रविवार, 18 अक्टूबर 2020

प्रकृति निधि

 यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं

मोह, प्रेम राग/अनुराग भरे नाते हैं

चेहरे ये आते जाते राहगीरों के नहीं

ये आनन हर उर में घर कर जाते हैं।


पतंग का दीपक प्रेम, पंछी का कीट

मछली का जल, बृद्ध का अतीत

उषा उमंग का निशा गमन करना

दिवा ज्योति का तिमिर हो जाना।


फेरे हैं ये फिर फिर कर फिर आते हैं

यही प्रकृति निधि ..............


सुकुमार मधुमास का निदाघ तपना

निदाघ का मेघ बन पावस में बहना

तर पावसी धरती शरद में पल्लवित

तरुणाई शीतल हेमंत में प्रफुल्लित।


फिर शिशिर में बुढ़े पत्ते झड़ जाते हैं

यही प्रकृति निधि........


 मेघों का निर्भीक अंबर टहलना

खगों का निर्वाध विहारलीन होना

चलती पुरवाई निर्झक  मदमाती

धरा नन्हे अंकुर को हाथ बढ़ाती।


सृष्टिकर्ता की कृतियाँ जीवन गीत गाते हैं

यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं।


निदाघ - ग्रीष्म,  पावस- वर्षा


@ बलबीर राणा 'अड़िग'

Adigshabdonkapehara 

7 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

बहुत ही सुन्दर प्रकृति की वर्णन, सुन्दर अभिव्यक्ति 💐🙏😊

Kamini Sinha ने कहा…

सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-10-2020 ) को "उस देवी की पूजा करें हम"(चर्चा अंक-3860) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा

बलबीर सिंह राणा 'अडिग ' ने कहा…

धन्यवाद आदणीय

बलबीर सिंह राणा 'अडिग ' ने कहा…

हार्दिक आभार कामिनी जी

कविता रावत ने कहा…

यही प्रकृति निधि यही बही खाते हैं
मोह, प्रेम राग/अनुराग भरे नाते हैं
चेहरे ये आते जाते राहगीरों के नहीं
ये आनन हर उर में घर कर जाते हैं।
...बहुत बढ़िया

Anuradha chauhan ने कहा…

बहुत सुंदर रचना

मन की वीणा ने कहा…

बहुत सुंदर प्रकृति के अभिनव रूपों पर सुंदर रचना ।