वह अहसास आज भी सुकून देता है
और मैं लौट जाता हूँ अपने बचपन में
अपने सीढ़ीनुमा खेतों की मुंडेरों पर
फाल मारने और उस सौंधी सुगंध वाली
मिट्टी में लतपत होने ।
वह अहसास लौटा देती है मुझे
मेरी ब्वै की कुछली
जिसमें मैं दुबक जाता था
पड़ोस के दीनू से छेड़खानी करने के बाद।
और वह अहसास लौटा देता है मुझे
मेरे गांव की गलियों में, चौक/खौलों में
जहां गुच्छी और गुली डंड़ा
गोधुली तक चलता रहता
जब तक माँ आवाज नहीं देती
आजा घर तेरी खैर नहीं।
फाल = कूदना, ब्वै = माँ, कुछली = माँ की गोदी
@ बलबीर राणा 'अड़िग'
5 टिप्पणियां:
आपकी यह ह्रदय स्पर्शी कविता तुरंत मन को उस अतीत में ले जाता है जब इसी तरह हम एेसे ही कुदते-फांदते थे |
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २८ जनवरी २०१९ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
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dhanawad bhula Girish Notiyal ji aur shriyut Dhruv Singh ji
बहुत ही सुन्दर मनभावनी सी प्रस्तुति...
गढ़वाली भाषा का अद्भुत समन्वय रचना को और भी रोचक बना रहा है...
बहुत ही लाजवाब...
सहृदय आभार आदरणीय सुधा जी
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