प्रवासी रीना छुट्टीयों में गांव जा रखी थी उसे बचपन से बहुत जिज्ञासा थी अपनी जन्म थाती पहाड़ी जीवन वैभव देखने और समझने की। गांव की काष्ठ देह ताईयों, चाचियों और हमउम्र सखियों के साथ खूब घूमी। सीढ़ीनुमा खेत, सदाबहार जंगल, रौनकदार बुग्याळ, खाळ, धार, सदानीरा गदेरे, झरने, कोई जगह नहीं छोड़ी साथ में अपने डी एस एल आर और मोबाईल में कैद करती रही प्रकृति की अनुपमताओं को, सेल्फी हल के पीछे कुड़ते चाचा, चट्टान पर घास काटती भाभी, डालियों पर उछल कूद मचाते लंगूर, गोधुली में घर लौटती बकरियों की तांद, अपनों के वियोग में कराहती बूढ़ी दादी, आदी आदी के साथ ।
नित्य सोशियल मिडीया पर अपडेट। कुछ फोटो कविता गजल में गढ़ी जा रही थी कुछ स्लोगनों में मढ़ी जा रही थी। विडीयो यू टयूब और टिकटॉक पर धूम मचा रहे थे। रीना वायरल थी दुनियां में ट्रेंड कर रही थी और अपने काठ के जीवन मे ठाट की बाट जोहता पहाड़ अपनी जगह मूक बदिर रो रहा था, कराह रहा था पलायन के दंश से। संताप में था अपनी जवानी और पानी के लिए जो कभी उसके काम नहीं आई।
@ बलबीर राणा ‘अडिग’
Adigshabdonkapehara
12 टिप्पणियां:
वाह अडिग जी ! बहुत सुन्दर लघुकथा है ।
सार्थक लघुकथा।
धन्यवाद आदरणीय ममगांई जी, गुरुवर डॉण् रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी। स्नेह आशीष बना रहे
अब कुई कतगा भी खुद लगेणा कोशिश कारा पर यु ज्युकुडू ढुङ्गा व्हे ग्या🙏
वाह बहुत खूब
वाह अडिग जी भौत सुन्दर
बहुत उदभुत
वाह!!बिल्कुल सटीक।
गागर में सागर भर दिया आपने भ्राता जी।
धन्यवाद भुला सेते जी
धन्यवाद महोदय
आभार अभिवादन आदरणीय
धन्यवाद भुला राणा जी
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