देशकाल व समय के साथ हमें परिस्थितीजन्य स्थिति ग्रहण करनी
पड़ती है और इन्हीं परिस्थितियों से उत्पन होता हमारा लोक व्यवहार व लोकाचार, साथ में परिस्थितियों की जननी जीवोपार्जन की स्थितियां भी लोक
व्यवहार व लोकाचार गढ़ने में अहम भूमिका अदा करती हैं। कहते हैं जीवन में कुछ
अतरिक्त करने के लिए अनुकूल संसाधनों या मद पारितोषिक का होना अनिवार्य माना जाता
है लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जो कैसी भी परिस्थितियों में कुछ विशेष करके
विशिष्ट बन जाते हैं और आम से खास की श्रेणी में आ जाते हैं। खास लोगों के पास कुछ
विशेष प्रतिभा एवं क्षमताएँ तो होती ही हैं, इसके साथ उनके पास होती है वेहतर संप्रेषण कौशलता, यथोचित तर्क, आत्म-चेतना,
चिन्तन, सदाचार एवं
सम्मान की प्रबल भावना। ऐसे ही अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों में विशेष करने
वाले विशिष्ट व्यक्तित्वों को आम समाज से रू-व-रू कराने वाली पुस्तक है “शेष स्मृति विशेष”।
दिवंगत
विभूति प्रसंग निबन्धात्मक आलेख संग्रह के लेखक हैं श्री नरेन्द्र कठैत जी।
उपरोक्त विशेषता व विशिष्टता हेतु शूक्ष्म भूमिकीय शब्दों की भावांजली पुस्तक के
लेखक के लिए भी प्रेषित करता हूँ कि जिन विशिष्ट व्यक्तित्वों को आपने उकेरा है जो
हमारे समाजिक भवन की नीव की ईंट रूप में अविचल हैं उन्हें कंगूरे पर स्थापित करके
आम समाज को दृश्टव्य बनाने का जो श्रम आपने किया वह वंदनीय ही नहीं अपितु स्तुत्य
है। ऐसे ही स्तुत्य कार्य की पहचान आपकी “विशेष जन विशेष” एवं “ये ! ज्ञान के कठैत” पुस्तकें भी हैं।
पुस्तक पर आऊं कि इससे पहले मैं स्वनामधन्य श्री नरेन्द्र कठैत जी के साहित्य जीवन
से परिचय कराना चाहूँगा।
वैसे
तो श्री नरेन्द्र कठैत भैजी किसी नाम के मोहताज नही हैं फिर भी कहना अतिशयोक्ति
नहीं होगी कि आप उस परम्परा के साधक हैं जिन्होने अपनी बहुविध रचनाक्रम में
देवभूमि उत्तराखण्ड के कण-कण व समाजिक जीवन के क्षण-क्षण को छुआ है। आपने अपनी चिर
परिचित व्यंग व विवेचनात्मक शैली में साहित्य की सभी विधाओं में सृजन किया। वैसे तो
कठैत जी बहुत लम्बी साहित्य यात्रा कर चुके हैं लेकिन आगे इस पथ पर अविराम गतिमान
हैं सट्म-सूट। आपकी इस यात्रा की उपलब्धियों में अभी तक गढ़वाली व हिन्दी में तेईस
से उपर पुस्तकों का सृजन हो चुका है। जिसमें - निबंधात्मक आलेख संग्रहों में ‘ये ! ज्ञान के कठैत’, ‘विशेष जन विशेष’
व ‘शेष स्मृति शेष’। कविता संग्रह में टुप-टप्प, तबारि अबारि।
खण्ड काव्यों में पाणि,
डाळै विपदा। नाटकों में डॉ आशाराम, पाँच पराणी पच्चीस छ्वीं। व्यंग संग्रहों में कुळ्ळा पिचकरी, लग्यां छां, अड़ोस पड़ोस,
हरि सिघौ बग्गि फस्ट, आर-पारै लड़ै,
समस्या खड़ि च, नाराज नि हुयां,
बक्कि तुमारि मर्जि। जीवनी में बी. मोहन नेगी, ‘अब यिं सब्द
बि हमारा गुरुमंत्र छन’। संपादन में
ख्यातिनाम चित्रकार बी. मोहन नेगी (सृजन विशेष स्मृति शेष)। अनुवादित पुस्तकों में
