बदलते रहे सार बदलता रहा
कुर्सी पर आदम से, आदमी बदलते रहे
तख्त बदलता रहा ताज बदलता रहा
लेकिन तुझ कुर्सी पर चूं नहीं हुई।

वादे होते रहे करार होती रही
कुर्सी के लिए ललकार होती रही
लपका ली गयी कुर्सी उम्मीदें देकर
लपकाते समय कसमकसाई जरूर
लेकिन चूं फिर भी नहीं हुई।

@ बलबीर राणा 'अडिग'

7 टिप्‍पणियां:

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन नलिनी जयवंत और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

Pammi singh'tripti' ने कहा…

आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 21फरवरी 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

Sudha Devrani ने कहा…

बहुत सटीक...
वाह!!!

NITU THAKUR ने कहा…

वाह!!! सूंदर भाव और शब्द चयन
शानदार रचना

कविता रावत ने कहा…

असली खेल कुर्सी का ही रहता है। कुर्सी जिन्दा रखती है इन्हें
बहुत सटीक !

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छा जागरूकता भरी पोस्ट लिखते हैं आप, लिखते रहें, हार्दिक शुभकामनाएं !

कविता रावत ने कहा…

जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं