कार्टून का मोगली नहीं
असली जीवन का मोगली है
गाँवों का बचपन
चेहरों पर हंसी ही नहीं
अंदर से भी ठहाका है
निर्भीक अभयारण्य
प्रकृति वैभव में
कूदते हैं फांदते है
छलांगे लगाते है
क्योंकि ये अभी
विकास की जद में
नहीं आये
जद में आते ही
बन जाएंगे ये भी
बस्तों के नीचे दबे
रिमोट से उछलने
वाले बेबी।
@ बलबीर राणा 'अड़िग'
3 टिप्पणियां:
बचपन गांव का हो या शहर का निश्चल, निर्मल,निस्वार्थ होता है.. . ना भविष्य की चिंता ना वर्तमान का खौफ बस अपनी मौज में मस्त
लेकिन अब शायद ये बचपना तकनीक जाल में खो रहा है
सुन्दर रचना के लिए शुभकामनाएं
बहुत बढ़िया...
sahriday aabhar yashoda ji Ashwni ji, prakash sah ji
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