जिन्दग्या बाटा मा (डॉ रमेश पोखरियाल निशंक की हिन्दी कविताओं का गढ़वाली अनुवाद), मुंड मा आग/पीठ मा पाड़ (136 लब्धप्रतिष्ठ कवियों की प्रमुख रचनाओं का गढ़वाली अनुवाद), चन्द्रहार (हिमवंत कवि चंद्रकुवर बर्त्वाल की 160 हिन्दी कविताओं का गढ़वाली अनुवाद), इसके साथ अभी टुप-टप्प पुनः प्रकाशन और अन्य दो पुस्तकें
प्रकाशाधीन हैं। इसके साथ आपकी दो पुस्तकें “श्री गुरू राम राय विश्वविघालय, देहरादून”
द्वारा संचालित Syllabus
of Garhwali language and Culture के अन्तर्गत बी.ए. तथ एम.ए. के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं।
साथ में आपके समसमायिकी लेख, व्यंग, कविताएं एवं अनुवाद देश व प्रदेश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं
में निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं।
वहीं
पुरस्कार/सम्मानों की बात की जाय तो श्री कठैत जी को कतिपय विशिष्ट संस्थाओं
द्वारा सम्मानित किया जा चुका है जिनमें गढ़वाली भाषा में मौलिक व उत्तकृष्ट व्यंग
लेखन के लिए ‘आदित्यराम नवानी पुरुस्कार’। साहित्यांचल कोटद्वार द्वारा ‘हिमाद्री रत्न सम्मान’। उत्तराखण्ड भाषा संस्थान देहरादून द्वारा लोकभषा में
उल्लेखनीय योगदान हेतु ‘डॉ गोबिन्द चातक सम्मान’। उत्तराखण्ड लोकभाषा साहित्य मंच दिल्ली द्वारा ‘महाकवि कन्हैयालाल डंडरियाल साहित्य सम्मान’, एवं उत्तराखण्ड भाषा संस्थान देहरादून का ‘उत्तराखण्ड साहित्य गौरव सम्मान’ शामिल हैं। और आपकी निरंतर साधना आगे निज भविष्य में
राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय फलक के पुरस्कार/सम्मानों की बाट को प्रसस्त करता है।
साथ में हमारे लिए गौरव की बात है कि उत्तराखण्ड की धरती से आप मात्र ऐसे व्यंगकार
है जिन्हें “नेटबुक्स” द्वारा
प्रकाशित ‘इक्कीसवीं सदी के श्रेष्ठ 252 अंतराष्ट्रीय व्यंगकारों में प्रतिष्ठत किया गया है।
यह था
दिवंगत विभूति प्रसंग निबन्धात्मक आलेख संग्रह ”शेष स्मृति विशेष“
के लेखक का शूक्ष्म साहित्य पारिचय, शूक्ष्म इस लिए कह रहा हूँ कि जितनी विस्तृत उनकी कलम है
उसके लिए यह नाकाफी है। और कहने में गलत नहीं होगा कि श्री कठैत जी ने अपने सृजन
को जितना प्रतिष्ठ किया है अब उसे शोध द्वारा पूर्ण प्रतिष्ठा रूप मे स्थापित करना
जरूरी नहीं जरूरत है।
वापस “शेष स्मृति विशेष” पर। 86 पृष्ठों में समवेत यह निबन्धात्मक आलेख संग्रह इंडिया
नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड नोएडा द्वारा प्रकाशित किया गया है जिसका मूल्य 300 रूपये मात्र रखा गया है। पुस्तक की भूमिका उत्तराखण्ड भूमि
के प्रसिद्ध साहित्यकार ‘डॉ हिर सुमन बिष्ट’ जी द्वारा लिखी गई है। पुस्तक में लेखक द्वारा 15 ऐसी दिवंगत विभूतियों के जीवनवृन्त व कृतत्व को उल्लेखित किया है जिनका
साहित्य व समाज में अतुलनीय योगदान रहा, वशर्ते समाज आज उन्हें लब्धप्रतिष्ठ रख पाया या नहीं यह समाज की है परन्तु
लेखक द्वारा इन विभूतियों को उनके किए का जो शिला दिया गया है वह वाकई स्तुत्य है।
आम
देखा जाता है कि जब तक व्यक्ति जिन्दा है और कुछ कर रहा है तो समाज उनसे सीखता भी
