आज रो रही है माँ
अपनों के लिए तरसती है माँ
नियति के क्रुर मजाक पर
बिरह की हँसी हँस रही है माँ
नो महिने कोख में सींचा जिसे
उसी के आक्रांत से
आज इस कोख को कोसती है माँ
आज रो रही है माँ
मातृत्व धर्म निभाया था माँ ने
इन पौधों को हाथों हाथ उगाया था माँ ने
स्तनों से प्रेमपान कराया था माँ ने
सुन्दर कल की चाह में
निराया गुडाया था माँ ने
आज इसी कल से व्यथित है माँ
आज रो रही है माँ
प्रीत आज प्रतिकार हो गयी
अपनो से ही धिक्कार दी गयी
जिस दुखः बिपदा ले के जीवन से लडी थी
आज फिर उस बिपदा की ललकार सुन रही है माँ
अपनो के लिए आँशुं बहा रही है माँ
आज रो रही है माँ
अपने मन को मार कर
अपने तन को काट कर
खुद रूखा सुखा खा कर
बेटे को तला रस खिला कर
ममता की छांव में संवारती रही
आज उसी ममता के दग्ध से दग्धित है माँ
आज रो रही है माँ
……….बलबीर राणा "भैजी"
०२ अक्तूबर २०१२
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