मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

कभी नहीं छूटता चलने को




कभी नहीं छूटता चलने को,
संघर्ष जीवन से निकलने को।

सुरज इस लिए रोज डूबता है,
फिर एक नईं सुबह उगने को।

वक्त चलायमान रुकता कहाँ, 
वक्त होता ही है गुजरने को।

लगे रह हैरान परेशान न हो,
तू आया ही है कुछ करने को।

संजो समय को सामर्थ्य से,
सामर्थ्य होता ही संवरने को।

कर्म का नाम ही जीवन अडिग,
कर्म बिन जीवन न निखरने को। 


@ बलबीर राणा 'अडिग'

गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

नीव के पत्थरों को कंगूरे पर विराजमान करने का श्रमसाध्य है ‘शेष स्मृति शेष’

 


देशकाल व समय के साथ हमें परिस्थितीजन्य स्थिति ग्रहण करनी पड़ती है और इन्हीं परिस्थितियों से उत्पन होता हमारा लोक व्यवहार व लोकाचार, साथ में परिस्थितियों की जननी जीवोपार्जन की स्थितियां भी लोक व्यवहार व लोकाचार गढ़ने में अहम भूमिका अदा करती हैं। कहते हैं जीवन में कुछ अतरिक्त करने के लिए अनुकूल संसाधनों या मद पारितोषिक का होना अनिवार्य माना जाता है लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कैसी भी परिस्थितियों में कुछ विशेष करके विशिष्ट बन जाते हैं और आम से खास की श्रेणी में आ जाते हैं। खास लोगों के पास कुछ विशेष प्रतिभा एवं क्षमताएँ तो होती ही हैं, इसके साथ उनके पास होती है वेहतर संप्रेषण कौशलता, यथोचित तर्क, आत्म-चेतना, चिन्तन, सदाचार एवं सम्मान की प्रबल भावना। ऐसे ही अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों में विशेष करने वाले विशिष्ट व्यक्तित्वों को आम समाज से रू-व-रू कराने वाली  पुस्तक है शेष स्मृति विशेष

          दिवंगत विभूति प्रसंग निबन्धात्मक आलेख संग्रह के लेखक हैं श्री नरेन्द्र कठैत जी। उपरोक्त विशेषता व विशिष्टता हेतु शूक्ष्म भूमिकीय शब्दों की भावांजली पुस्तक के लेखक के लिए भी प्रेषित करता हूँ कि जिन विशिष्ट व्यक्तित्वों को आपने उकेरा है जो हमारे समाजिक भवन की नीव की ईंट रूप में अविचल हैं उन्हें कंगूरे पर स्थापित करके आम समाज को दृश्टव्य बनाने का जो श्रम आपने किया वह वंदनीय ही नहीं अपितु स्तुत्य है। ऐसे ही स्तुत्य कार्य की पहचान आपकी विशेष जन विशेषएवं ये ! ज्ञान के कठैत पुस्तकें भी हैं। पुस्तक पर आऊं कि इससे पहले मैं स्वनामधन्य श्री नरेन्द्र कठैत जी के साहित्य जीवन से परिचय कराना चाहूँगा।

          वैसे तो श्री नरेन्द्र कठैत भैजी किसी नाम के मोहताज नही हैं फिर भी कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आप उस परम्परा के साधक हैं जिन्होने अपनी बहुविध रचनाक्रम में देवभूमि उत्तराखण्ड के कण-कण व समाजिक जीवन के क्षण-क्षण को छुआ है। आपने अपनी चिर परिचित व्यंग व विवेचनात्मक शैली में साहित्य की सभी विधाओं में सृजन किया। वैसे तो कठैत जी बहुत लम्बी साहित्य यात्रा कर चुके हैं लेकिन आगे इस पथ पर अविराम गतिमान हैं सट्म-सूट। आपकी इस यात्रा की उपलब्धियों में अभी तक गढ़वाली व हिन्दी में तेईस से उपर पुस्तकों का सृजन हो चुका है। जिसमें - निबंधात्मक आलेख संग्रहों में ये ! ज्ञान के कठैत’, ‘विशेष जन विशेषशेष स्मृति शेष। कविता संग्रह में टुप-टप्प, तबारि अबारि। खण्ड काव्यों में पाणि, डाळै विपदा। नाटकों में डॉ आशाराम, पाँच पराणी पच्चीस छ्वीं। व्यंग संग्रहों में कुळ्ळा पिचकरी, लग्यां छां, अड़ोस पड़ोस, हरि सिघौ बग्गि फस्ट, आर-पारै लड़ै, समस्या खड़ि च, नाराज नि हुयां, बक्कि तुमारि मर्जि। जीवनी में बी. मोहन नेगी, अब यिं सब्द बि हमारा गुरुमंत्र छन। संपादन  में ख्यातिनाम चित्रकार बी. मोहन नेगी (सृजन विशेष स्मृति शेष)। अनुवादित पुस्तकों में जिन्दग्या बाटा मा (डॉ रमेश पोखरियाल निशंक की हिन्दी कविताओं का गढ़वाली अनुवाद), मुंड मा आग/पीठ मा पाड़ (136 लब्धप्रतिष्ठ कवियों की प्रमुख रचनाओं का गढ़वाली अनुवाद), चन्द्रहार (हिमवंत कवि चंद्रकुवर बर्त्वाल की 160 हिन्दी कविताओं का गढ़वाली अनुवाद), इसके साथ अभी टुप-टप्प पुनः प्रकाशन और अन्य दो पुस्तकें प्रकाशाधीन हैं। इसके साथ आपकी दो पुस्तकें श्री गुरू राम राय विश्वविघालय, देहरादूनद्वारा संचालित Syllabus of Garhwali language and Culture के अन्तर्गत बी.ए. तथ एम.ए. के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं। साथ में आपके समसमायिकी लेख, व्यंग, कविताएं एवं अनुवाद देश व प्रदेश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं।