है प्रेरणा भी लेता है लेकिन उनके जाने के बाद कुछ श्राद्धांजलि संवेदनाओं के साथ
समाज उन्हें आए गये में भूल जाता है और वे नीव के पत्थर सदैव नीव पर ही अस्तित्व
विहीन रह जाते हैं। लेकिन पुस्तक के लेखक ऐसे व्यक्तित्व हैं जों ऐसे नीव के
पत्थरों को अपनी कलम पर उकेर कर पुस्तकों में सदैव के लिए चिरंजीवी स्तुत्य बनाते
हैं।
पुस्तक
के आमुख में लेखक लिखते हैं कि शेष का क्षेत्र कम नहीं अपरिमित है, शेष हर ताप में तपे हुए ऋषियों की कृति है। विशेष अगर विरल
है तो शेष अविरल। शेष से हम जितना ग्रहण कर सके उतना कम है। शेष कर्मठता, सहजता, सादगी, निश्छलता और तमाम मानवीय मूल्यों के प्रतीक रहे हैं। शेष ही
वे नीव के पत्थर हैं जिनके बल पर विशेष की इमारत खड़ी हुई है। बिल्कुल विशेष की
इमारत खड़ी होती है और होती रहेगी। शेष ना हो तो विशेष होने की संभवना ना के बराबर
रहती है और दुनियां का इतिहास गवाह है कि शेष की बुनियाद पर ही विशेष के भवन खड़े
हुए हैं चाहे क्षेत्र विषय कुछ भी रहा हो।
पुस्तक
में पहला आलेख ऋषितुल्य साहित्यकार सुदामा प्रसाद ‘प्रेमी’
जी की स्मृति पर है जिसमें प्रेमी जी के पूरे जीवन वृन्त व
साहित्य वृन्त का उल्लेख तो है ही पर एक बहुमुखी साहित्य प्रतिभा की दीनता की
विभौर करने वाली कहानी भी सामने आती है। फिर अपने से सवाल उठता है कि क्या दुन्यां
को अपने चिन्तन से चेतना देना अपराध था कि जो उन्हें इतनी दीनता में जीवन यापन
करना पड़ा ? साथ में एक ऐसे दृड इच्छाशक्ति वाले व्यक्तित्व का परिचय
होता है जो घौर अभवों मे भी अपनी पारिवारिक जिम्मेवारियों का निर्वहन करते हुए कभी
भी कलम से मोह भंग नहीं करते हैं। साथ में एक और बिडंबना सामने दिखती है कि जब
किसी कला साहित्य या अन्य विशिष्ट प्रतिभाओं की संतति उनकी राह के इतर अन्यत्र
दूसरी राह पर जीवोपार्जन करते हैं तो उनका अपने पितृ कला धरोहर पर ज्यादा मोह नहीं
रहता है,
जिससे वह धरोहर बक्सों व स्टोरों में सदा के लिए गलके
समाप्त हो जाती है,
लेखक की इस बात की चिन्ता उन सभी सृजनकर्ताओं के लिए भी है
कि जब उस धरोहर को संभालने वाला परिजन सक्षम नहीं होते तो क्या सरकार या उससे
तालुक रखने वाले लोगों का दायित्व नहीं होता कि उसे संभाला जाय ?
दूसरा
आलेख ‘कागज के बिन्दू से भूगोल के सिंधु तक का महायात्री’ भावांजली में “डॉ कुँवर सिहं नेगी”
जी के जीवनवृंत को जींवत किया गया है। सुरूवात में लेखक
कहते हैं कि गंगा से जुड़े हरेक पत्थर की अलग-अलग संघर्ष गाथाएँ हैं। कह नहीं सकते
कौन-कौन पत्थर कितने गिरे-पड़े, किस-किस पत्थर
ने कहाँ-कहाँ कितने घाव सहे। बिल्कुल एक बेडोल पत्थर बिना संघर्षों के घाव सहे
बिना गोल घळमळकार सुन्दर गंगलोड़ा नहीं बन जाता ? अनगिनत ठोकरों के बाद ही कोई पत्थर गंगलोड़ा बनता है। एक साधारण सैनिक से भारत
की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में ब्रेल लिपी के जनक, ब्रेल लिपी में सभी भारतीय धर्म दर्शन व ग्रंथों को तैयार करने वाले अति विशेष
प्रतिभा के दर्शन होते हैं,
