वैसे ही जाना है मैंने
जैसी
पंछी ने आसमान
मछली ने पानी को ।
जैसी
पंछी ने आसमान
मछली ने पानी को ।
वैसे ही
पकड़ के रखता हूँ इसे
जैसे
हरियल लकड़ी को ।
जैसे
हरियल लकड़ी को ।
वैसे ही तरसता
मचलता हूँ
जैसे
चातक घटाओं को।
साफ स्वच्छ देखा है मैंने इसे
कुहासे में बरखा की बूँद सा
धुंधले में धुला
कांच का वर्तन सा ।
फिर समझ पाया
कि
अगर ये छूट गया तो
टूट गया
फिर यह
अनगिनत
नुकीले व धारदार
शूलों में बदल जायेगा
और फिर
चुभता रहेगा जिगर पर
काटता रहेगा शरीर को
जीवन भर ।
इसलिए
हर पल, हर घड़ी
संभाल के रखता हूँ
कहीं छूट ना जाए
टूट ना जाए
यह प्यार।
8 फ़रवरी 23
#अडिगशब्दोंकापेहारा
@ बलबीर राणा 'अडिग'
5 टिप्पणियां:
धन्यवाद यादव ज़ी
व्वाहहहहहहह
पंछी और मछली की
सुन्दर व्याख्या
आभार
सादर
हार्दिक आभार महोदया
वाह! बहुत खूब साहब। ऐसा प्रेम सौभाग्य है।
धन्यवाद शाह ज़ी
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