          वहीं पुरस्कार/सम्मानों की बात की जाय तो श्री कठैत जी को कतिपय विशिष्ट संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है जिनमें गढ़वाली भाषा में मौलिक व उत्तकृष्ट व्यंग लेखन के लिए आदित्यराम नवानी पुरुस्कार। साहित्यांचल कोटद्वार द्वारा हिमाद्री रत्न सम्मान। उत्तराखण्ड भाषा संस्थान देहरादून द्वारा लोकभषा में उल्लेखनीय योगदान हेतु डॉ गोबिन्द चातक सम्मान। उत्तराखण्ड लोकभाषा साहित्य मंच दिल्ली द्वारा महाकवि कन्हैयालाल डंडरियाल साहित्य सम्मान’, एवं उत्तराखण्ड भाषा संस्थान देहरादून का उत्तराखण्ड साहित्य गौरव सम्मान शामिल हैं। और आपकी निरंतर साधना आगे निज भविष्य में राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय फलक के पुरस्कार/सम्मानों की बाट को प्रसस्त करता है। साथ में हमारे लिए गौरव की बात है कि उत्तराखण्ड की धरती से आप मात्र ऐसे व्यंगकार है जिन्हें नेटबुक्सद्वारा प्रकाशित इक्कीसवीं सदी के श्रेष्ठ 252 अंतराष्ट्रीय व्यंगकारों में प्रतिष्ठत किया गया है।     

          यह था दिवंगत विभूति प्रसंग निबन्धात्मक आलेख संग्रह शेष स्मृति विशेषके लेखक का शूक्ष्म साहित्य पारिचय, शूक्ष्म इस लिए कह रहा हूँ कि जितनी विस्तृत उनकी कलम है उसके लिए यह नाकाफी है। और कहने में गलत नहीं होगा कि श्री कठैत जी ने अपने सृजन को जितना प्रतिष्ठ किया है अब उसे शोध द्वारा पूर्ण प्रतिष्ठा रूप मे स्थापित करना जरूरी नहीं जरूरत है। 

          वापस शेष स्मृति विशेषपर। 86 पृष्ठों में समवेत यह निबन्धात्मक आलेख संग्रह इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड नोएडा द्वारा प्रकाशित किया गया है जिसका मूल्य 300 रूपये मात्र रखा गया है। पुस्तक की भूमिका उत्तराखण्ड भूमि के प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ हिर सुमन बिष्टजी द्वारा लिखी गई है। पुस्तक में लेखक द्वारा 15 ऐसी दिवंगत विभूतियों के जीवनवृन्त व कृतत्व को उल्लेखित किया है जिनका साहित्य व समाज में अतुलनीय योगदान रहा, वशर्ते समाज आज उन्हें लब्धप्रतिष्ठ रख पाया या नहीं यह समाज की है परन्तु लेखक द्वारा इन विभूतियों को उनके किए का जो शिला दिया गया है वह वाकई स्तुत्य है।

          आम देखा जाता है कि जब तक व्यक्ति जिन्दा है और कुछ कर रहा है तो समाज उनसे सीखता भी है प्रेरणा भी लेता है लेकिन उनके जाने के बाद कुछ श्राद्धांजलि संवेदनाओं के साथ समाज उन्हें आए गये में भूल जाता है और वे नीव के पत्थर सदैव नीव पर ही अस्तित्व विहीन रह जाते हैं। लेकिन पुस्तक के लेखक ऐसे व्यक्तित्व हैं जों ऐसे नीव के पत्थरों को अपनी कलम पर उकेर कर पुस्तकों में सदैव के लिए चिरंजीवी स्तुत्य बनाते हैं।

          पुस्तक के आमुख में लेखक लिखते हैं कि शेष का क्षेत्र कम नहीं अपरिमित है, शेष हर ताप में तपे हुए ऋषियों की कृति है। विशेष अगर विरल है तो शेष अविरल। शेष से हम जितना ग्रहण कर सके उतना कम है। शेष कर्मठता, सहजता, सादगी, निश्छलता और तमाम मानवीय मूल्यों के प्रतीक रहे हैं। शेष ही वे नीव के पत्थर हैं जिनके बल पर विशेष की इमारत खड़ी हुई है। बिल्कुल विशेष की इमारत खड़ी होती है और होती रहेगी। शेष ना हो तो विशेष होने की संभवना ना के बराबर रहती है और दुनियां का इतिहास गवाह है कि शेष की बुनियाद पर ही विशेष के भवन खड़े हुए हैं चाहे क्षेत्र विषय कुछ भी रहा हो। 

          पुस्तक में पहला आलेख ऋषितुल्य साहित्यकार सुदामा प्रसाद प्रेमीजी की स्मृति पर है जिसमें प्रेमी जी के पूरे जीवन वृन्त व साहित्य वृन्त का उल्लेख तो है ही पर एक बहुमुखी साहित्य प्रतिभा की दीनता की विभौर करने वाली कहानी भी सामने आती है। फिर अपने से सवाल उठता है कि क्या दुन्यां को अपने चिन्तन से चेतना देना अपराध था कि जो उन्हें इतनी दीनता में जीवन यापन करना पड़ा ? साथ में एक ऐसे दृड इच्छाशक्ति वाले व्यक्तित्व का परिचय होता है जो घौर अभवों मे भी अपनी पारिवारिक जिम्मेवारियों का निर्वहन करते हुए कभी भी कलम से मोह भंग नहीं करते हैं। साथ में एक और बिडंबना सामने दिखती है कि जब किसी कला साहित्य या अन्य विशिष्ट प्रतिभाओं की संतति उनकी राह के इतर अन्यत्र दूसरी राह पर जीवोपार्जन करते हैं तो उनका अपने पितृ कला धरोहर पर ज्यादा मोह नहीं रहता है, जिससे वह धरोहर बक्सों व स्टोरों में सदा के लिए गलके समाप्त हो जाती है, लेखक की इस बात की चिन्ता उन सभी सृजनकर्ताओं के लिए भी है कि जब उस धरोहर को संभालने वाला परिजन सक्षम नहीं होते तो क्या सरकार या उससे तालुक रखने वाले लोगों का दायित्व नहीं होता कि उसे संभाला जाय ? 