वास्तव में डॉ नेगी ऐसे पूजित गंगलौड़े हैं जिन्हें लिंग रूप
में स्थापित किया जाना चाहिए। इस कृतित्व वृन्त आलेख में भी लेखक के सम्मान भाव व
पैनी पारखी नजर की झलक मिलती है कि डॉ नेगी की जन्मभूमि ‘अयाल’ गाँव में उनकी
स्मृति स्वरूप अब उनके घर की मात्र दो दिवारें शेष रह गई हैं, इसे पलायन की विभीषिका कहें या अपनों की उदासीनता दोनो सही
हो सकते हैं और ये भी अरुचिकर व चिन्तनीय है कि उनके ही परिवार और गाँव की नई
पीढ़ियां उनके रचना संसार से अपरिचित हैं।
पुस्तक
के तीसरे आलेख में “विडम्बना देखिये ! खबर बनने में भी पाँच माह
लग गये”
चिन्तन पंक्ति से ख्यातिनाम साहित्यकार श्रेधेय “कुलदीप रावत जी” को श्रद्धांजलि के साथ साहित्य में उनके योगदान को उधृत किया गया है। दिल्ली
प्रवास में रहते हुए अपनी थाती-माटी के लिए समर्पित कलम के दर्शन होते हैं और साथ
में साहित्य और शिक्षा के लिए आजीवन समर्पित रहने वाले मनीषी का अद्भुत त्याग
देखने को मिलता है कि उन्होने अपने देह दान करके अपूर्व मोक्ष प्राप्त किया।
चौथे
आलेख में “नक्षत्र वेधशाला” देव प्रयाग के संस्थापक ‘आचार्य पं.
चक्रधर जोशी’
जी की अद्भुत कार्यशाला के दिग्दर्शन के साथ उस मनीषी के
कृतित्व से परिचित होते हैं जो आज के समय में मुश्किल ही नहीं नामुमकिन जैसा
प्रतीत होता है। यह आलेख हमको हमारी संनातन मीनीषा, वेद तथा खगोल शास्त्रों की प्रबलता का भान तो कराता ही है बल्कि देवभूमि
उत्तराखण्ड के महान वेदवेत्ता व अध्येता के
दर्शन भी कराता है। और मै व्यक्तिगत रूप से सभी सनातनियों से अनुरोध करता
हूँ कि एक बार जरूर इस वेद संग्रालय की यात्रा करें और उस मनीषी के श्रमसाध्य का
अवलोकन करें कि अगर इच्छाशक्ति हो तो एक व्यक्ति अपने जीवन में क्या कुछ नहीं कर
सकता है वो भी उस काल में जब ऋषिकेश से उपर सड़क मार्ग नहीं था।
भले
कुछ दशक पहले उत्तराखण्ड आम देश वासियों को मात्र अरण्य लगता हो लेकिन इस अरण्य ने
अद्भुत साधकों को जन्मा है, इन्हीं साधकों में से थे बिन्दास जीवन शैली
के गढ़ साहित्यकार ”चिन्मय सायर“। पाँचवे आलेख में इन्हीं चिन्यम सायर, सुरेन्द्र सिंह चौहान जी का जीवन वृन्त व साहित्य वृन्त देखने को मिलता है और
जानने को मिलता है सुरेन्द्र सिंह चौहान जी का चिन्यम सायर होने का सफर। जानने को
मिलती है शब्दों के अक्षय संपदा के धनी कलमकार की प्रतिभा। लेखक के ही शब्दों में
कि कठैत जी मै हिन्दी का शायर नहीं गढ़वाली का सायर हूँ याने गढ़वाली और हिन्दी में
तालव्य ‘श’
के उच्चारण का भेद। भले आज गढ़वाली साहित्यकार हिन्दी के
चश्में से हिन्दी के तालव्य ‘श’ का स्तेमाल करते हैं लेकिन गढ़वाली उच्चारण में एक ही ‘स’
याने दंती ‘स’
का इस्तेमाल होता है। शिक्षक की अनुकूल आजीविका होने के बाद
भी पलायन से पलायन करने वाले चिन्मय सायर अपनी माटी में ही रहकर आजीवन अपनी भाषा
के उन्नयन मे निमग्न रहे। साथ में आलेख में चिन्मय जी की प्रमुख कविताओं को भी
प्रंसग गत उधृत किया गया है। भूल से आप/पलायन करें, यह मूर्खतापूर्ण विचार व्यवहार स्वीकार्या है/ सजग रहें/ताम-झाम लेकर/ न लौटना
