युग-युग से तु अजर-अमर, युग-युग से अजेय रहा ।
जटा-लता से लिपट अडिग, प्रांगन तेरा
शुचित रहा ।
सोम्य, शांत आँचल गिरिवर, अखंड तेरा वक्ष रहा ।
चिर समाधि में लीन यति, आशीष तेरा भारत पर रहा ।
जब मनुष्य इस युग का, स्वयं श्रृष्ठी निर्माता बन चला ।
अखंडता तेरी विखंडन कर, अचल तन्द्रा विचल करने
चला ।
विकाश के महल सजते गए, छेदन पर छेदन, तेरा होता गया ।
दर-दर कोलाहल, कलिकाल का सुन, मौन तेरा भंग होता गया ।
मद के लोलुप विकाश दूत, मणीया तेरी लूटते रहे ।
मंच विनाश लीला का, तेरे मस्तक सजाते रहे ।
शक्ति क्षीण होती देख, तुझ नगपति का धैर्य खोता गया
।
रौद्र तेरा रुद्र, रूप बन, दूषित आँगन शुचित कर गया ।
पर्वतराज तेरा कराल स्वरुप,
अधर्म निर्लिप्तता से,
जग को जगा गया ।
आधुनिकता, खंडित जीवन अपना देख,
फिर तुझे समझने को बाध्य हुआ ।
२४ जून २०१३
....... बलबीर राणा “भैजी”
सर्वाध © सुरक्षित
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