डाळा तु किले?
मुक्ति चाणू च
माऽटा से,
तेरी जड़ जग्वाळ माटू ही च,
तु कत्गा भी लम्बू ह्व़े जा
त्वेल असमान नि पोंछण,
छोड़ी दे! तों झूटा स्वपनियों तें,
असमान आज तक
क्वी नि पोंछी !
ना रेन!
जु भी उऽडा
घूमी-फिरी
बैठि धरती मां
वख क्वी ठौर नि होंदु ।
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बलबीर राणा “अडिग”
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