हो/ तो माइग्रेट करें / शान भी रहेगी / सम्मान भी होगा। इतनी गहरी पंक्ति के
कलमकार को मेरा नमन।
छठवें
आलेख में ऐसे नीव की ईंट का जीवन वृन्त का उल्लेख है जिन्होने इस उत्तराखण्ड के
अस्तित्व के लिए अपने अस्तित्व की चिन्ता नहीं की और आजीवन कलम और कर्म से
उत्तराखण्ड के लिए समर्पित रहे। ऐसे कर्म प्रधान शिखर पुरुष थे यमकेश्वर हेंवल
घाटी के सुपुत्र ”प्रताप शिखर“। आलेख में जन आंदोलनो के अग्रदूत व गढ़वळि भाषा के सशक्त कलमकार ‘प्रताप शिखर’ की जाग्रत और धधकती जीजीविषा का दर्शन होता है। मेरे जैसै कितने असंख्य लोग होंगे
इस माटी में जो ‘प्रताप शिखर’
जैसै व्यक्तित्व से अपरिचित होंगे, इसी लिए शब्दों की चाटुकारिता नहीं शास्वत सत्य है कि कठैत
जी जैसे विरल लोग होंगे जो ऐसे व्यक्तित्वों को समाज के पर्दे पर लाते हैं। धन्य
है ‘प्रताप शिखर’ का परताप व नेरेन्द्र कठैत जी का श्रम।
बल, ‘बिराणा लाटै हैंसी अर अपणा लाटै रुवै। यह गढ़वाळी औखाण आम सामाजिकता
के लिए आइना है। दावे के साथ कहा जा सकता है कि पौड़ी परिधि में कितने लोग हैं जो
पुष्पा बहिन को जानते होगें। और जानते तो होंगे पर कितने लोग है जिन्होने अभाव में
भाव वाली इस प्रतिभा को आंका होगा ? लेखक ने सातवां आलेख श्रद्धासुमन
स्वरूप अर्पित किया है एक गुमनाम प्रतिभा के लिए जिसने जीवन के अल्पकाल में बिना
हथेलियों के इस क्रूर समाज की रोटी पाथ कर एक मुकाम हासिल किया। और आगे साहित्य व
संगीत के क्षेत्र में ऊँची उड़ान के लिए अपने पंखों को मजबूत कर ही रही थी कि नियति
को कुछ और मंजूर हुआ और वह बहुमुखी प्रतिभा सदैव के लिए इस धरती से रुख्सत हो गई ।
आलेख हमारे इस आत्ममुग्द समाज को भी आईना दिखाता कि यह समाज दिव्यांग प्रतिभाओं का
उपहास ही करता है सबल नहीं देता, नहीं तों दोनो हथेलियों से हीन प्रतिभावान शिक्षिका और कवियित्री पुष्पा बहन
के जाने की खबर को इस वृहद संचार के युग में जगह कैसी नहीं मिलती।
पुस्तक
का आठवां आलेख श्रधांजलि स्वरूप अर्पित किया है प्रसिद्ध व प्रिय कलावंत श्रधेय
बी. मोहन नेगी जी को,
जो उनके देहावसान पर लेखक की 26 अक्टूबर 2017 की
फेसबुक वाल से उधृत है। बी. मोहन नेगी जी से लेखक का आत्मीय प्रेम ही था कि
उन्होने श्रधेय नेगी जी की पहली पुण्य तिथि पर ही उनके जीवन व कृतित्व पर दो
पुस्तकें हमारे बीच लाये। बी. मोहन नेगी जी जितने प्रिय और श्रद्धा के पात्र लेखक
के हैं उतने ही हम सबके थे और रहेंगे, क्योकि लाल दाड़ी मा हंसदी सु मुखड़ी कब्बि कै फर पिड़ै नी। हाँ इस आलेख में एक महत्वपूर्ण
विषय नजर ठिठक जाती है कि “बी. मोहन नेगी कला संग्रहालय” एक सोच एक विचार उस तपस्वी कलावंत के किये का असली सिला। जिसका निर्माण आज
भी मात्र एक सोच तक सीमित है, जिस पर हम उत्तराखण्डी साहित्य समाज व सरकार को आत्मग्लानी होनी चाहिए।
नहीं
रहे शिक्षाविद् बिशन सिंह नेगी। नवाँ आलेख शिक्षा के शिखर पुरुष श्रधेय बिशन सिंह
नेगी जी के जीवन वृन्त को हमारे सामने रखता है। लेखक के शब्दों में कि बहुत कम लोग