          दूसरा आलेख कागज के बिन्दू से भूगोल के सिंधु तक का महायात्रीभावांजली में डॉ कुँवर सिहं नेगीजी के जीवनवृंत को जींवत किया गया है। सुरूवात में लेखक कहते हैं कि गंगा से जुड़े हरेक पत्थर की अलग-अलग संघर्ष गाथाएँ हैं। कह नहीं सकते कौन-कौन पत्थर कितने गिरे-पड़े, किस-किस पत्थर ने कहाँ-कहाँ कितने घाव सहे। बिल्कुल एक बेडोल पत्थर बिना संघर्षों के घाव सहे बिना गोल घळमळकार सुन्दर गंगलोड़ा नहीं बन जाता ? अनगिनत ठोकरों के बाद ही कोई पत्थर गंगलोड़ा बनता है। एक साधारण सैनिक से भारत की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में ब्रेल लिपी के जनक, ब्रेल लिपी में सभी भारतीय धर्म दर्शन व ग्रंथों को तैयार करने वाले अति विशेष प्रतिभा के दर्शन होते हैं, वास्तव में डॉ नेगी ऐसे पूजित गंगलौड़े हैं जिन्हें लिंग रूप में स्थापित किया जाना चाहिए। इस कृतित्व वृन्त आलेख में भी लेखक के सम्मान भाव व पैनी पारखी नजर की झलक मिलती है कि डॉ नेगी की जन्मभूमि अयालगाँव में उनकी स्मृति स्वरूप अब उनके घर की मात्र दो दिवारें शेष रह गई हैं, इसे पलायन की विभीषिका कहें या अपनों की उदासीनता दोनो सही हो सकते हैं और ये भी अरुचिकर व चिन्तनीय है कि उनके ही परिवार और गाँव की नई पीढ़ियां उनके रचना संसार से अपरिचित हैं।

          पुस्तक के तीसरे आलेख में विडम्बना देखिये ! खबर बनने में भी पाँच माह लग गयेचिन्तन पंक्ति से ख्यातिनाम साहित्यकार श्रेधेय कुलदीप रावत जीको श्रद्धांजलि के साथ साहित्य में उनके योगदान को उधृत किया गया है। दिल्ली प्रवास में रहते हुए अपनी थाती-माटी के लिए समर्पित कलम के दर्शन होते हैं और साथ में साहित्य और शिक्षा के लिए आजीवन समर्पित रहने वाले मनीषी का अद्भुत त्याग देखने को मिलता है कि उन्होने अपने देह दान करके अपूर्व मोक्ष प्राप्त किया।

          चौथे आलेख में नक्षत्र वेधशालादेव प्रयाग के संस्थापक आचार्य पं. चक्रधर जोशीजी की अद्भुत कार्यशाला के दिग्दर्शन के साथ उस मनीषी के कृतित्व से परिचित होते हैं जो आज के समय में मुश्किल ही नहीं नामुमकिन जैसा प्रतीत होता है। यह आलेख हमको हमारी संनातन मीनीषा, वेद तथा खगोल शास्त्रों की प्रबलता का भान तो कराता ही है बल्कि देवभूमि उत्तराखण्ड के महान वेदवेत्ता व अध्येता के  दर्शन भी कराता है। और मै व्यक्तिगत रूप से सभी सनातनियों से अनुरोध करता हूँ कि एक बार जरूर इस वेद संग्रालय की यात्रा करें और उस मनीषी के श्रमसाध्य का अवलोकन करें कि अगर इच्छाशक्ति हो तो एक व्यक्ति अपने जीवन में क्या कुछ नहीं कर सकता है वो भी उस काल में जब ऋषिकेश से उपर सड़क मार्ग नहीं था। 

          भले कुछ दशक पहले उत्तराखण्ड आम देश वासियों को मात्र अरण्य लगता हो लेकिन इस अरण्य ने अद्भुत साधकों को जन्मा है, इन्हीं साधकों में से थे बिन्दास जीवन शैली के गढ़ साहित्यकार चिन्मय सायर। पाँचवे आलेख में इन्हीं चिन्यम सायर, सुरेन्द्र सिंह चौहान जी का जीवन वृन्त व साहित्य वृन्त देखने को मिलता है और जानने को मिलता है सुरेन्द्र सिंह चौहान जी का चिन्यम सायर होने का सफर। जानने को मिलती है शब्दों के अक्षय संपदा के धनी कलमकार की प्रतिभा। लेखक के ही शब्दों में कि कठैत जी मै हिन्दी का शायर नहीं गढ़वाली का सायर हूँ याने गढ़वाली और हिन्दी में तालव्य के उच्चारण का भेद। भले आज गढ़वाली साहित्यकार हिन्दी के चश्में से हिन्दी के तालव्य का स्तेमाल करते हैं लेकिन गढ़वाली उच्चारण में एक ही याने दंती का इस्तेमाल होता है। शिक्षक की अनुकूल आजीविका होने के बाद भी पलायन से पलायन करने वाले चिन्मय सायर अपनी माटी में ही रहकर आजीवन अपनी भाषा के उन्नयन मे निमग्न रहे। साथ में आलेख में चिन्मय जी की प्रमुख कविताओं को भी प्रंसग गत उधृत किया गया है। भूल से आप/पलायन करें, यह मूर्खतापूर्ण विचार व्यवहार स्वीकार्या है/ सजग रहें/ताम-झाम लेकर/ न लौटना हो/ तो माइग्रेट करें / शान भी रहेगी / सम्मान भी होगा। इतनी गहरी पंक्ति के कलमकार को मेरा नमन। 

