मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

सजल



उदयाचल से उगना, अस्ताचल में छिपना होता,
देखो, सूरज को रोज धरा के लिए नापना होता।

वो प्रकृति ऋतु-चक्रों के आदेशों को नहीं तोड़ती,
शीत, घाम, बरखा, हर हाल में उसे चलना होता।

हम मनुष्य पल, घड़ी, दिन-बार देख बदलते हैं रंग,
पर आत्मा को तयसुदा वक्त पर शरीर बदलना होता।

श्रम की तपती रेत में अथाह भाग रहे हैं दिन-रात,
कुछ को स्व, कुछ को परहित प्रारब्ध पाना होता।

संभलने–फिसलने में ही समय हो जाता अवसान का,
फिर भी आख़िरी साँस तक जी-जान से उलझना होता।

सच है नियती को जो करना है, करके रहेगी 'अडिग'
फिर भी तेरा ज़ोर–ज़बर नियति से लड़ना होता।

@ बलबीर राणा 'अडिग'

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