ओह ! कितनी
तपिश,
इस प्रेम
पथ पर
तन मन
जलता,
अतृप्त
यौवन
जडवत जीवन
यात्रा,
अडिग मन की
इच्छा
मंजिल पाने
को आतुर,
मंजिल प्रियतम के
प्रेम छांव
की,
जिस प्रेम
की शीतल छांव में
जीवन
गुजारना है..
लेकिन !
क्रूर मानव
प्रवृति
बाधा बन
बैठी राह में,
बाधा धर्म
की,
जाती
संप्रदाय की,
ऊँच नीच
की,
अरे ! मानव
भेदियो
तुम क्या
बाधा बनोगे ?
प्रेमियों
की प्रेम पथ की यात्रा
मर के भी
तथस्ठ रहती.....
५ अप्रेल
२०१३
बलबीर रणा "भैजी"
© सर्वाध सुरक्षित
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