          छठवें आलेख में ऐसे नीव की ईंट का जीवन वृन्त का उल्लेख है जिन्होने इस उत्तराखण्ड के अस्तित्व के लिए अपने अस्तित्व की चिन्ता नहीं की और आजीवन कलम और कर्म से उत्तराखण्ड के लिए समर्पित रहे। ऐसे कर्म प्रधान शिखर पुरुष थे यमकेश्वर हेंवल घाटी के सुपुत्र प्रताप शिखर। आलेख में जन आंदोलनो के अग्रदूत व गढ़वळि भाषा के सशक्त कलमकार प्रताप शिखरकी जाग्रत और धधकती जीजीविषा का दर्शन होता है। मेरे जैसै कितने असंख्य लोग होंगे इस माटी में जो प्रताप शिखर  जैसै व्यक्तित्व से अपरिचित होंगे, इसी लिए शब्दों की चाटुकारिता नहीं शास्वत सत्य है कि कठैत जी जैसे विरल लोग होंगे जो ऐसे व्यक्तित्वों को समाज के पर्दे पर लाते हैं। धन्य है प्रताप शिखरका परताप व नेरेन्द्र कठैत जी का श्रम।

          बल, ‘बिराणा लाटै हैंसी अर अपणा लाटै रुवै। यह गढ़वाळी औखाण आम सामाजिकता के लिए आइना है। दावे के साथ कहा जा सकता है कि पौड़ी परिधि में कितने लोग हैं जो पुष्पा बहिन को जानते होगें। और जानते तो होंगे पर कितने लोग है जिन्होने अभाव में भाव वाली इस प्रतिभा को आंका होगा ?  लेखक ने सातवां आलेख श्रद्धासुमन स्वरूप अर्पित किया है एक गुमनाम प्रतिभा के लिए जिसने जीवन के अल्पकाल में बिना हथेलियों के इस क्रूर समाज की रोटी पाथ कर एक मुकाम हासिल किया। और आगे साहित्य व संगीत के क्षेत्र में ऊँची उड़ान के लिए अपने पंखों को मजबूत कर ही रही थी कि नियति को कुछ और मंजूर हुआ और वह बहुमुखी प्रतिभा सदैव के लिए इस धरती से रुख्सत हो गई । आलेख हमारे इस आत्ममुग्द समाज को भी आईना दिखाता कि यह समाज दिव्यांग प्रतिभाओं का उपहास ही करता है सबल नहीं देता, नहीं तों दोनो हथेलियों से हीन प्रतिभावान शिक्षिका और कवियित्री पुष्पा बहन के जाने की खबर को इस वृहद संचार के युग में जगह कैसी नहीं मिलती।

          पुस्तक का आठवां आलेख श्रधांजलि स्वरूप अर्पित किया है प्रसिद्ध व प्रिय कलावंत श्रधेय बी. मोहन नेगी जी को, जो उनके देहावसान पर लेखक की 26 अक्टूबर 2017 की फेसबुक वाल से उधृत है। बी. मोहन नेगी जी से लेखक का आत्मीय प्रेम ही था कि उन्होने श्रधेय नेगी जी की पहली पुण्य तिथि पर ही उनके जीवन व कृतित्व पर दो पुस्तकें हमारे बीच लाये। बी. मोहन नेगी जी जितने प्रिय और श्रद्धा के पात्र लेखक के हैं उतने ही हम सबके थे और रहेंगे, क्योकि लाल दाड़ी मा हंसदी सु मुखड़ी कब्बि कै फर पिड़ै नी। हाँ इस आलेख में एक महत्वपूर्ण विषय नजर ठिठक जाती है कि बी. मोहन नेगी कला संग्रहालयएक सोच एक विचार उस तपस्वी कलावंत के किये का असली सिला। जिसका निर्माण आज भी मात्र एक सोच तक सीमित है, जिस पर हम उत्तराखण्डी साहित्य समाज व सरकार को आत्मग्लानी होनी चाहिए। 

          नहीं रहे शिक्षाविद् बिशन सिंह नेगी। नवाँ आलेख शिक्षा के शिखर पुरुष श्रधेय बिशन सिंह नेगी जी के जीवन वृन्त को हमारे सामने रखता है। लेखक के शब्दों में कि बहुत कम लोग होते हैं जो अपने कार्य क्षेत्र में श्रेष्ठ होते हुए भी सदैव विशिष्ट या श्रेष्ठता के लबादे से जीवन पर्यन्त दूर रहते हैं, ऐसे लोग पन्नों से ज्यादा दिलों में उतर जाया करते हैं। हाँ दिलों में उतर जाया करते हैं पर ! कौन ?  जो उनको जानने वाले रहे होंगे । लेकिन लेखक ने उन्हें कागज के पन्नों पर उतार चिरकाल के लिए मेरे जैसे पाठक के दिल में उतार दिया जिसका दूर तक भी ऐसे मनीषी से वास्ता नहीं था। यह प्रेरक जीवन वृन्त अभाव में भाव की जीवन्ता को समाज के सामने लाता है कि एक छ्व्यरा (अनाथ) बालक तब के अभाव ग्रस्त काल में अपनी लगन और कर्म श्रेष्ठता से शिक्षा के ऊँचे से ऊँचे पायदान को हासिल करके हजारों बच्चों के लिए जीवन ज्योति बनता है।

