मेरे मुल्क के लोग आहिस्ता बदलने लगे हैं
जब से वे घर छोड़ मकानों में रहने लगे हैं।
जब से वे घर छोड़ मकानों में रहने लगे हैं।
घर, धाम था, देवस्थान था जहाँ प्रीत बसती थी
मकानों में रुतवा रुस्तम दर्प ठहरने लगे हैं।
थालियों से कोर लेनदेन का अप्रमेय नेह था घर में
मकानो की मेजों पर कोर एकला अकेले होने लगे हैं।
घर में गरीबी चिंथड़ों में फुदकती थी, लाज पर
मकानो में अमीरी के लिबास कम होने लगे हैं।
हर्ष विसाद मिल बैठ बाँटता था परिवार घर में
अब पृथक कमरों में रिश्ते तन्हा सिकुड़ने लगे हैं।
दूर धार घरों से धै धवाड़ी अपनापन भटयाती थी वहाँ
यहाँ सटे मकान के बंद दरवाजे फुसफुसाने लगे हैं।
घरों की दीवारों पर देवता मैले ही मुश्कराते दिखते थे
मकानों की कोठरी में चमकते हुए भी मौन रहने लगे हैं ।
जब घर था तब डर था, मान, मर्यादा थी अडिग
अब मकानों में बर्ताव बेलगाम बेधड़क होने लगे हैं।
धै धवाड़ी - आवाज देना
भटयाती - जोर जोर से बोलना
@ बलबीर राणा ‘अडिग’
4 टिप्पणियां:
धन्यवाद पम्मी सिंह जी
घर में गरीबी चिंथड़ों में फुदकती थी, लाज पर
मकानो में अमीरी के लिबास कम होने लगे हैं।
हर्ष विसाद मिल बैठ बाँटता था परिवार घर में
अब पृथक कमरों में रिश्ते तन्हा सिकुड़ने लगे हैं।
वाह , शानदार ग़ज़ल । बदलता परिवेश और आपकी ग़ज़ल बेहतरीन
बहुत सुंदर रचना
मेरे मुल्क के लोग आहिस्ता बदलने लगे हैं
जब से वे घर छोड़ मकानों में रहने लगे हैं।
घर, धाम था, देवस्थान था जहाँ प्रीत बसती थी
मकानों में रुतवा रुस्तम दर्प ठहरने लगे हैं।..सही कहा आपने,वो पहले वाली बात अब कहां ?
एक टिप्पणी भेजें