होते हैं जो अपने कार्य क्षेत्र में श्रेष्ठ होते हुए भी सदैव विशिष्ट या
श्रेष्ठता के लबादे से जीवन पर्यन्त दूर रहते हैं, ऐसे लोग पन्नों से ज्यादा दिलों में उतर जाया करते हैं। हाँ दिलों में उतर
जाया करते हैं पर ! कौन ? जो
उनको जानने वाले रहे होंगे । लेकिन लेखक ने उन्हें कागज के पन्नों पर उतार चिरकाल
के लिए मेरे जैसे पाठक के दिल में उतार दिया जिसका दूर तक भी ऐसे मनीषी से वास्ता
नहीं था। यह प्रेरक जीवन वृन्त अभाव में भाव की जीवन्ता को समाज के सामने लाता है
कि एक छ्व्यरा (अनाथ) बालक तब के अभाव ग्रस्त काल में अपनी लगन और कर्म श्रेष्ठता
से शिक्षा के ऊँचे से ऊँचे पायदान को हासिल करके हजारों बच्चों के लिए जीवन ज्योति
बनता है।
‘भगवती प्रसाद नोटियाल जी! पंच तत्व में लीन’। अंतिम समय में सभी बंधु बांधव, ईष्ट मित्र! और कलमकार बंधु मात्र तीन। हैरान करने वाले इस शीर्षक से ‘शेष स्मृति शेष’ का दशवां आलेख वयोबृद्ध साहित्यकार श्रद्धेय भगवती प्रसाद नोटियाल जी की
स्मृति में है,
अपनी भाषा साहित्य के लिए समर्पित नोटियाल जी जैसे विरले
लोग मिलते हैं जो अपनी भावी पिढ़ीयों के लिए कुछ करने का जतन करते हैं लेकिन
दुनियां ऐसे भगीरथ कार्यों में कहाँ साथ देती साब ? लेखक नोटियाल जी के साथ वार्ता का उल्लेख करते हैं कि सन 1985 में श्री नोटियाल
जी,
श्री दुर्गा प्रसाद घिल्डियाल जी और श्री लोकेश नवानी जी ने
पाँच-पाँच सौ रूपये मेलाख करके ‘गढ़वाल अध्ययन
प्रतिष्ठान’
की स्थापना इस उद्देश्य के लिए की थी कि ग़ढ़वाली में ज्यादा
से ज्यादा लिखा जाय,
ग़ढ़वाली लेखकों का एक मंच बनाया जाय लेकिन राम की माया तमाम
देहरादून दिल्ली में चौथा आदमी का साथ नहीं मिला। मंच के गठन के चार दशक बाद भी वो
चौथा कलमकार उनकी अर्थी को कन्धा देने वाला नहीं हुआ, इस उपेक्षा को देखते हुए सचमुच सवाल उठते हैं कि हमारे
ग़ढ़वाली साहित्य समाज में आज भी जो फुक्क आग लगा रौण द्या वाला नजरिया है वह आत्मचिंतन
का विषय है,
यही अपनी ढपली अपने राग के चलते श्री कठैत जी की बात कि
भुला इस कारण आज भी हमारे साहित्य का एक पुस्तकालय नहीं बन पाया। सच में सच्ची और
करड़ी कलम का साथ देने से लोग कतराते हैं।
फेसबुक
की सूनी वाल के उस पार खड़ी एक दिवार शीर्षक से ग्यारहवाँ आलेख निर्भीक कलम, घुमक्कड़ चलन, समाज और साहित्य सेवी पेशे से पत्रकार श्रद्धेय एल. मोहन कोठियाल जी को
श्रद्धांजलि स्वरूप अर्पित किया गया है। श्री कोठियाल जी ऐसे पहाड़ हितेषी थे कि पूरी
सक्षमता के होते हुए उन्होने खुद को आम गृहस्थी बंधन से दूर रखा। इस भू लोक पर वे
जितने भी समय रहे ग़ढ़वाल के लिए समर्पित रहे, मुझे भी चकबंदी की संगोष्ठीयों में उनका सानिध्य मिला। शालीन, सहज़, कम बोलने वाले और ज्यादा करने वाले उस व्यक्तित्व का मैं भी
मुरीद था। वास्तव में कोठियाल जी ने अपनी ऋषिचर्या से इस थाती के लिए बहुत कुछ
करना था लेकिन उपर वाले को आपकी ज्यादा जरुरत होगी म्येल्यौ।
पुस्तक का बारहवाँ आलेख समर्पित है श्रीमती लीला देवी जी की