          भगवती प्रसाद नोटियाल जी! पंच तत्व में लीन। अंतिम समय में सभी बंधु बांधव, ईष्ट मित्र! और कलमकार बंधु मात्र तीन। हैरान करने वाले इस शीर्षक से शेष स्मृति शेषका दशवां आलेख वयोबृद्ध साहित्यकार श्रद्धेय भगवती प्रसाद नोटियाल जी की स्मृति में है, अपनी भाषा साहित्य के लिए समर्पित नोटियाल जी जैसे विरले लोग मिलते हैं जो अपनी भावी पिढ़ीयों के लिए कुछ करने का जतन करते हैं लेकिन दुनियां ऐसे भगीरथ कार्यों में कहाँ साथ देती साब ? लेखक नोटियाल जी के साथ वार्ता का उल्लेख करते हैं कि सन 1985  में श्री नोटियाल जी, श्री दुर्गा प्रसाद घिल्डियाल जी और श्री लोकेश नवानी जी ने पाँच-पाँच सौ रूपये मेलाख करके गढ़वाल अध्ययन प्रतिष्ठानकी स्थापना इस उद्देश्य के लिए की थी कि ग़ढ़वाली में ज्यादा से ज्यादा लिखा जाय, ग़ढ़वाली लेखकों का एक मंच बनाया जाय लेकिन राम की माया तमाम देहरादून दिल्ली में चौथा आदमी का साथ नहीं मिला। मंच के गठन के चार दशक बाद भी वो चौथा कलमकार उनकी अर्थी को कन्धा देने वाला नहीं हुआ, इस उपेक्षा को देखते हुए सचमुच सवाल उठते हैं कि हमारे ग़ढ़वाली साहित्य समाज में आज भी जो फुक्क आग लगा रौण द्या वाला नजरिया है वह आत्मचिंतन का विषय है, यही अपनी ढपली अपने राग के चलते श्री कठैत जी की बात कि भुला इस कारण आज भी हमारे साहित्य का एक पुस्तकालय नहीं बन पाया। सच में सच्ची और करड़ी कलम का साथ देने से लोग कतराते हैं।

          फेसबुक की सूनी वाल के उस पार खड़ी एक दिवार शीर्षक से ग्यारहवाँ आलेख निर्भीक कलम, घुमक्कड़ चलन, समाज और साहित्य सेवी पेशे से पत्रकार श्रद्धेय एल. मोहन कोठियाल जी को श्रद्धांजलि स्वरूप अर्पित किया गया है। श्री कोठियाल जी ऐसे पहाड़ हितेषी थे कि पूरी सक्षमता के होते हुए उन्होने खुद को आम गृहस्थी बंधन से दूर रखा। इस भू लोक पर वे जितने भी समय रहे ग़ढ़वाल के लिए समर्पित रहे, मुझे भी चकबंदी की संगोष्ठीयों में उनका सानिध्य मिला। शालीन, सहज़, कम बोलने वाले और ज्यादा करने वाले उस व्यक्तित्व का मैं भी मुरीद था। वास्तव में कोठियाल जी ने अपनी ऋषिचर्या से इस थाती के लिए बहुत कुछ करना था लेकिन उपर वाले को आपकी ज्यादा जरुरत होगी म्येल्यौ।

          पुस्तक का बारहवाँ आलेख समर्पित है श्रीमती लीला देवी जी की स्मृति में, जिनके व्यक्तित्व का प्रभाव लेखक के जीवन पर रहा, नीति सम्मत है साब जब जीवन से अपने आदर्शों का हाथ उठता है तो बहुत कुछ होने के बाद भी एक रीतापन रहता है, लेखक द्वारा अपनी सासु माँ की श्रद्धा में लिखा गया छोटा आलेख बड़ी सीख देता है। लेखक के शब्दों में कि मेरे लेखकीय पक्ष पर भले आपने कभी खुल कर परिचर्चा नहीं की हो लेकीन आपकी मौन स्वीकृति रही, आपसे ही सीखा कि भाषा, आस्था और निष्ठा का विषय है खोखली वस्तु नहीं। सुधी जनों की पहचान ही होती है कि वे हर रिस्ते हर जन से सीखने वाली चीज निकाल लेते हैं और अपने साथ औरों के जीवन को दिप्तमान करते हैं।  

          तेहरवां स्मृति आलेख समर्पित किया गया है ग़ढ़वाली लोक धुनों के राही चंद्र सिंह राहीजी को, जो राही जी की प्रथम पुण्य तिथि पर श्रद्धांजलि स्वरूप लेखक द्वारा लिखा गया था। राही जी हमारे लोक संगीत के जिस स्तर के मर्मज्ञ थे उस स्तर पर उनके कृतित्व पर काम होना बाकी है जिसे लेखक शिष्टाचार वार्ता में कितनी बार कह चुके हैं। राही जी हमारे लोक वाद्यय विद्या के विरले साधक थे, सर्वज्ञ थे, विरले लोक गीतकार और गायक। कौन सा ऐसा वाद्यय यंत्र है जिसे वे शास्त्रीय सम्मत बजाना नहीं जानते थे। उन जैसा कलाकार आज सायद ही कोई देखने को मिलता है। आलेख में राही जी द्वारा लोक वाद्ययों की स्थति पर जो चिंतन उकेरा गया है वो वास्तव में चिंता का विषय है। आज पाश्चात्य जगत के कनफौड़ा वाद्यय यंत्र हमारे लोक वाद्ययों की चिता का कारण बन गई कहना गलत नहीं होगा। संस्कृति के सच्चे साधक की चिंता पर लोक संस्कृति के वाहकों को गौर करना जरूरी हो गया है। श्री राही जी जिस ऊँचे कद के कला मर्मज्ञ थे उस ऊँचाई का ना तों आजतक उन्हें कोई सम्मान मिला और ना ही उनका व्यक्तिगत जीवन उस स्तर का रहा। राही जी द्वारा एक सभा के प्रसंग से उनकी विपन्नता झलकती है, वे कहते हैं कि बल, लोग मुझे दूर-दूर से प्रोग्रामों में आमन्त्रित करते हैं और एवज में भेंट करते हैं स्मृति चिह्न और शौल, और जब में घर में आता हूँ तो स्या (घरवाली) बोलदी कि सु कटगा खाण छौरन। सायद उनकी नेक दिली थी कि उन्होने कभी अपनी कला का दाम नहीं लगाया।   

