यूँ अंखियों तें कु समझालू
खुलण त
औंशुन टबरान्दा
लगण त
स्वपनिल स्वेणा
देख्दा
मनऽकी बोला ना?
कबि तिरवाल कबि
ढ़िस्वाल
कबि उकाल कबि उन्दार
अर दिलऽक !
एऽक कप्त्याट्,
कब्ळाट्,
होऽर घबग्याट् ।
यु पराणी
माया बिगेर रे नि सकदी
मथि वाळा
लोभ दिखायीं मोत
लुकयीं
लोभ मायाक सिक्का
द्वी पहलु
बिगेर दौं-किल्वाडा बंधियों
मन-पराण, ज्यू-जागा
सबी बंध्याँ
यु अगासमात्री लग्लू
दिनप्रिती
म्यार चौं तरफां घेरण
लग्युं,
खैरी औन्दी,
हैंसी-हैंसिक जलणम
रुवे-रुवेक हैंसणम्
होर पीड़ाक छैलाऽम्
ये सुख्याँ होंठड़ियों
पर
मुल-मूल्याट!
अरे! डाळा तू किले छे
ये बुडापम मायाक
पिछ्वाडी पडि्यों
नया बीज ये बण नि
जमी त्
कखी ना कखी त जमोण
लग्याँ
सुधि छन वोंतें
रुवोणु
जोन पिछवाडी मुड़ी नि
देखण,
अवाज
पच्छ्याणी त
वर्तमान
छे भितर बटिन भट्याणु।
१५ मई २०१४
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रचना
– बलबीर राणा “अडिग”
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