स्मृति में,
जिनके व्यक्तित्व का प्रभाव लेखक के जीवन पर रहा, नीति सम्मत है साब जब जीवन से अपने आदर्शों का हाथ उठता है
तो बहुत कुछ होने के बाद भी एक रीतापन रहता है, लेखक द्वारा अपनी सासु माँ की श्रद्धा में लिखा गया छोटा आलेख बड़ी सीख देता
है। लेखक के शब्दों में कि मेरे लेखकीय पक्ष पर भले आपने कभी खुल कर परिचर्चा नहीं
की हो लेकीन आपकी मौन स्वीकृति रही, आपसे ही सीखा कि भाषा, आस्था और निष्ठा का विषय है खोखली वस्तु
नहीं। सुधी जनों की पहचान ही होती है कि वे हर रिस्ते हर जन से सीखने वाली चीज
निकाल लेते हैं और अपने साथ औरों के जीवन को दिप्तमान करते हैं।
तेहरवां
स्मृति आलेख समर्पित किया गया है ग़ढ़वाली लोक धुनों के राही ‘चंद्र सिंह राही’ जी को,
जो राही जी की प्रथम पुण्य तिथि पर श्रद्धांजलि स्वरूप लेखक
द्वारा लिखा गया था। राही जी हमारे लोक संगीत के जिस स्तर के मर्मज्ञ थे उस स्तर
पर उनके कृतित्व पर काम होना बाकी है जिसे लेखक शिष्टाचार वार्ता में कितनी बार कह
चुके हैं। राही जी हमारे लोक वाद्यय विद्या के विरले साधक थे, सर्वज्ञ थे, विरले लोक गीतकार और गायक। कौन सा ऐसा वाद्यय यंत्र है जिसे वे शास्त्रीय
सम्मत बजाना नहीं जानते थे। उन जैसा कलाकार आज सायद ही कोई देखने को मिलता है।
आलेख में राही जी द्वारा लोक वाद्ययों की स्थति पर जो चिंतन उकेरा गया है वो
वास्तव में चिंता का विषय है। आज पाश्चात्य जगत के कनफौड़ा वाद्यय यंत्र हमारे लोक
वाद्ययों की चिता का कारण बन गई कहना गलत नहीं होगा। संस्कृति के सच्चे साधक की
चिंता पर लोक संस्कृति के वाहकों को गौर करना जरूरी हो गया है। श्री राही जी जिस
ऊँचे कद के कला मर्मज्ञ थे उस ऊँचाई का ना तों आजतक उन्हें कोई सम्मान मिला और ना
ही उनका व्यक्तिगत जीवन उस स्तर का रहा। राही जी द्वारा एक सभा के प्रसंग से उनकी
विपन्नता झलकती है,
वे कहते हैं कि बल, लोग मुझे दूर-दूर से प्रोग्रामों में आमन्त्रित करते हैं और एवज में भेंट करते
हैं स्मृति चिह्न और शौल,
और जब में घर में आता हूँ तो स्या (घरवाली) बोलदी कि सु कटगा
खाण छौरन। सायद उनकी नेक दिली थी कि उन्होने कभी अपनी कला का दाम नहीं लगाया।
पुस्तक
का चौदहवां स्मृति आलेख है “पहाड़ के
चार्ली चौम्पयन - सिताब सिंह कुंवर जी” पर। सायद आप भी नहीं जानते होंगे उन्हे जैसे मै भी इससे पहले नहीं जानता था
क्योंकि उनकी कला का दायरा छोटा रहा था। छोटा इस लिए भी रहा होगा कि उस प्रतिभा ने
अपने लोक को ही प्राथमिकता दी हो। लेखक ने उन्हें पहाड़ के चार्ली चौपियन की उपाधि
दी यह लेखक के नाट्य गुरू होने के नाते व्यक्तिगत श्रद्धा का विषय भी हो सकता
लेकिन कुंवर जी की रचनात्मक व जीवन वृन्त को पढ़कर आप सभी कहेंगे कि इससे भी बड़ी
कोई उपाधि हो तो वो भी कम है। अद्भुत कला के धनी श्री कुंवर जी ने जिस तरह अपनी
संस्कृति को जिया उसका संवर्धन किया वह वंदनीय है। समसामयिकी व सरकारी तंत्र की
बिडंबनाओ को वे अपनी स्टैंडिंग कॉमेडी/प्रहसन के माध्यम से ‘हैंसी हैंसी चटताळ’ मारते थे बल,