          पुस्तक का चौदहवां स्मृति आलेख है पहाड़ के चार्ली चौम्पयन - सिताब सिंह कुंवर जीपर। सायद आप भी नहीं जानते होंगे उन्हे जैसे मै भी इससे पहले नहीं जानता था क्योंकि उनकी कला का दायरा छोटा रहा था। छोटा इस लिए भी रहा होगा कि उस प्रतिभा ने अपने लोक को ही प्राथमिकता दी हो। लेखक ने उन्हें पहाड़ के चार्ली चौपियन की उपाधि दी यह लेखक के नाट्य गुरू होने के नाते व्यक्तिगत श्रद्धा का विषय भी हो सकता लेकिन कुंवर जी की रचनात्मक व जीवन वृन्त को पढ़कर आप सभी कहेंगे कि इससे भी बड़ी कोई उपाधि हो तो वो भी कम है। अद्भुत कला के धनी श्री कुंवर जी ने जिस तरह अपनी संस्कृति को जिया उसका संवर्धन किया वह वंदनीय है। समसामयिकी व सरकारी तंत्र की बिडंबनाओ को वे अपनी स्टैंडिंग कॉमेडी/प्रहसन के माध्यम से हैंसी हैंसी चटताळमारते थे बल, कि घपकताळ भी लग जाऐ और घाव भी ना दिखे। वे संवाद से कम और हावभाव से ज्यादा बिंगा देते थे बल। आलेख में कुंवर जी की कला के कई रोचक प्रसंग देखने को मिलते हैं। कहते हैं कि महत्व इस बात का नहीं कि आप कितना जिए बल्कि इस बात का है कि कैसे जिए। मेरा मानना है कि कोई व्यक्ति विशेष तभी है जब उसमें शेष रहने की क्षमता है, भागफल हमारे जीवन तक ही रहता है लेकिन शेष चिरकाल तक, और यही शेष कुंवर जी छोड़ कर गए हैं जिसे और दीर्घकाल के लिए स्थापित करने का श्रम श्री कठैत जी की कलम ने किया है।

          जैसा कि लेखक के शब्दों में कि शेष ही वे नीव के पत्थर हैं जिन पर हर विशेष की ईमारत खड़ी होती है । आज के भव्य उत्तराखंड के भवन की प्रथम नीव की ईंटों में शामिल श्रीमती सुंदरी नेगी जी के संघर्षनामें का विवरण पुस्तक के पंद्रहवे व आख़री आलेख में दिया गया है। और यह संघर्षनामा तब का है जब पृथक उत्तराखंड होगा इसकी सोच पहाड़ में दूर दूर तक भी नहीं थी। सत्तर के दशक का पूर्वार्द्ध सन् 1973-74, तब मैं भी पैदा नहीं हुआ था। बाबा बमराड़ा जैसे राज्य आंदोलन के अग्रदूत के साथ दिल्ली से एक महिला क्रन्तिकारी सुंदरी नेगी पौड़ी में आकर अनशन पर बैठती है और पहाड़ को जगाती है कि उठा रे स्यावा ना अपने हितों का राज्य मांगो। श्रीमती सुंदरी देवी के कई सामाजिक संघर्षों का उल्लेख आलेख में मिलता है। हमारे समाज की हमेशा से यही बिडम्बना रही कि समाज ऐसी विभूतियों को जल्द भूल जाता है और समाज के लिए उनका योगदान गुमनामी हो जाता है।

          अंततः पूरी पुस्तक का अवलोकन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि एक सच्चे कलमकार का दायित्व श्री नरेन्द्र कठैत जी ने निभाया और निभाने का मतलब केवल इतना नहीं कि नीव पर बैठे गुमनाम पत्थरों को कंगूरे पर लाने की कोसिस की, बल्कि साथ में समाज को आईना के साथ दूरदर्शिता भी दिखायी, कि जिन पत्थरों के उपर आज हम सबका सांस्कृतिक व सामाजिक भवन खड़ा है उनको क्यों भूलाया गया/ जा रहा है ? जबकि वे अपूर्व शेष छोड़ कर गए हैं। क्या हम इतने असंवेदनशील हो गए कि जीवन का आखिर सत एक लकड़ी देने तक की भी मंशा नहीं रखते ?  ऐसे कई गंभीर सवालों से लेखक द्वारा झकझोरा गया है। इस अप्रीतम कृति के लिए भैजी नरेंद्र कठैत जी का मैं व्यक्तिगत आभार प्रकट करता हूँ कि आपके माध्यम से ही हमें हमारे नीव के पत्थरों को जानने को मिला। साथ में यह आशा करता हूँ कि यह पुस्तक उत्तराखंड के हर उस युवा के हाथ तक पहुंचे जो उत्तराखंडियत से प्यार करता है।

          चलते चलते सभी लोक हितेषियों से अपील करता हूँ कि कलावंत श्रद्धेय बी. मोहन नेगी जी कला संग्राहलयहेतु श्री कठैत जी की सोच को अमली जामा पहनाने के लिए आगे आएं, अपने सुझाव दें और उत्तराखंड के एक महान कलाकार की कला को चिरकाल तक जीवंत बनाने में अपना सहयोग करें, नहीं तो कुछ पीढ़ीयों बाद उनकी कृतियों से भरे  बक्से भी सुदामा प्रसाद प्रेमी जी की तरह गुम हो जायेंगे।

