नहीं समझते वे पहाड़ को,
जो दूर से पहाड़ निहारते हैं,
वे नहीं जानते पहाड़ों को,
जो पहाड़ पर्यटन मानते हैं।
पहाड़ को समझना है तो,
पहाड़ी बनकर रहना होता,
पहाड़ के पहाड़ी जीवन को,
काष्ठ देह धारण करना होता।
जो ये चट्टाने हिमशिखर,
दूर से मन को भा रही,
ये जंगल झरने और नदियाँ,
तस्वीरों में लुभा रही,
मिजाज इनके समझने को,
शीत तुषार को सहना होता।
पहाड़ को समझना है तो,
पहाड़ी बनकर रहना होता,
वन सघनों की हरियाली,
जितना मन बहलाती है,
गाड़ गदनों की कल-कल छल-छल,
जितना मन को भाती हैं,
मर्म इनके जानने हैं तो
उकाळ उंदार नापना होता।
पहाड़ को समझना है तो,
पहाड़ी बनकर रहना होता।
सुंदर गाँव पहाड़ों के ये,
जितने मोहक लगते हैं,
सीढ़ीनुमा डोखरे-पुंगड़े,
जितने मनभावन दिखते हैं,
इस मन मोहकता को,
स्वेद सावन सा बरसाना होता।
पहाड़ को समझना है तो,
पहाड़ी बनकर रहना होता।
नहीं माप पहाड़ियों के श्रम का,
जिससे ये धरती रूपवान बनी,
नहीं मापनी उन काष्ठ कर्मों की,
जिससे ये भूमि जीवोपार्जक बनी,
इस जीवट जिजीविषा के लिए,
जिद्दी जद्दोहद से जुतना होता।
पहाड़ को समझना है तो,
पहाड़ी बनकर रहना होता।
मात्र विहार, श्रृंगार रचने,
पहाड़ों को ना आओ ज़ी,
केवल फोटो सेल्फी रिलों में,
पहाड़ को ना गावो ज़ी,
इन जंगलों के मंगल गान को,
गौरा देवी बनकर लड़ना होता।
पहाड़ को समझना है तो,
पहाड़ी बनकर रहना होता।
दूरबीनों से पहाड़ को पढ़ना,
भय्या इतना आसान नहीं,
इस विटप में जीवन गढ़ना,
सैलानियों का काम नहीं,
चल चरित्रों के अभिनय से इतर,
पंडित नैन सिंह सा नापना होता।
पहाड़ को समझना है तो
पहाड़ी बनकर रहना होता,
पहाड़ के पहाड़ी जीवन को
काष्ठ देह धारण करना होता।
शब्दार्थ :-
गाड़-गदने – नदी- नाले
उकाळ-उंदार – चढ़ाई-उतराई
डोखरे-पुंगड़े – खेत-खलिहान
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