मिटाया था तूने सुखी-चैनों का सिंदूर,
अब तू भी मिट यही नीति यही दस्तूर,
ज़ो हमें छेड़ता है उसे छोड़ते नहीं मगरूर,
बिखरेगा तू, होगा खंड-खंड, चूर-चूर।
बेकसूरों पर उठाया था तूने फन,
चैन से रहना ना भाया तुझसे बन,
धुनने लगा तू, बजने लगा ढम ढम,
अब ना छुप, ना बच पायेगा सुन,
उठा सर, कटेगा धड़, धड़-धड़,
वक्त गया, ज़ो सकता था तू पकड़,
उठा है तो गिरेगा, ही धड़ाम-धड़ाम,
गिरेगा तो चीरेगा ही चड़ाम-चड़ाम।
अभी भी हो सके तो जाग, जाग,
है सक्या सामर्थ्य तो भाग, भाग,
चल बच सकता तो बच ले आज
हम वसूलते हैं, मूल, सूद-ब्याज।
और आंधी चलेगी जलजला उठेगा,
ओर भी चहुँ ओर कोलाहल मचेगा,
काल कवलित होंगे लोग निर्दोष भी,
जिसका दंश तू कालों तक भोगेगा।
मुँह की खाना नहीं छोड़ता तू आदत,
हरबार, करता है खुद की फ़जीहत,
हम शास्त्र के साथ शस्त्रवेता हैं जान,
रक्त का जबाब रक्त जानते हैं मान।
©® स्वराचित मौलिक
@ बलबीर राणा 'अडिग'
2 टिप्पणियां:
शानदार कृति आदरणीय 👌👌🙏🙏
आभार महोदय
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