@ बलबीर सिंह राणा अडिग


13 Dec  2024 

गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

वीर गढ़वाली जवान



जीवन का नेह निचोड़ गीत मातृभूमि के गाता है 

तिरंगे वसन का प्रेमी वह शौर्य विजय की गाथा है 

मौन क्षितिज चारों दिशाओं पर पूरा हिंदुस्तान है 

भारत की शान है, वो वीर गढ़वाली जवान है ।


बावन गढ़ों की गढ़भूमि से जब कोई कंचन निकलता है 

असाधारण सैन्य साधना से कालौं डांडा तपता है 

निकलता फिर देश विदेश में शौर्य अपना दिखाने को 

हर समर हर युद्ध भूमि पर छाप अपनी छोड़ता है 

प्रथम विश्व युद्ध से वर्तमान तक गढ़े कई प्रतिमान है 

भारत की शान है, वो वीर गढ़वाली जवान है ।


वीर दरवान गबर जसवंत के देश का वासी है 

सघन वन दुर्गम ठौर प्राचीर प्रहरी सन्यासी है 

भय न खाता झंझावतों से न फिक्र करता तुफानो की

कीट कीकर में फंख खोल उड़ने का अभ्यासी है 

राष्ट्र रक्षार्थ कर्मवेदी पर रचा गया वो एक विधान है 

भारत की शान है, वो वीर गढ़वाली जवान है ।


क्यों न दुःख कराल कष्टों भरा उसका जीवन संसार रहे

चाहे समर भूमि में धधकता शोला हाहाकार रहे

युद्धाय कृत निश्चय: आदर्श सर माथे पर रखता है 

बद्री विशाल लाल की जय का, जय घोष करता है 

रेड लाईन यार्ड वर्दी धारी औरों से जो परे पहचान है 

भारत की शान है, वो वीर गढ़वाली जवान है ।


गम नहीं आहुत होने का भारत माँ तेरा प्रताप रहे

उन्नत बुलंद हो भारत मेरा, इस भुव अमिट छाप रहे 

पहाड़ी पुत्र है सिंहनाद कर अरि मांदों पर झपटता है 

शपथ लेता पुनीत गीता की गीत शौर्य के गाता है 

राष्ट्र सुख शांति निमित वह एक कवच है परिधान है 

भारत की शान है, वो वीर गढ़वाली जवान है ।



रंचना : बलबीर राणा 'अड़िग'

बुधवार, 11 सितंबर 2024

गजल

 

अपना कहने भर से अपनापन नहीं मिलता,

यार कहने वाले सब में याराना नहीं मिलता।


करते हैं सब ठोक बजा कर्म इस कर्मभूमि में,

लेकिन किये का सिला सबको नहीं मिलता।


हैरानी होगी परिणाम अनुकूल न निकलने पर, 

परेशान होने से भी तो आराम नहीं मिलता। 


राहों में बहुत मिलेंगे जो मन को भाएंगे।

केवल मन भाने से भाव नहीं मिलता। 


हीरे तो भतेरे निकलते हैं खदानों में हर रोज, 

लेकिन चमकने का नशीब सबको नहीं मिलता।


कुछ बातें काबू से बाहर की भी होती अडिग, 

जाने दे बेकाबूओं को ठौर नहीं मिलता।


@ बलबीर राणा 'अडिग'

सोमवार, 26 अगस्त 2024

कृष्ण वंदना



देवकी वसुदेव नन्दन कृष्ण चंद वंदनम

धरा सुशोभितम अभिनन्दनम गोबिन्दम।

घोर घटा श्रावणी स्याह रात्रि आगमनम
जगदीशश्वरम विष्णुबिपुलम् सुंदरम् 
मोर मुकुट मुरलीधर चंचल मृदुचपलम् 
सहस्र वन्दन हे सारथी यशोदा-नन्द नन्दनम् 
धरा अति सुशोभितम् भिनन्दनम् बिन्दम् ।

पावन बाल चरित नटखट गोकुलधामम् 
गोपीयों संग रांस रचित प्रीत वृन्दाबनम् 
कृत्य अचंभितम्  मायावी पूतना बधम् 
इन्द्र दम्भम चूर-चूरम हस्त गिरी गोवर्धनम् 
धरा अति सुशोभितम्अ भिनन्दनम् बिन्दम् 

पीताम्बर कण्ठ वैजयन्ती स्वर्ण कुंडल शोभितम् 
अधर मधुर मुरली हस्त विराजे चक्र सुदर्शनम् 
काली नागनथनम कंसकाल कवलितकम् 
धरा शुचि संकल्पम प्रभुदहन पापनाशकम् 
धरा अति सुशोभितम्  भिनन्दनम् बिन्दम् ।

स्वर्णिम उषा सुखद निशा बृज भूमि आनंदम् 
तिमिर लोप, जहां विराजे कण-कण राधेश्वरम् 
हर मन-हृदय वसियो यशोदा श्यामा सुकोमलम् 
राधा रुकमणी जिगर योगेश्वर बृजभूषणम् 
धरा अति सुशोभितम्  भिनन्दनम् बिन्दम् ।

अद्वितीय बलम पांडव दलम रण महाभारतम् 
पार्थ सारथी कुशल नेतृत्वम युद्धम कुरुक्षेत्रम् 
गीता अमृतम अमूर्त पवित्रम मनु आजीवनम् 
सर्वत्र व्याप्त प्राणी-प्राण, भूतभविष्यम केशवम् 
धरा अति सुशोभितम्  भिनन्दनम् बिन्दम् ।

सदमति दे हे महांबाहो उत्थान दे सर्वेश्वरम
ज्ञान क्षशु प्राकाश दे सद्भाव वत्स वत्सलम
हिन्दसुत कर्मप्रधान हो सुर-शोर्य आत्मबलम
रक्ष दक्ष परिपूर्ण सुपुष्ठम जग श्रेष्ठ हो भारतम
धरा अति सुशोभितम्  भिनन्दनम् बिन्दम् ।

@  बलबीर राणा 'अडिग'

गुरुवार, 15 अगस्त 2024

भारत का गान






अरुणोदय हुआ चला,

प्राची उदयमान हुई।

माँ भारती के स्वागत को,

राष्ट्र उमंगें वेगवान हुई।।


श्रावणी मंगल बेला पर,

तिरंगा शान से फहरायें।

स्वतंत्रता के महापर्व पर

प्रीत से जनगण मन गाएं ।।


महापुरूषों के स्वेद से,

मकरन्द यह निकला है।

योद्धाओं के सोणित से, 

हमें लोकतंत्र मिला है।।


चित से उन महामानवों के,

बलिदान का गुणगान करें।

लोकतंत्र के महाग्रंथ का,

अन्तःकरण से सम्मान करें।।


पल्लवन इस वट बृक्ष का,

बुद्धि शक्ति तरकीब से हुआ।

तब इस सघन छाया में बैठना, 

हम सबको नशीब हुआ।


ज्ञान, भुजबल परिश्रम से,

शेष दोष-दीनता दूर करें।

रिक्त है अभी भी जो कोष 

चलो मिलकर भरपूर करें।


काम स्व हित संधान तक

यह लोकतंत्र का मान नहीं।

राष्ट्रहित निज कर्तव्यों को

आराम नहीं  विश्राम नहीं।


जग में माँ भारती की,

ऐसी ही ऊँची शान रहे।

अधरों पर तेरे भरत सुत,

जय भारत का गान रहे। 


@ बलबीर राणा 'अडिग'