कि घपकताळ भी लग जाऐ और घाव भी ना दिखे। वे संवाद से कम और
हावभाव से ज्यादा बिंगा देते थे बल। आलेख में कुंवर जी की कला के कई रोचक प्रसंग
देखने को मिलते हैं। कहते हैं कि महत्व इस बात का नहीं कि आप कितना जिए बल्कि इस
बात का है कि कैसे जिए। मेरा मानना है कि कोई व्यक्ति विशेष तभी है जब उसमें शेष
रहने की क्षमता है,
भागफल हमारे जीवन तक ही रहता है लेकिन शेष चिरकाल तक, और यही शेष कुंवर जी छोड़ कर गए हैं जिसे और दीर्घकाल के लिए
स्थापित करने का श्रम श्री कठैत जी की कलम ने किया है।
जैसा
कि लेखक के शब्दों में कि शेष ही वे नीव के पत्थर हैं जिन पर हर विशेष की ईमारत
खड़ी होती है । आज के भव्य उत्तराखंड के भवन की प्रथम नीव की ईंटों में शामिल
श्रीमती सुंदरी नेगी जी के संघर्षनामें का विवरण पुस्तक के पंद्रहवे व आख़री आलेख
में दिया गया है। और यह संघर्षनामा तब का है जब पृथक उत्तराखंड होगा इसकी सोच पहाड़
में दूर दूर तक भी नहीं थी। सत्तर के दशक का पूर्वार्द्ध सन् 1973-74, तब मैं भी पैदा नहीं हुआ था। बाबा बमराड़ा जैसे राज्य आंदोलन
के अग्रदूत के साथ दिल्ली से एक महिला क्रन्तिकारी सुंदरी नेगी पौड़ी में आकर अनशन
पर बैठती है और पहाड़ को जगाती है कि उठा रे स्यावा ना अपने हितों का राज्य मांगो।
श्रीमती सुंदरी देवी के कई सामाजिक संघर्षों का उल्लेख आलेख में मिलता है। हमारे
समाज की हमेशा से यही बिडम्बना रही कि समाज ऐसी विभूतियों को जल्द भूल जाता है और
समाज के लिए उनका योगदान गुमनामी हो जाता है।
अंततः
पूरी पुस्तक का अवलोकन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि एक सच्चे
कलमकार का दायित्व श्री नरेन्द्र कठैत जी ने निभाया और निभाने का मतलब केवल इतना
नहीं कि नीव पर बैठे गुमनाम पत्थरों को कंगूरे पर लाने की कोसिस की, बल्कि साथ में समाज को आईना के साथ दूरदर्शिता भी दिखायी, कि जिन पत्थरों के उपर आज हम सबका सांस्कृतिक व सामाजिक भवन
खड़ा है उनको क्यों भूलाया गया/ जा रहा है ? जबकि वे अपूर्व शेष छोड़ कर गए हैं। क्या हम इतने असंवेदनशील हो गए कि जीवन का
आखिर सत एक लकड़ी देने तक की भी मंशा नहीं रखते ? ऐसे कई गंभीर
सवालों से लेखक द्वारा झकझोरा गया है। इस अप्रीतम कृति के लिए भैजी नरेंद्र कठैत
जी का मैं व्यक्तिगत आभार प्रकट करता हूँ कि आपके माध्यम से ही हमें हमारे नीव के
पत्थरों को जानने को मिला। साथ में यह आशा करता हूँ कि यह पुस्तक उत्तराखंड के हर
उस युवा के हाथ तक पहुंचे जो उत्तराखंडियत से प्यार करता है।
चलते
चलते सभी लोक हितेषियों से अपील करता हूँ कि ‘कलावंत श्रद्धेय बी. मोहन नेगी जी कला संग्राहलय’ हेतु श्री कठैत जी की सोच को अमली जामा पहनाने के लिए आगे
आएं,
अपने सुझाव दें और उत्तराखंड के एक महान कलाकार की कला को
चिरकाल तक जीवंत बनाने में अपना सहयोग करें, नहीं तो कुछ पीढ़ीयों बाद उनकी कृतियों से भरे
बक्से भी सुदामा प्रसाद प्रेमी जी की तरह गुम हो जायेंगे।
@ बलबीर सिंह राणा ‘अडिग’
13 Dec 2024
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