आज नजर पड़ी
बिना पांव के
उन प्रिय जूतों पर
जो पिताजी के प्रिय थे
लोकलाज
शान सम्मान के द्योतक थे,
लेकिन आज
निरा तिरस्कृत
कौने में पड़े
धूल से सने,
तलवे वैसे ही चकत्तेदार चौखट,
जैसे कि आज से
ठीक पच्चपन साल पहले
जब ये फैक्टरी से निकले होंगे,
पिताजी पहनते नहीं थे
ले जाते थे इन्हें
काख में दबाके
रस्ते भर,
ताकि गंतव्य में अगले गांव
आते ही कुछ समय पहनके
दिखा सके जूते पहनने की हैसियत,
और
आजीवन नंगे पांवों में बिवाईयां
गाड़ते रहे पहाड़ की पगडंडियों पर
मेरे लिए ।
@ बलबीर राणा 'अडिग''
19 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 21 जून 2022 को साझा की गयी है....
पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
धन्यवाद आदरणीया यशोदा जी
सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-6-22) को "पिताजी के जूते"'(चर्चा अंक 4467) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
ओह, मार्मिक ।
धन्यवाद कामिनी जी
आभार महोदया
दिल को छूती रचना।
आभार महोदया
ताकि गंतव्य में अगले गांव
आते ही कुछ समय पहनके
दिखा सके जूते पहनने की हैसियत,
और
आजीवन नंगे पांवों में बिवाईयां
गाड़ते रहे पहाड़ की पगडंडियों पर
मेरे लिए ।
पिता को समर्पित बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना । मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
हृदय स्पर्शी सृजन पढ़कर अशोक वाजपेयी जी की रचना जूते का स्मरण हो आया।
सादर
बहुत सुंदर भावप्रधान रचना
अविस्मरणीय।अपनों की याद दिलाती हुई।
हृदयस्पर्शी रचना मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
धन्यवाद भास्कर जी
वाह! मुझे आज अपने पिता की बहुत याद आ रही थी। जब पिता नहीं हो सकते, तो पिता की तस्वीरें, और पिता पर लिखी कविताएँ दर्द पर फ़अहे का काम करती हैं।
आभार कविता जी
धन्यवाद महोदया
धन्यवाद महोदय
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