मटई चमोली।

उत्तराखंड

रविवार, 4 अगस्त 2024

दोस्ती



जिंदगी का एक ईनाम है दोस्ती,

बिंदास जीने का पैगाम है दोस्ती। 


मित्रता में छोटा-बड़ा नहीं कोई, 

इसी अहसास का नाम है दोस्ती।


लड़कपना सा रूठना लड़ना झड़गना, 

फिर मिलके हुदंगड़ सरेआम है दोस्ती।


खट्टा कसैला तीखे से उपर उठा, 

कच्चे से पका मीठा आम है दोस्ती।


भूले बिसरे हुए जो जीवन की भीड़ में, 

उन्हीं बिसरों से अभिसार आयाम है दोस्ती।


निभाने की खानापूर्ति तक नहीं सिमित, 

संग लड़ने खपने वाला संग्राम है दोस्ती।


अनैच्छिक औपचारिकता का मुंडारा चहुँ ओर, 

अडिग उसी मुंडारे का बाम है दोस्ती।


*शब्दार्थ :-*


अभिसार - आगे बढ़कर 

आयाम - विस्तार 

मुंडारा - सर दर्द


@ बलबीर राणा 'अडिग'

ग्वाड़ मटई वैरासकुण्ड

शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

जीवन फ़साना



खुशियों का आना संताप का जाना
संताप का आना खुशियों का मुरझाना
कभी उन्माद का ठहाका लगाना
कभी उम्मीदों का दहाड़ मार रोना
बस इतना ही है जीवन फ़साना

पाने पहुँचने को संघर्षरत रहना
संघर्षों का कुछ कदम चढ़ना कुछ फिसलना
कभी लक्ष्य पाना कभी चूक जाना
गिरने उठने का क्रम लगे रहना
आशा-हताशा का लुक्का-छुपी खेलना
बस इतना ही है जीवन फ़साना।

मेरा-तेरा विषयों से घिरे रहना
विषयों का गतों में विभक्त रहना
कुछ को अंगीकृत, कुछ को तिरस्कृत करना
कुछ का संजीवनी कुछ का गरल होना
जीवन पर्यन्त पथ्य और पथ को खोजना
बस इतना ही है जीवन फ़साना।

एक उम्र में प्यार का मुफ्त मिलना
एक उम्र में प्रयत्न पर पाना हथियाना
एक उम्र में अनुनय विनय कर मांगना
ताउम्र मोहमाया में निमग्न रहना
अंतकाल तक मोहपाश का ना छूटना
बस इतना ही है जीवन फ़साना।

फ़साना - किस्सा / कहानी

@ बलबीर सिंह राणा 'अडिग'
01 अगस्त 24

गुरुवार, 1 अगस्त 2024

घर




घर मनुष्यों का समूह नहीं
ममता का संगठन होता है
घर मात्र एक मकान नहीं
घरवालों का जिगर होता है

घर केवल आश्रय नहीं
संतोष सकून का मंदिर होता है
जहाँ परिजनों का परिश्रम देव
चैन की निद्रा सोता है।

घर के लिए
प्रीत का मलहम चाहिए,
महल नहीं.

प्रेम पीड़ा का निवाला चाहिए
महाभोग की थालियां नहीं

तन आवरू ढकने को वस्त्र चाहिए
महंगे शूट बूट नहीं

मन दान को दाने चाहिए
मेवे मिठाईयां नहीं

एक दूजे की गोद में लेटने को कुछ जगह चाहिए
पृथक कमरे नहीं

मकान कहीं भी हो सकता
लेकिन घर मातृभूमि में ही होता है
जहाँ मातृत्व की महक 
अपनेपन की चहक
बृद्धों की कड़क
और पित्रों की तड़प होती है
जो श्रद्धा की पाती मांगते हैं
तर्पण के रूप में
और वे घर की चिरायु समृद्धि
के लिए देते हैं
आशीष क्वथळी भौरी कि।

@ बलबीर राणा 'अडिग' 

परिवार




जहाँ प्रेम की अराधना
संस्कारों का पूजन
संस्कृति की संभाल
परम्पराओं का संवर्धन
खुदगर्जी खुदमर्जी का तिरिस्कार
मान मर्यादा का पालन होता है
वह सनातनी परिवार होता है।

ना फसाद ना मनमुटाव
ना ही अपने हित का रुदन
नहीं थोपी जाती इच्छा
नहीं रहता भावनाओं में क्रन्दन
जहाँ समावेशी संभाव से
कष्ट और कर्मों का शोधन होता है
वह सनातनी परिवार होता है।

जहाँ रिश्ते केवल निभते नहीं
अपनत्व का ऋण चुकाया जाता है
अपनों के सुख दुःख के खातिर
जीवन खपाया जाता है
जहाँ एक दूजे को देख मुख निवाला जाता है
वह भारतीय परिवार होता है।

जहाँ किसी को घर पहुँचने की वैचेनी रहती
किसी के घर ना पहुँचने पर अधीरता रहती
एक के पेट के लिए दूजा का पेट भर जाता है
एक की जरुरत, दूजे को जरूरी हो जाती है
जहाँ अपना श्रम परिवार के सुख को होता है
वह भारतीय परिवार होता है।

जहाँ बड़ों का हुकुम, छोटों की होती हामी
बड़ों का मार्गदर्शन, छोटे होते पथगामी
घर की मर्यादा को, सब रहते हैं समर्पित
परिवार की संपन्नता को होते हैं अर्पित
जो मनसा वाचा कमर्णा का द्योतक होता है
वह भारतीय परिवार होता है।

@ बलबीर सिंह राणा 'अडिग'
13 जुलाई 2024
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18000'