सोमवार, 13 अगस्त 2012

बीरान जीवन की डगर और मैं

बीरान जीवन की डगर और मैं
बीरान जीवन की डगर पे
 यह गतिशील यात्रा
जडवत और तठस्थ।
चारों ओर रूखा.सूखा
तपिष ही तपिष 
अतिृप्त प्यासा ।
तिृप्ती की चाह में भटकन ।
अघोर जंगल
छांव घनी पर अधिंयारा
दिखता पर धूमिल धूंधला
स्पष्ट कुछ नजर नहीं आता ।
पानी से रसातल
चहुॅ ओर जल थल
पग रखें तो कहां
सिमटता सम्भलता
इन राह से लडता।
दूर से सरल सीधा प्रतीत  होता 
समुख  उबड . खाबड
बिकट होती इसमें जीवन की डगर ।
निर्जन सुनशान और शान्त
धडकन की आवाज तक
कान के आर पार होती।
ज्यों ज्यों आगे बढता
टुटती जीवन्त जीवन की आश्
स्वय की खुसियों पर तुसारपात ।
कब मीटेगी दूरियां
कब टुटेगी बिछोह की दिवार
हटात !!!!!
मन बैठ जाता
वहीं पर जड होने को जाता
तभी एक अदृष्य ललकार
क्या ??? यही तेरा संघर्ष
कहां है तेरा हिम्मते मर्द ?
जिसने इन बिरानियों से
लडने का बीडा उठाया था।
तेरा इस तरह जड होना
इस लडाई का अन्त नहीं
अन्त केवल बीरानियों के साथ 
तठस्थ अडिग रहना।
तेरी इन बिरानियों के पार
तेरे वतन का जीवन्त जीवन
तेरी मॉं भारती की लाज।
जिसको बचाने के लिए
तुने अपना सर्वस्व न्यौछावर कीया ।
फिर रगों में खून का बहाव
तेज होता जाता
ओर नयें साहस के साथ
इस बीरान जीवन की राह
को आत्मसात करता।
बलबीर राणा भैजी
11 अगस्त 2012



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